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शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

corruption free Inda can not be made without Election reforms

भ्रष्टाचार की दीमक और चुनाव 

इन दिनों हवा में भ्रष्टाचार की गंध है, लगता है कि पूरा मूल्क ही घूसखोर, पतित और अनैतिक हो गया है। पांच सौ और हजार के नोट की बंदी को लकर सरकार का दावा है कि इससे काला धन रुकेगा तो विपक्ष इसमें और कुछ सूंघ रहा है। लेकिन यदि काले धन की असली वजह जानने का प्रयास करें तो यह तय है कि राजनीतिक व्यवस्था में वोट पर भारी हो रहे नोट का मूल कारण हमारी त्रुटिपूर्ण निर्वाचन व्यवस्था है। आए रोज उभर रहे विवादों से परे यदि असल में देश को भ्रष्टाचार से मुक्त होना है तो निर्वाचन, निर्वाचित प्रतिनिधियों और निर्वाचनकर्ताओं में कई आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे।

 असल में समस्या हमारे यहां कानूनों की कमी या उनके क्रियान्वयन की नहीं है, कानूनों की भरमार, मतदाता की अल्प जागरूकता और निर्वाचित संस्थाओं में अपने हितों को साधने की लालसा पाले बैठे लोगों की बढ़ती ललक की है। निर्वाचित नेताओं में भ्रष्टाचार की बढ़ती प्रवृत्ति का मूल हमारी विधायी संस्थाओं का अपने उद्देश्य से भटकना और आम लोगों की अपने प्रतिनिधियों के अधिकारों के प्रति अल्प जानकारी होना है। जहां एक तरफ निर्वाचन प्रक्रिया को आम लोगों की पहुंच तक लाने के प्रयास करना होगा, वहीं मतदाताओं को भी अपने मत के मूल्य की जानकारी देना जरूरी है।यह जगजाहिर है कि आज चुनाव कितने महंगे हो चुके हैं। पंचायत चुनाव में दस-पंद्रह लाख खर्च आम बात है। असर भी सामने दिखता है कि मध्य प्रदेश या उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में सरपंच के पास एसयूवी किस्म का वाहन होना अनिवार्य सा हो गया है।

हमारी संसद और विधानसभाएं गवाह हैं कि एक बार पांच साल पूरा करने के बाद विधायक या सांसद की माली हालत किस तरह बदलती है। कुछ दबा-छिपा नहीं है कि यह सब चुनावों में किए गए खर्च की वसूली से आए धन की बदौलत ही होता है। चुनाव एक तरह का व्यापार हो गया है, जितना लगाओगे, उससे सौ गुना मिलेगा। चुनाव आयोग द्वरा निर्धारित खर्च-सीमा में चुनाव लड़ना असंभव माना जाता है। 16वीं लोकसभा के चुनावों के दौरान हजारों करोड़ के काले धन के इस्तेमाल का अंदेशा खुद सरकारी एजेंसियों को था। कोई भी चुनाव हो खुलेआम सभी पार्टियां उम्मीदवार तय करते समय उसकी जेब, दबंगई, जाति या संप्रदाय के गणित को ही आधार बनाती हैं। आखिर इतना पैसा क्यों खर्च करता है एक उम्मीदवार? जाहिर है कि उसे उम्मीद ही नहीं भरोसा होता है कि वह पांच साल में इसका कई गुना बना लेगा। इससे बदतर हालत तो अब पंचायत स्तर के चुनावों में हो गई है। क्या विधानसभा या लोकसभा का काम विकास के काम करना है? संविधान की मूल भावना कहती है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों का काम केवल जन कल्याणकारी योजनाओं, कानूनों को बनाना मात्र है। उसका क्रियान्वयन करना कार्यपालिका की जिम्मेदारी है। अब सांसद, विधायक, पार्षद सभी के पास अपनी-अपनी विकास निधि है, जोकि आमतौर पर भ्रष्टाचार की पहली सीढ़ी बनती है। हमारे यहां पंचवर्षीय योजनाएं बेहद सशक्त हुआ करती थीं, सालाना बजट पर आम लोगों की उम्मीदें होती थीं, आज ऐसी सभी संस्थाएं कॉरपोरेट की गोद में खेल रही हैं।
जनवाणी मेरठ २८-११-१६
सांसदों का काम केवल वार्षिक या पंचवर्षीय योजनाओं में सुझाव देने तक सीमित करना चाहिए। इसी तरह विधायक की जिम्मेदारी राज्य स्तर की व्यापक योजनाओं व कानूनों तक सीमित कर दें, देखें कि सांसद, विधायक बनने के लिए लोग मिलेंगे नहीं। कैसी विडंबना है कि 66 साल के गणतंत्र में अभी तक जनता तो दूर चुने हुए प्रतिनिधि को नहीं मालूम है कि वे आखिर किस काम के लिए चुने गए हैं। पंचायत या नगर पालिका के चुनावों में पाकिस्तान को कोसना, महंगाई पर लानत देना और अपने इलाके में सांसद के दौरे पर गली में गंदगी को ले कर उसका कॉलर पकड़ लेना, आम बात है। असल में जनता को ही नहीं मालूम है कि हमने किसे, किस काम के लिए चुना है। ठीक यही नेता भी करते हैं, जब वोट मांगने जनता के बीच जाते हैं तो वे सभी वादे कर देते हैं जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आते। अब सड़क बनवाने का काम सांसद-निधि से भी हो रहा है और पार्षद के पैसे से भी। न तो कर्तव्यों का भान है और न ही अधिकारों की परवाह, गांव में बिजली नहीं आने पर सांसद प्रदर्शन करने पहुंच गए, किसी को छुड़ाने के लिए विधायक थाने पहुंच गए...लगता है कि असीमित अधिकार हों। यहीं से पक्षपात और फिर घूसखोरी की शुरुआत होती है। कहने को तो पाठ्य पुस्तकों में यह सब दर्ज है कि किस जन-प्रतिनिधि के क्या कर्तव्य हैं, लेकिन उनकी भाषा व प्रस्तुति इम्तेहान में नंबर लाने के लिए रटंत से अधिक नहीं होती।

भ्रष्टाचार पर यदि कोई असली चोट करना चाहता है तो उसे सबसे पहले आम लोगों को यह समझाना होगा कि उनका कौन सा प्रतिनिधि किस काम का है। किसी भी जन प्रतिनिधि के भ्रष्टाचार की शुरुआत सरकारी कर्मचारियों की कमी, तबादले, हिस्सेदारी से ही होती है। तबादलों व विकास योजनाओं में पारदर्शिता व स्पष्ट नीति नेताओं व अफसरों की जोड़-तोड़ को फोड़ सकती है। इसके लिए किसी लोकपाल की नहीं महज सुदृढ़ इच्छा-शक्ति की ही जरूरत है। बहुत से लोगों का वोट न डालना, चुनावों में उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, और बढ़ता व्यय भ्रष्टाचार का दूसरा महत्वपूर्ण कारण है। कुछ साल पहले गुजरात विधानसभा ने अनिवार्य मतदान पर विधेयक पर चर्चा भी की थी। इससे कहीं जरूरी है कि मतदान प्रक्रिया सहज और व्यापक बनाना, जैसे- सभी चुनाव एकसाथ करवाना, मतदान केंद्रों को मतदाता के और करीब या मोबाइल बनाना जैसे कदम कारगर हो सकते हैं। कुछ साल पहले निर्वाचन आयोग ने उम्मीदवारी की जमानत राशि बढ़ा कर अगंभीर उम्मीदवारों पर शिकंजा कसने का प्रयास किया था, लेकिन अब वह बेमानी हो चुका है। समस्या अब बेइंतिहां दलों के गठन की हो गई है। यदि इस पर काबू पा लिया जाए तो लोकतंत्र को बंधक या गिरवी बनाने के नए प्रचलन से छुटकारा मिल सकता है। लोकतंत्र की नई परिभाषा में सभी को ‘मजबूत’ नहीं ‘मजबूर’ सरकार चाहिए। यदि उम्मीदवारी को शैक्षिक योग्यता, आपराधिक रिकार्ड जैसी शतोंर् से सीमित किया जाए तो पूरे तंत्र से भ्रष्टाचार के ‘सुपर बग’ से मुक्ति मिल सकती है। ऐसा नहीं कि चुनाव सुधार के कोई प्रयास किए गए नहीं, लेकिन विडंबना है कि सभी सियासी पार्टियों ने उनमें रुचि नहीं दिखाई। वीपी सिंह वाली राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुवाई में गठित चुनाव सुधारों की कमेटी का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, ईंधन, मतदाता सूचियां, लाउडस्पीकर आदि मुहैया करवाए जाने चाहिए। ये सिफारिशें कहीं ठंडे बस्ते में पड़ी हुई हैं। वैसे भी आज के भ्रष्ट राजनीतिक माहौल में समिति की आदर्श सिफारिशें कतई प्रासंगिक नहीं हैं। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि नेता महज सरकारी खर्चे पर ही चुनाव लड़ लेंगे या फिर सरकारी पैसे को ईमानदारी से खर्च करेंगे। 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात’ रहा। चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घड़ियाली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि राजनीतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है। 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है। इस रपट में हर एक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित ऑडिट करवाने के सुझाव थे। 1980 में राजाचलैया समिति ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं। ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके हैं।अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए। आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासी पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित ऑडिट नहीं कराती हैं। अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे। लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। असल बात तो यह है कि अब चुनाव आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है, उसी का परिणाम है कि उससे उपजा प्रतिनिधि भी जनता से बहुत दूर है। तभी उसके समाज से सरोकार नहीं है और जनता भी वोट देने के बावजूद उसे अपना ‘प्रतिनिधि’ नहीं मानती। दिनोंदिन बढ़ती यही दूरी लोकतंत्र को नए किस्म की राजशाही में परिवर्तित कर रही है और जन-असंतोष यदाकदा अलग-अलग रूपों में उभरता रहता है। आज देश में जितने सरकारी कर्मचारी हैं, उनसे बामुश्किल चालीस फीसदी कम निर्वाचित प्रतिनिधि हैं, पंचायत से ले कर संसद तक, सहकारी समितियों से लेकर अन्य संगठनों तक। इसकी गंभीरता को भांपते हुए सबसे पहले व्यापक चुनाव सुधार पर अमल होना जरूरी है, वरन यदि लोकपाल बन भी गया तो उसका परलोकपाल बनना तय है। करेंसी की जगह दूसरे रूप में काला धन जमा होता था और हो रहा है, क्योंकि हम जिनको चुनकर भेज रहे हैं, वे स्वयं दलदल की करेंसी की नाव में बैठ कर यहां तक पहुंचते हैं।

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