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रविवार, 4 दिसंबर 2016

Silent killer Road jams must be killed

 जानलेवा बनता सड़क जाम

बड़े शहरों में जो कार्यालय जरूरी न हों, या राजधानियों में जिनका मंत्रालयों से कोई सीधा ताल्लुक न हो, उन्हें सौ-दो सौ किलोमीटर दूर के शहरों में भेजना एक कारगर कदम हो सकता है। इससे नए शहरों में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे व दिल्ली की तरफ पलायन भी कम होगा। काम के लिए जाने में समय कम, और इसका अर्थ है पर्यावरण संरक्षण व स्वास्थ्य की रक्षा।

अभी कुछ दिन पहले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानी एनजीटी ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया है कि राजधानी की सड़कों पर जाम न लगे, यह सुनिश्चित किया जाए। एनजीटी के अध्यक्ष न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार के पीठ ने दिल्ली यातायात पुलिस को कहा है कि यातायात धीमा होने या फिर लालबत्ती पर अटकने से हर रोज तीन लाख लीटर र्इंधन जाया होता है, जिससे दिल्ली की हवा प्रदूषित हो रही है। जबकि दिल्ली में कुछ दिनों तक व्यापार मेला के चलते एनजीटी से सटे प्रगति मैदान के सामने हर शाम भयंकर जाम लगा रहा। राजधानी में शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब कोई वाहन खराब होने से यातायात के संचालन में बाधा न आए। रही-सही कसर जगह-जगह चल रहे मेट्रो के या ऐसे ही अन्य निर्माण-कार्यों ने पूरी कर दी है। भले ही अभी दीवाली के बाद जैसी धुंध न हो लेकिन हवा का जहर तो काफी खतरनाक स्तर पर ही है।
यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दशक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण-स्तर को काबू में नहीं किया गया तो 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब बत्तीस हजार लोग जहरीली हवा के शिकार होकर अकाल मौत के मुंह में चले जाएंगे। आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। ‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित ताजा शोध के मुताबिक दुनिया भर में तैंतीस लाख लोग हर साल वायु प्रदूषण के शिकार होते हैं। यही नहीं, सड़कों में बेवजह घंटों फंसे लोग मानसिक रूप से भी बीमार हो रहे हैं व उसकी परिणति के रूप में आए रोज सड़कों पर ‘रोड रेज’ के तौर पर बहता खून दिखता है। वाहनों की बढ़ती भीड़ के चलते सड़कों पर थमी रफ्तार से लोगों की जेब में होता छेद व विदेशी मुद्रा व्यय कर मंगवाए गए र्इंधन का अपव्यय होने से देश का नुकसान है सो अलग। यह हाल केवल देश की राजधानी का नहीं है, देश के सभी छह महानगर, सभी प्रदेशों की राजधानियों के साथ-साथ ज्यादातर शहरों-कस्बों का भी है।
दुखद है कि दिल्ली, कोलकता जैसे महानगरों में हर पांचवां आदमी मानसिक रूप से अस्वस्थ है। दिल्ली हो या जयपुर या फिर भोपाल या शिमला, सड़कों पर रास्ता न देने या हॉर्न बजाने या ऐसी ही गैर-जरूरी बातों के लिए आए रोज खून बह रहा है। बीते दो दशक के दौरान सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की उपेक्षा हुई व निजी वाहनों को बढ़ावा दिया गया। रही-सही कसर बैंकों के आसान कर्ज ने पूरी कर दी और अब इंसान कुछ कदम पैदल चलने की बनिस्बत दुपहिया र्इंधनचालित वाहन लेने में संकोच नहीं करता। असल में सड़कों पर वाहन दौड़ा रहे लोग इस खतरे से अनजान हैं कि उनके बढ़ते तनाव के पीछे सड़क पर रफ्तार के मजे का उनका शौक भी जिम्मेवार है।
शहर हों या हाइवे, जो मार्ग बनते समय इतना चौड़ा दिखता है वही दो-तीन साल में गली बन जाता है। यह विडंबना है कि हमारे महानगर से लेकर कस्बे तक और सुपर हाइवे से लेकर गांव की पक्की हो गई पगडंडी तक, सड़क पर मकान बनाना व दुकान खोलना तथा वहीं अपने वाहन या घर का जरूरी सामान रखना लोग अपना अधिकार समझते हैं। सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि लुटियन दिल्ली में कहीं भी वाहनों की सड़क पर पार्किंग गैर-कानूनी है, लेकिन सबसे ज्यादा सड़क घेर कर वाहन खड़ा करने का काम पटियाला हाउस अदालत, हाइकोर्ट, नीति आयोग या साउथ ब्लाक के बाहर ही होता है। जाहिर है, जो सड़क वाहन चलने को बनाई गई उसके बड़े हिस्से में बाधा होगी तो यातायात प्रभावित होगा ही। दिल्ली में सड़क निर्माण व सार्वजनिक बसस्टाप की योजनाएं भी गैर-नियोजित हैं। फ्लाइओवर से नीचे उतरते ही बने बस स्टॉप जमकर जाम करते हैं। वहीं कई जगह तो निर्बाध परिवहन के लिए बने फ्लाइओवर पर ही बसें खड़ी रहती हैं। राजधानी में मैट्रो स्टेशन के बाहर बैटरी रिक्शा इन दिनों जाम के बड़े कारण बन रहे हैं। बगैर पंजीयन के, क्षमता से अधिक सवारी लादे ये रिक्शे गलत दिशा में चलने से कतई नहीं डरते और इससे मोटरवाहनों की गति थमती है।
यातायात जाम का बड़ा कारण सड़कों का त्रुटिपूर्ण डिजाइन भी होता है। इसके चलते थोड़ी-सी बारिश में वहां जल-भराव या फिर मोड़ पर अचानक यातायात धीमा होने से आए रोज उस पर गड्ढे बन जाते हैं। पूरे देश में सड़कों पर अवैध और ओवरलोड वाहनों पर तो जैसे अब कोई रोक है ही नहीं। पुराने स्कूटर को तीन पहिये लगा कर बच्चों को स्कूल पहुंचाने से लेकर मालवाहक बना लेने या फिर बमुश्किल एक टन माल ढोने की क्षमता वाले छोटे स्कूटर पर लोहे की बड़ी बॉडी कसवा कर अंधाधुंध माल भरने, तीन सवारी की क्षमता वाले टीएसआर में आठ सवारी व जीप में पच्चीस तक सवारी लादने, फिर सड़क पर अंधाधुंध चलने जैसी गैर-कानूनी हरकतें स्थानीय पुलिस के लिए ‘सोने की मुर्गी’ बन गई हैं। इसके अलावा मिलावटी र्इंधन, घटिया कल-पुर्जे भी वाहनों से निकलने वाले धुएं के जहर का कई गुना कर रहे हैं। वाहन सीएनजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा ही होगा।
पूरे देश में स्कूलों व सरकारी कार्यालयों के खुलने तथा बंद होने का समय लगभग समान है। आमतौर पर स्कूलों का समय सुबह है और अब लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, इसका परिणाम हर छोटे-बड़े शहर में सुबह से सड़कों पर जाम के रूप में दिखता है। ठीक यही हाल दफ्तरों के वक्त में होता है। सभी जानते हैं कि नए मापदंड वाले वाहन यदि चालीस या उससे अधिक की रफ्तार से चलते हैं तो उनसे बेहद कम प्रदूषण होता है। लेिकन यदि ये पहले गियर में रेंगते हैं तो इनसे सॉलिड पार्टिकल, सल्फर डाइआक्साइड व कार्बन मोनो आक्साइड बेहिसाब उत्सर्जित होता है। क्या स्कूलों के खुलने व बंद होने के समय में अंतर या बदलाव कर इस जाम के तनाव से मुक्ति नहीं पाई जा सकती?
इसी तरह कार्यालयों के भी समय में अंतर, उनके बंदी दिनों में परिवर्तन किया जा सकता है। कुछ कार्यालयों की बंदी का दिन शनिवार-रविवार की जगह अन्य दिन किया जा सकता है, जिसमें अस्पताल, बिजली, पानी के बिल जमा होने वाले काउंटर आदि हैं। यदि कार्यालयों में साप्ताहिक दो दिन की बंदी के दिन अलग-अलग किए जाएं तो हर दिन कम से कम तीस प्रतिशत कम भीड़ सड़क पर होगी। कुछ कार्यालयों का समय आठ या साढ़े आठ से करने व उनके बंद होने का समय भी साढ़े चार या पांच होने से सड़क पर एक साथ भीड़ होने से रोका जा सकेगा। यही नहीं, इससे वाहनों की ओवरलोडिंग भी कम होगी।
सबसे बड़ी बात, बड़े शहरों में जो कार्यालय जरूरी न हों, या राजधानियों में जिनका मंत्रालयों से कोई सीधा ताल्लुक न हो, उन्हें सौ-दो सौ किलोमीटर दूर के शहरों में भेजना भी एक कारगर कदम हो सकता है। इससे नए शहरों में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे व लोगों का दिल्ली की तरफ पलायन भी कम होगा। सबसे बड़ी बात, जितना छोटा शहर उतना ही काम के लिए जाने में परिवहन में समय कम, और इसका सीधा अर्थ है पर्यावरण संरक्षण, मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा। डिजिटल इंडिया के बढ़ते कदमों के साथ चलें तो कार्यालयों को मंत्रालय या मंत्री के करीब रहने की जरूरत भी नहीं है।

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