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बुधवार, 15 जनवरी 2014

जनसंदेश टाईम्‍स उ प्र दिनांक 15 जनवरी 2014

सच पर पर्दा डालते आयोग
पंकज चतुर्वेदी

एक अनाम लड़की के पल-पल की खबर रखने के पीछे ‘‘साहब’’ कौन है, इस पर जांच आयोग बन गया। उधर आदर्ष सोसायटी की जांच रपट को पहले महाराश्ट्र सरकार ने मानने से ही इंकार किया, फिर उसे आधा-अधूरा माना। लोग अब भूल चुके हैं कि अयोध्या में विवावास्पद ढ़ांचा गिराए जाने पर गठित लिब्राहन आयोग की अजीब रपट दी थी  - ‘‘आयोग सिफारिष करता है कि उस कांड में अटल बिहारी वाजपेयी सहित कई लोगों की पड़ताल होना चाहिए,’’ जबकि अदालत में आरोप पत्र दाखिल कर चुकी सीबीआई इससे इत्तिफाक नहीं रखती। सन 1992-93 में बम धमाकों के बाद मुंबई में भड़के मुस्लिम-विरोधी दंगों की जांच के लिए गठित श्रीकृष्ण आयोग की अंतिम रिपोर्ट आए अब कई साल बीत चुके हैं, लेकिन एक न्यायाधीश ने जिन लोगों पर उंगलियां उठाई, उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की हिम्मत राज्य सरकार नहीं जुटा पा रही हैं। सनद रहे कि जिस तरह के हथियार रखने के आरोप में फिल्म अभिनेता संजय दत्त को सजा हो चुकी है, ठीक वैसे ही आरोप शिवसेना सांसद मधुकर सरोपदार पर श्रीकृष्ण आयोग ने लगाए व सिद्ध किए हैं । दंगों को भड़काने में बाल ठाकरे की प्रमुख भूमिका होने की बात भी जांच आयोग की रिपोर्ट में थी, लेकिन सरकार मूक है।
वैसे भी यह कोई पहला मामला नहीं है, जब दंगों की जांच रिपोर्ट को सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है। सरकारी रिकार्ड गवाह है कि सन 1966 से 2002 तक हुए कोई 30 बड़े दंगों की जांच के लिए सरकार ने न्यायिक आयोग गठित किए, लेकिन उनमें से 28 की रिपोर्ट रद्दी की टोकरी के भेंट चढ़ गईं । याद करें 1961 में अलीगढ, जबलपुर, दमोह और नरसिंहगढ़ में, 1967 में रांची,हटिया, सुचेतपुर-गोरखपुर, अहमदनगर, शोलापुर, मालेगांव में; 1969 अहमदाबाद, 1970 भिवंडी, 1971 तेलीचेरी(केरल), 1984 के सिखविरोधी दंगे से ले कर 1999 में उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स की हत्या, नवंरर 201 में मालेगांव और 2002 के गुजरात दंगों सहित 30 नरसंहारों की हकीकत जानने के लिए सरकार ने हाईकोर्ट के जजों की अगुआई में जांच आयोग बनाए। इनमें से 28 की रिपोर्ट आ चुकी है, लेकिन वे गई कहां और उन पर कार्यवाही क्या हुई? इन सवालों पर कोई जवाब नहीं है।
ऐसा नहीं कि हकीकत पर परदा डालने का खेल केवल दंगों की जांच में ही हीेता है; याद करें ंकुछ साल पहले तहलका के कैमरे ने रक्षा खरीद में गोरखधंधे का जो खुलासा किया, उसका सत्य जानने के लिए सरकार ने एक जांच आयोग गठित कर दिया था । हालांकि आयोग किसी निर्णय पर पहुंचता, उससे पहले ही कई फैसले बगैर जांच के ही हो गए ( वैसे जांच आयोगों को फैसला सुनाने का हक नहीं होता है, वह केवल सिफारिषें कर सकता है ) - तहलका के तरूण तेजपाल पर तत्कालीन सरकार के प्रायोजित चैतरफा हमले हुए व उन्हें मानसिक व आर्थिक रूप से तोड़ दिया गया ; बंगारू लक्ष्मण को घर बैठा दिया गया ; रक्षा मंत्री के सरकारी निवास पर नगद नारायण प्राप्त करते हुए दिखीं जया जेतली  और उनके सखा जार्ज फर्नाडीज को तब के प्रधानमंत्री ने लोक सभा में ही क्लीन चिट दे दी । जांच आयोग कानूनी पैचिदगियों में उलझा था कि जांच आयोग के न्यायमूर्ति श्री वेंकटस्वामी खुद विवादों में उलझ गए। उनकी जगह नए न्यायविद को जांच में लगाया गया है । पता चला कि नए जांच कमीषन की टीम सेना के विमान से तफरीह करने  चली गई । सरकार  बदल  गई । इस पड़ताल का खर्च करोड़ेां में पहुंच गया है, नतीजों का अंदाजा सभी को है,लेकिन पता नहीं जांच का एकांकी कब तक मंचित होता रहेगा ।
भ्रश्टाचार हो या फिर दंगे या फिर लापरवाही व देष के साथ द्रोह के आरोप या ऐसा कुछ जिसमें सत्ता के षीर्श पर बैठे लोेेेगेंा की गरदन फंसती दिखती है, सच के खिलाफ ढाल के तौर पर एक अदद जांच आयोग का गठन कर दिया जाता है । विडंबना है यह है कि जहां जांच आयोग किसी गैरकानूनी कृत्य के कारणों के छिद्रान्वेषण में व्यस्त रहता है, ठीक उसी समय अन्य जांच एजंसी उसी के समानांतर अदालतों में अपनी जांच की रिपोर्ट पेष कर कतिपय अभियुक्तों पर कानूनी कार्यवाही करने लगती है । कई बार अदालती फैसले आ जाते हैं और न्यायमूर्तियों का काम अधूरा ही रह जाता है । आयोगों की सिफारिषों को नजरअंदाज करना तो जैसे दस्तूर ही बन गया है ।
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगों में हजारों निर्दोश सिख मारे गए थे और अरबों रूपए की संपत्ति को लूटा व नश्ट किया गया था । उसके अपराधिक मुकदमों के चलते एचकेएल भगत जैसे कद्दावर नेता के राजनैतिक जीवन पर ग्रहण लग गया और उसकी गुमनामी में उनका इंतकाल हो गया ।  सज्जन कुमार, जगदीष टायटलर आदि अपनी पुरानी रंगत में नहीं लौट पा रहे हैं । इससे जुड़े कई मामलों में सजा , बरी होने , ऊंची अदालत में अपील आदि की कवायद जारी है । परंतु लोग भूल गए कि एक रंगनाथ मिश्र आयोग भी हुआ करता था । इस आयोग के सहयोग के लिए चार समितियां भी थीं , जिनमें से एक जैन - बनर्जी समिति की वैधता पर तो हाई कोर्ट ने ही सवालिया निषान लगा दिया था । कपूर-मित्तल कमेटी ने 72 पुलिस वालों को दंगे में लिप्त पाते हुए उनके खिलाफ कार्यवाही की सिफारिष की थी । षेश दो समितियों ने क्या किया ? इसका कहीं कोई हिसाब-किताब नहीं मिलता है । हां, इन पर कोई एक करोड़ का सरकारी खर्च होने के बिल-वाउचर जरूर मिल जाएंगे ।  श्री रंगनाथ मिश्र बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीष बनें, उसके बाद राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुखिया नियुक्त किए गए । तदुपरांत कांग्रेस की अंगुली पकड़ कर राज्य सभा में आ गए । लेकिन उनके नाम से जुड़े जांच आयोग ने उस अमानवीय सामूहिक नरसंहार में किसे दोशी पाया ? यह जानने की मंषा किसी की भी नहीं रही,यहां तक कि श्री मिश्र की भी नहीं !
यह मामला यहीं नहीं रूकता है - केंद्र में गठित वाजपेई सरकार के सहयोगी अकाली दल की संतुश्टि के लिए न्यायाधीष श्री नानावटी की अगुवाई में एक और आयोग गठित कर दिया गया । 27 साल हो चुके हैं ,एक पीढ़ी बीत चुकी है और राजनीति के भंवर में फंसा सत्य न्याय के लिए छटपटा रहा है ।
देष में गणतंत्र की स्थापना के ठीक बाद ही राजनेताओं ने जांच आयोग का कवच इजाद कर लिया था । सन 1952 में जांच आयोग अधिनियम को सर्व सम्मति से लोकसभा में मंजूरी मिल गई थी ं  फिर सामने आया हरिदास मूंदड़ा पर 160 करोड़ के घपले का आरोप । इसकी जांच के लिए 1957 में मुहम्मद करीम छागला की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय जांच आयोग गठित किया गया । इस आयोग की रपट की आधार पर मूंदड़ा के खिलाफ पौने दो सौ से अधिक मुकदमें चले और उस समय के वित्त मंत्री कृश्णामाचारी को पद से हटाया गया ।
नैतिकता, सेवा और त्याग जैसे षब्दों का भारतीय राजनीति से धीरे-धीरे ह्मास हाने लगा । पहले जहां राजनीति के अपराधीकरण को ले कर चिंता जातई जाती थी, अब राजनीति के अपराधीकरण पर भी किसी को लज्जा नहीं आती है । ऐसे में जांच आयोग जनता की आंख पर भ्रम का जाल फैलाने में बेहद मदद करते हैं । अब इंदिरा गांधी की हत्या को ही लें, जिसमें एक अभियुक्त को फांसी हो गई । लेकिन प्रधानमंत्री की हत्या के रहस्यमय शडयंत्र को उजागर करने के लिए गठित आयोग की रपट को रहस्यमय तरीके से दबा दी गई । जांच आयोग ने कांग्रेस नेता आर.के.धवन, एक पूर्व प्रधानमंत्री, सी.आई.ए. पर षक की सुई घुमाई थी । कुछ दिन हंगामा हुआ , और तथाकथित दागी लोग फिर षान से अपनी भूमिकाओं में लौट आए । राजीव गांधी की हत्या के अपराधिक मामले मेें अदालती न्याय आ चुका है । वर्मा आयोग अपनी रिर्पोट दे चुका है, लेकिन जैन आयोग की कार्यवाही जारी है , कब तक जारी रहेगी ? पता नहीं !
स्वतंत्र भारत के सबसे घ्रणित अपराधों में से एक अयोध्या के विवादास्पद ढ़ांचे को गिराए जाने की जांच हेतु 1993 में गठित किया गया लिब्राहन कमीषन तो सियासती रंगमंच बन गया है । एक तरफ सीबीआई अदालत में आरोप पत्र  दाखिल कर चुकी है, ऐसे में लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट (यदि कभी आती है तो) का रद्दी की टोकरी में जाना तय है, फिर भी सरकारी धन को आयोग पर फंूकना कहां तक लाजिमी है ? आम सभाओं में लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, शिव सैनिकों के बयान देखें-पढ़े तो लगता है कि इतना सबकुछ मालूम होने के बाबजूद न्याय का नाटक क्यों खेला जा रहा है ?
तमिलनाडु में जयललिता और एम करूणानिधि की  तनानती में आए रोज आयोग बनते रहते हैं । केरल में हाथी की मौत से ले कर आला अफसर के कटखने कुत्ते तक पर जांच आयोग के गठन के रिकार्ड हैं । आंध््रा प्रदेष में कभी पत्रकार पिटे तो कभी वकील और कभी सेना के हाथों पुलिस वाले भी और सभी के लिए आयोग बना दिया गया ।
उत्तरप्रदेष और बिहार में तो अब ऐसे आयोगों को जनता भी गंभीरता से नहीं लेती है  । महाराश्ट्र में ऐसे कई उदाहरण है कि जांच आयोग ने जिसे दोशी पाया, उसे सियासतदाओं ने सम्मानित किया ।  1988 में मुंबई के जेजे अस्पताल में जहरीली ग्लीसरीन के कारण 14 मरीजों की मौत हो गई थी । इसकी जांच के लिए उच्च न्यायालन के जज बी लेंटिन की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया गया । इस आयोग ने सरकारी दवाओं की खरीद में घूसखोरी का खुलासा करते हुए कई मंत्रियों व अफसरों को इसमें लिप्त पाया था । इस आयोग की रपट में दागदार एक मंत्री बलराम हर्णे पर मुकदमा तो चला नहीं, हां, समाज सेवा के कोटे से उनका मनोनयन राज्यपाल द्वारा विधान परिशद में कर दिया गया ।  बिहार में तो ऐसे संदिग्ध लोगों का महिमामंडन करने पर किसी को आपत्ति नहीं होती है ।
जांच आयोगों की इस तरह की दुर्गति आम जनता के पैसे का दुरूपयोग तो है ही, लोकतंत्र के सषक्त स्तंभ कहे जाने वाली न्यायपालिका की तोहीन भी है । इसे जनता केे मन में देष की न्याय व्यवस्था के प्रति अविष्वास ही उपजता है । क्या बदलते समय में न्यायीक आयोगों की प्रासंगिकता आंकने के लिए किसी जांच आयोग का गठन करना होगा ?

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