क्यों खलनायक बन जाते हैं खाकी वाले
Raj Express MP 26-1-16 |
पिछले कुछ दिनों से आए रोज किसी ना किसी बैंक के बाहर पुलिस द्वारा नोट बदलवाने के लिए पंक्ति में खड़े लेगें पर हाठी चलाने या ऐसी ही घटनां सामने आ रही हैं। पुलिस वाले निलंबित भी हो रहे हैं। लेकिन कभी केई पूरा अध्ययन नहीं कर रहा कि आखि रवह पुलिस वाला हिंसक क्सों हो जाता है। यदि कभी आंकड़ों में डूब कर देखें तो हर साल अपराधियों से लड़ते हुए देषभर में कई सौ पुलिस वाले मारे जाते हैं। यह विडंबना है कि पुलिसवाले को उन सभी कर्मों की गाली खानी पड़ती है, उन सभी मसलों से जूझना पड़ता है, जिससे उसका कोई वास्ता नहीं नहीं होता। जैसे कि गली में नाली भर गई, बिजली गोल है, अस्पताल में डाक्टर-तिमारदार भिड गए, दो राजनीतिक दल के लोगों में टकराव..... ऐसे ही कई मसले हैं जिनका पुलिस से सीधा वास्ता नहीं होता, लेकिन उसे ही सामने हो कर आक्रोशित लोगों को समझना पड़ता है। कभी-कभी या अधिकांष मूल मसला पीछे रह जाता है और सारा झगड़ा पुलिस-जनता के टकराव में बदल जाता है। उ.प्र. के एक दरोगा जिनका बीते 20 सालें में प्रामेषन नहीं हुआ का दर्द गौरतलब है - ‘‘ जिन लोगों को हम लाठी मार कर हवालात में बंद कर देते थे, वे अब माननीय बन जाते हैं। फिर डर रहता है कि ये कहीं ना कहीं खुन्नस निकालेंगे। इसी लिए आज उभरते नेता, जो लफंगई व दबंगई के बल पर आगे आ रहे हैं उन पर कार्यवाही करने से पहले सोचना पड़ता है कि कल इन्हीं को सेल्यूट ठोकना होगा।’’
टीवी पर ढ़ेर सारे खबरिया चैनल हैं, हर दिन कोई ना कोई चैनल एक ना एक रिपोर्ट ऐसी जरूर दिखाता है, जिसमें खाकी वर्दी वाले वहशियाना तरीके से आम लोगों को लाठियों से पीटते , दौड़ाते दिखते हैं । पिटने वाले लोग आमतौर पर बिजली-पानी मांगने वाले, पेट भरने या किसी अन्याय का विरोध करने वाले होते हैं । पुलिस का काम तो अपराध रोकना है, अपराधी को पकड़ कर पीड़ित को न्याय दिलवाना है- यह कब से उनका काम हो गया कि जनता की आवाज को लाठियों से दबा दो ? एक बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी को व्यथित मन से कहते सुना कि जब हमारी पुलिए डंडे ले कर जनता पर टूटती दिखती है तो यह भ्रम टूट जाता है कि हम आजाद हैं । बिल्कुल वही दृश्य होता है, आजादी का अधिकार मांगने वालों को बूटों के तले कुचल दो !
ऐसा लगता है कि देश में गणतंत्र की स्थापना के 66 साल बीत जाने के बाद भी हमारे नीति-निर्धारक यह तय नहीं कर पाए हैं कि हमें पुलिस क्यों चाहिए ? जब कभी सुरक्षा में चुक या भयंकर अपराध होते हैं तो आंकड़ों का खेल शुरू हो जाता है - हमारे यहां आबादी के लिहाज से पुलिस वालों की संख्या बेहद कम हैं । दूसरी तरफ देखें तो एक-एक व्यक्ति की सुरक्षा में सौ-सौ कर्मचारी तो कहीं एक लाख की बस्ती पर एक सिपाही, वह भी शारीरिक रूप से अक्षमता की हद तक बेडौल ! अपराध घटित हो जाने के बाद पुलिस का पहुंचना, फिर मुजरिम से अधिक मुद्दई की प्रताड़ना । देश की अदालतें मुकदमों के बोझ से हलाकांत हैं और पुलिस आए रोज हजारों-हजार मुकदमें दर्ज कर अदालत भेज रही हैं । सजा होने का आंकड़ा तो बेहद शर्मनाक हैं - शायद 20 फीसदी से भी कम। विचाराधीन कैदियों को जेल में रखने की व्यवस्था(या अव्यवस्था) की चर्चा के लिए पूरा अलग अध्याय लिखना होगा । फिर एक एक वर्दीधारी का हर रोज 18 घंटे तक ड्यूटी करना। गष्त, मुकदमें की लिखा पढभ्, मुजरिम को अदालत ले जाना, पुराने मुकदमों की पेषी के लिए कोर्ट में खड़े होना, इसके बाद आकस्मिक तनाव होने पर ड्यूटी के लिए भागना। इतना करने पर भी ना तो जनता संतुश्ट, ना ही अफसर। ना कोई ओवर टाईम, ना ही सोने, खाने, मनोरंजन की कोई माकूल व्यवस्था। ना प्रमोषन की संभावनाएं, ना ही परिवार को समय दे पाना, ेऐस ही कई दर्द ले कर एक सिपाही से ले कर उप निरीक्षक तक नौकरी करता है।
कई दशक पहले एक सम्मानीय न्यायाधीश आनंद नारायण मुल्ला अपने एक आदेश में लिख चुके हैं कि पुलिस वर्दी पहने हुए संगठित अपराधिक गिरोह की तरह काम करती हैं । इसका अनुभव किसी भी शहर, गांव में किया जा सकता हैं । पटरी पर दुकान लगाने वाले, ढ़ाबे चलाने वाले, बस, डग्गामार जीपों के संचालक, शराब के ठेकेदार , दीगर कामों के ठेकेदार, जुंए की फड़ व सट्टा के नंबर लिखने वाले- ये वर्ग कश्मीर से कन्याकुमारी तक पुलिस के लिए दुधारू-गाय रहा हैं । धारा 107,116,151 में गिरफ्तारी का भय देशभर के थानों की नियमित कमाई का जरिया और ‘‘ पुलिस की सक्रियता ’’ का प्रमाण-पत्र है । ये धाराएं शांति-भंग की आश्ांका की हैं और आमतौर पर जब दे पक्षों के बीच मामूली झगड़ा भी होता है तो पुलिस दोनों पक्षों को इसमें बंद कर खुश हो जाती है। । सवाल फिर वही कि क्या पुलिस का काम यही हैं ?
भारत में घटित होने वाले अपराध, खासतौर पर पिछले दो दशकों की आतंकवादी घटनाएं, अन्य किसी विकासशील देश की तुलना में कई गुना अधिक हैं । कहा जा सकता है कि देया का एक तिहाई भाग तो सषस्त्र विद्रोहियों की निजी मल्कीयत बना हुआ है। विपन्नता, भौगोलिक और सामाजिक स्तर पर गहरी होती खाईयां इन अपराधों या अलगाववाद का कारण कहे जाते हैं । सरकार ऐसे उग्रवादियों और अपराधों के मूल कारकों को जाने बगैर उनसे जूझने के लिए डंडे का जोर बढ़ाती जा रही है । जाहिर है कि खाकी वर्दी पर बढ़ता यह खर्चा उसी जनता की खून-पीने की कमाई से उगाहे गए करों से आता है, जिसे इनकी ताकत का शिकार होना पड़ता है । यह भी मखौल ही है कि देश में एक दर्जन से अधिक विशेष सुरक्षा बल हैं और अधिकांश वह काम नहीं कर रहे हैं, जिसके लिए उनका गठन किया गया है । ऐसे में जब यह बात आती है कि पड़ताल, सुरक्षा व्यवस्था और अदालती कार्यों के लिए पुलिस की अलग-अलग शाखाएं बनाई जाएं तो यह कारगर कदम तो कतई नहीं दिखता हैं । मध्यप्रदेष में प्रत्येक थाने में दो इंस्पेक्टर की बहाली षुरू हुई है- एक कानून-व्यवस्था देखेगा और दूसरा मामलों का अन्वेषशण। देखने में तो यह व्यवस्था अच्छी प्रतीत होती है, लेकिन जब तक दसवीं पास को सिपाही तथा सिपाही को केवल डंडा समझने की प्रवृति से मुक्ति नहीं मिलती, ऐसे सभी सुधार बेमानी होंगे।
यह विडंबना है कि अभी भी पुलिस, विषेशरूप से सिपाही स्तर पर केवल दमन और डंडे का प्रषिक्षण दिया जा रहा है। सुधारों के कई-कई आयोग बने, सिफारिषें आईं; लेकिन नेतागण व सरकारें पुलिस की ताकत का खुद के स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करने के लोभ से उबर नहीं पा रहे हैं। पुलिस इंतजार करती रहती है कि पहले कोई अपराध हो, उसके बाद उसके कागजी पंचनामें भरे जाएं। सुरक्षा, अपराध या व्यवस्था में चूक होने पर किसी भी स्तर पर काई जिम्मेदारी तय ना किया जाना भी पुलिस की निरंकुषता का कारक है।
पुलिस सुधार की कई सिफारिषें और यहां तक कि उन्हे लागू करने के लिएए सुप्रीम कोर्ट की हिदायतें कहीं लाल बस्ते में बंधी पड़ी हैं। असल में अब पुलिस का अपराध उन्मूलन के बनिस्पत सियासती इस्तेमाल बढ़ गया है, सो कोई भी नहीं चाहता कि खाकी वर्दी का खौफ कम हो। जब तक खौफ रहेगा, तब तक उसका दुरूपयोग होगा। असल में यह समझना जरूरी है कि हमें पुलिस चाहिए किस काम के लिए-सुरक्षा के लिए, अपराध रोकने के लिए, अपराधियां को सजा दिलवाने के लिए, यातायात व्यवस्था बनाए रखने के लिए या आम लोगों के आक्रोष और गुस्से को डंडे के बल दबाने के लिए या फिर झूठी-सच्ची कहानियां गढ़ कर आम लोगों पर रौब गालिब करने के लिए।
आज प्रत्येक प्रदेष का पुलिस का बजट सालाना कई अरब रूपए का है, इसके बावजूद आम आदमी पीड़ित होने के बाद भी थाने जाने से घबराता है। प्रत्येक राज्य अत्याधुनिक हथियार, वाहन और संचार के नाम पर ज्यादा से ज्यादा पैसा मांग रहा है। लेकिन पुलिस के आम लोगों से सरोकार गौण ही हैं। समय साक्षी है कि भले ही लाल किले पर फहराने वाले झंडे का रंग बदला हो, लेकिन हमारी पुलिस की मानसिकता और प्रषिक्षण वही अधिनायकवादी है।
पंकज चतुर्वेदी
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