समृध्द आदिवासी-चिकित्सा पध्दति पर आधुनिकता की वक्र दृृष्टि
पंकज चतुर्वेदी
पिछले दिनों कोंडागांव में एक आरगेनिक जड़बूटियों उगाने वाले डा. राजाराम त्रिपाठी ने अजीब सा सम्मेलन बुलाया- उन्होंने बस्तर के दूरस्थ अंचलों में काम करने वाले बैद्य, गुनिया, ओझाओं को एकत्र किया और उनसे उन जड़ीबुटियों के बारे में जाना जिनसे वे सदियों से स्थानीय आदिवासियों का इलाज करते रहे हैं। स्थानीय अखबारों में यह प्रयोग एक समाचार के तौर पर जरूर छपा, लेकिन पारंपरिक ाान को सहेजने के इस प्रयास पर सरकारी महकमे व षहरी-समाज बेहद उदास सा ही रहा। कैसी विडंबना है कि जब-तब कहीं नक्सली हमले होते हैं तो सरकार, समाज और मीडिया को आदिवासियों की याद आ जाती है। नीति निर्धारकों को लगने लगता है कि ‘‘पिछड़े’’(?) जनजातीय समाज को विकास की धारा में ले आया जाये, हकीकत में वे इस विशय में लगभग दिशाहीन ही हैं । देश की कुल आबादी के इन 7.16 प्रतिशत बाषिंदों के जीवन जीने का अपना विशिष्ठ अंदाज है, जिसे बारीकी से देखें तो पाएंगें कि इन ‘‘अंगूठा छाप’’ लोगों के ज्ञान के सामने हमारी ‘‘भारी भरकम’’ डिगरियों का ज्ञान, पानी भरता है । ऐसा ही अदभुत है उनका चिकित्सा ज्ञान । ‘‘वनपुत्र’’ अपने चारों ओर फैली हरेक वनस्पति के गुण-दोष भलीभांति जानते हैं, और अपने समाज की अस्मिता पर भारी हरेक शारीरिक विकार का इलाज प्रकृति से ही करने में माहिर हैं। विडंबना है कि बीते दो दषकों के दौरान प्रगति के नाम पर जो कुछ हुआ, उसने ना केवल आदिवासियों के पारंपिरक झाान पर डाका डाला, बल्कि उनके चिकित्सीय-संसाधन पर भी बलात कब्जा कर लिया। इसी कारण उनका चिकित्सा ज्ञान भी अब ‘‘सभ्य’’ समाज द्वारा बाजार में बिकने वाली चीज बनता जा रहा है ।
छत्तीसगढ़ अंचल के आदिवासी इलाके में बस्तर-अबुझमाड़ के बाशिंदों के जीवन के गूढ़ रहस्य आज भी अनबूझ पहेली हैं । अभी कुछ साल पहले तक बस्तर के 95 वर्षीय चमरू राम कैसी भी टूटी हड्डी को 10 दिन में जोड़ दिया करते थे । पूरी तरह अनपढ़ इस आदिवासी के पास हड्डियां जुड़वाने के लिए सुदूर महानगरों के सम्पन्न लोगों का तांता-सा लगा रहता था । चमरू राम कई अन्य जड़ी-बूटियों के भी जानकार थे और मरीज की नब्ज का हाल जानने के लिए पपीते के पेड़ के तने से बना स्टेथिस्कोप प्रयोग में लाते थे। उनके बाद वह पारंपरिक ज्ञान अगली पीढी तक जा नहीं पाया। डोंगरगांव के कुम्हारपारा व अर्जुनी के गड़रिया दंपत्ति बबासीर का शर्तिया इलाज करते हैं । ये लोग अपनी दवा बिही (अमरूद) की छाल से तैयार करते हैं, लेकिन उसका फार्मूला किसी को नहीं बताते हैं । इसी प्रकार बघेरा के दाऊ रामचंद्र देशमुख की प्रसिध्दि का कारण इनकी लकवा की अचूक दवाई है । यहां जानना जरूरी है कि ये सभी ‘‘डाॅक्टर’’ अपने मरीजों से किसी भी तरह से कोई फीस नहीं लेते हैं । बस्तर के जंगलों में ‘‘संधानपर्णी’’ नामक एक ऐसी बूटी पाई गई है, जिससे कैसा भी ताजा घाव 24 घंटे मेें भर जाता है । ग्रामीयों का दावा है कि यही वह बूटी है, जिसके लिए हनुमान पर्वत उठा कर ले गए थे और लक्ष्मण स्वस्थ हुए थे । अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली के रिटयर्ड डाक्टर जगन्नाथ शर्मा ने इस जड़ी-बूटी की पुष्टि भी की ।
इन आदिवासियों द्वारा सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रयुक्त औषधि वनस्पतियों में से अधिकांश का उपयोग अब आयुर्वेदिक व अंग्रेजी दवाईयों के निर्माण में होने लगा है । ‘‘मुस्कानी भाजी’’ याणी मंडूकपर्णी का उपयोग मन की प्रसन्नता हेतु बतौर दवा के होता है । ‘‘पथरिया भाजी’’ के नाम से जंगलों में मिलने वाली पुनर्नवा झाड़ी को पथरी का इलाज माना जाता है । हठजोड (अस्थि संहारक) को हड्डी जाड़ने में, धन बेहेर (अमलतास) को पाचन, अटकपारी (पाठल) को सिर दर्द, जीयापोता को पुत्र प्राप्ति, ऐठी-मुरी (मरोंड़ फली) को पेट दर्द, बेमुची (बागची) को त्वचा रोगों के इलाज में प्रयोग करना आदिवासी भलीभांति जानते हैं । अशोक के वृक्ष से बनी दवाओं को स्त्री-रोग में ठीक माना जाता है तो सांप-चढ़ी से सर्प विष उतार दिया जाता है । आदिवासी लोग परिवार नियोजन के लिए गुड़हल का प्रयोग करते हैं तो सहजन को रक्तचाप में । आज ये सभी बूटियां आधुनिक चिकित्सा तंत्र का अहम हिस्सा बन गई हैं । तेज बुखार आने पर कपुरनि (दुध मंगरी) की जड़ गले में बांध दी जाती है तो डायरिया, मलेरिया का इलाज क्रमशः गोरख मुंडी व पारही कन्दा नामक जंगली झाडि़यों में छिपा है । मुई-कीसम का प्रयोग बच्चों के फोड़े-फुंसी में होता है ।
बस्तर अंचल में पाए जाने वाले मोहलेन की विशेषता है कि उससे निर्मित ‘‘पोटम’’ (प्याले) में दस साल तक चावल खराब नहीं होता है, ना ही उसमें कीड़े घुन लगते हैं । जनजातियों में आदमी के अस्वस्थ होने पर इलाज करने के दो तरीके होते हैं । पहला है- बईघ यानी वैद्य की जड़ी-बूटियां और दूसरा है-मती या ओझा या बैगा जो भूत-प्रेत झाड़ता है । बईघ अपनी जड़ी-बूटियां खुद जंगलों से गोपनीय ढंग से चुनता है । बागर, सरगूजा जिले के घने वन, अमरकंटक, धमतरी, गरियाबंद, आदि के अरण्यों में अदभुत जड़ी-बूटियों का अकूत भंडार है । महानदी, शिवनाथ, खारून नदियों के किनारे-किनारे घृतकुमारी, शंखपुष्पी, ब्राहपी, हरण, पर्णी, गोरख मुंडी आदि 300 से अधिक जड़ी बूटियां नैसर्गिक वातावरण में स्वतः उगती रहती हैं ।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान इन आदिवासियों को बाहरी दुनिया की तथाकथित आधुनिकता से अवगत कराने, जनजातियों की जीवन-शैली पर शोध करने और ना जाने किन-किन बहानों से बाहरी लोग उनके बीच में पहुंचे । इन समाज सेवकों के अति उतसाह व अतिरंजित प्रशासन या विकास ने उनके परंपरागत सामाजिक और सांस्कृतिक आवरण को छेड़ने की भी कोशिश की । गौरतलब है कि इन बाहरी पढ़े-लिखे लोगों ने आदिवासियों को भषणों के अलावा कुछ नहीं दिया । बदले में उनके निः स्वार्थ गुरों (जैसे जड़ी बूटियों के प्रयोग) का व्यावसायिक इस्तेमाल शुरू कर में ‘‘चिलाटी’’ नामक पेड़ मिलता है । इसकी छाल कतिपय बाहरी लोग आदिवासियों से मात्र दो रूपए किलों में खरीदते है । बाद में इसके ट्रक भर के आंध्रप्रदेश भेज दिये जाते हैं और इसका कई सौ गुना अधिक दाम वसूला जाता है । सनद रहे चिलाटी की छाल का उपयोग नशीली दवाओं के निर्माण में होता है । लेकिन यह त्रासदी है कि छाल निकालने के बाद चिलाटी का पेड़ सूख रहे हैं, क्योंकि उन फर ड्रग-माफिया की नजर है । ये माफिया भोले-भोले आदिवासियों को इस घृणित कार्य में मोहरा बागर हुए हैं । यही नहीं अब इन जंगलों में जड़ी-बूटियां उखाड़ने का काम चोरी छिपे युुध्द स्तर पर होने लगा है । इससे यहां के हजारों वर्ष पुराने जंगलों का प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा रहो है । साथ ही वनवासियों के अपने दैनिक उपयोग के लिए इन जड़ी बूटियों का अभाव होता जा रहा है ।
जिस विशिष्ठ संस्कृति और जीवन शैली के चलते जनजातिय समाज के लोग हजारों वषों से सरलता व शांति से जीवन पीते आ रहे हैं, उसे समकालीन समाज की तमाम बुराईयां ग्रस रही हैं । आदिवासियों के विकास के नाम पर उन पर अपने विचार या निर्णय थोपना, देश की सामाजिक संरचना के लिए खतरे की घंटी ही है । जनजातिय जड़ी बूटियों को जानने की बाहरी समाज की मंशा निश्चित ही स्वार्थपूर्ण है, और इससे जंगल के स्वशासन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ेगा । अतीत गवाह है कि जब-जब वनपुत्रों पर बजारू संस्कृति थेापने का प्रयास किया गया, तब-तब वंश हिंसात्मक प्रतिरोध और अलगाववादी स्वर मुखर हुए है । आदिवासियों की चिकित्सा पध्दति, सभ्य (?) समाज की कसैली नजरों से बची प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का दम तोड़ता अवशेष है । इसके संरक्षण के लिए मात्र यही काफी होगा कि समाज और सरकार उनमें अपनी रूचि दिखाना छोड़ दे ।
पंकज चतुर्वेदी
पिछले दिनों कोंडागांव में एक आरगेनिक जड़बूटियों उगाने वाले डा. राजाराम त्रिपाठी ने अजीब सा सम्मेलन बुलाया- उन्होंने बस्तर के दूरस्थ अंचलों में काम करने वाले बैद्य, गुनिया, ओझाओं को एकत्र किया और उनसे उन जड़ीबुटियों के बारे में जाना जिनसे वे सदियों से स्थानीय आदिवासियों का इलाज करते रहे हैं। स्थानीय अखबारों में यह प्रयोग एक समाचार के तौर पर जरूर छपा, लेकिन पारंपरिक ाान को सहेजने के इस प्रयास पर सरकारी महकमे व षहरी-समाज बेहद उदास सा ही रहा। कैसी विडंबना है कि जब-तब कहीं नक्सली हमले होते हैं तो सरकार, समाज और मीडिया को आदिवासियों की याद आ जाती है। नीति निर्धारकों को लगने लगता है कि ‘‘पिछड़े’’(?) जनजातीय समाज को विकास की धारा में ले आया जाये, हकीकत में वे इस विशय में लगभग दिशाहीन ही हैं । देश की कुल आबादी के इन 7.16 प्रतिशत बाषिंदों के जीवन जीने का अपना विशिष्ठ अंदाज है, जिसे बारीकी से देखें तो पाएंगें कि इन ‘‘अंगूठा छाप’’ लोगों के ज्ञान के सामने हमारी ‘‘भारी भरकम’’ डिगरियों का ज्ञान, पानी भरता है । ऐसा ही अदभुत है उनका चिकित्सा ज्ञान । ‘‘वनपुत्र’’ अपने चारों ओर फैली हरेक वनस्पति के गुण-दोष भलीभांति जानते हैं, और अपने समाज की अस्मिता पर भारी हरेक शारीरिक विकार का इलाज प्रकृति से ही करने में माहिर हैं। विडंबना है कि बीते दो दषकों के दौरान प्रगति के नाम पर जो कुछ हुआ, उसने ना केवल आदिवासियों के पारंपिरक झाान पर डाका डाला, बल्कि उनके चिकित्सीय-संसाधन पर भी बलात कब्जा कर लिया। इसी कारण उनका चिकित्सा ज्ञान भी अब ‘‘सभ्य’’ समाज द्वारा बाजार में बिकने वाली चीज बनता जा रहा है ।
छत्तीसगढ़ अंचल के आदिवासी इलाके में बस्तर-अबुझमाड़ के बाशिंदों के जीवन के गूढ़ रहस्य आज भी अनबूझ पहेली हैं । अभी कुछ साल पहले तक बस्तर के 95 वर्षीय चमरू राम कैसी भी टूटी हड्डी को 10 दिन में जोड़ दिया करते थे । पूरी तरह अनपढ़ इस आदिवासी के पास हड्डियां जुड़वाने के लिए सुदूर महानगरों के सम्पन्न लोगों का तांता-सा लगा रहता था । चमरू राम कई अन्य जड़ी-बूटियों के भी जानकार थे और मरीज की नब्ज का हाल जानने के लिए पपीते के पेड़ के तने से बना स्टेथिस्कोप प्रयोग में लाते थे। उनके बाद वह पारंपरिक ज्ञान अगली पीढी तक जा नहीं पाया। डोंगरगांव के कुम्हारपारा व अर्जुनी के गड़रिया दंपत्ति बबासीर का शर्तिया इलाज करते हैं । ये लोग अपनी दवा बिही (अमरूद) की छाल से तैयार करते हैं, लेकिन उसका फार्मूला किसी को नहीं बताते हैं । इसी प्रकार बघेरा के दाऊ रामचंद्र देशमुख की प्रसिध्दि का कारण इनकी लकवा की अचूक दवाई है । यहां जानना जरूरी है कि ये सभी ‘‘डाॅक्टर’’ अपने मरीजों से किसी भी तरह से कोई फीस नहीं लेते हैं । बस्तर के जंगलों में ‘‘संधानपर्णी’’ नामक एक ऐसी बूटी पाई गई है, जिससे कैसा भी ताजा घाव 24 घंटे मेें भर जाता है । ग्रामीयों का दावा है कि यही वह बूटी है, जिसके लिए हनुमान पर्वत उठा कर ले गए थे और लक्ष्मण स्वस्थ हुए थे । अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली के रिटयर्ड डाक्टर जगन्नाथ शर्मा ने इस जड़ी-बूटी की पुष्टि भी की ।
इन आदिवासियों द्वारा सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रयुक्त औषधि वनस्पतियों में से अधिकांश का उपयोग अब आयुर्वेदिक व अंग्रेजी दवाईयों के निर्माण में होने लगा है । ‘‘मुस्कानी भाजी’’ याणी मंडूकपर्णी का उपयोग मन की प्रसन्नता हेतु बतौर दवा के होता है । ‘‘पथरिया भाजी’’ के नाम से जंगलों में मिलने वाली पुनर्नवा झाड़ी को पथरी का इलाज माना जाता है । हठजोड (अस्थि संहारक) को हड्डी जाड़ने में, धन बेहेर (अमलतास) को पाचन, अटकपारी (पाठल) को सिर दर्द, जीयापोता को पुत्र प्राप्ति, ऐठी-मुरी (मरोंड़ फली) को पेट दर्द, बेमुची (बागची) को त्वचा रोगों के इलाज में प्रयोग करना आदिवासी भलीभांति जानते हैं । अशोक के वृक्ष से बनी दवाओं को स्त्री-रोग में ठीक माना जाता है तो सांप-चढ़ी से सर्प विष उतार दिया जाता है । आदिवासी लोग परिवार नियोजन के लिए गुड़हल का प्रयोग करते हैं तो सहजन को रक्तचाप में । आज ये सभी बूटियां आधुनिक चिकित्सा तंत्र का अहम हिस्सा बन गई हैं । तेज बुखार आने पर कपुरनि (दुध मंगरी) की जड़ गले में बांध दी जाती है तो डायरिया, मलेरिया का इलाज क्रमशः गोरख मुंडी व पारही कन्दा नामक जंगली झाडि़यों में छिपा है । मुई-कीसम का प्रयोग बच्चों के फोड़े-फुंसी में होता है ।
बस्तर अंचल में पाए जाने वाले मोहलेन की विशेषता है कि उससे निर्मित ‘‘पोटम’’ (प्याले) में दस साल तक चावल खराब नहीं होता है, ना ही उसमें कीड़े घुन लगते हैं । जनजातियों में आदमी के अस्वस्थ होने पर इलाज करने के दो तरीके होते हैं । पहला है- बईघ यानी वैद्य की जड़ी-बूटियां और दूसरा है-मती या ओझा या बैगा जो भूत-प्रेत झाड़ता है । बईघ अपनी जड़ी-बूटियां खुद जंगलों से गोपनीय ढंग से चुनता है । बागर, सरगूजा जिले के घने वन, अमरकंटक, धमतरी, गरियाबंद, आदि के अरण्यों में अदभुत जड़ी-बूटियों का अकूत भंडार है । महानदी, शिवनाथ, खारून नदियों के किनारे-किनारे घृतकुमारी, शंखपुष्पी, ब्राहपी, हरण, पर्णी, गोरख मुंडी आदि 300 से अधिक जड़ी बूटियां नैसर्गिक वातावरण में स्वतः उगती रहती हैं ।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान इन आदिवासियों को बाहरी दुनिया की तथाकथित आधुनिकता से अवगत कराने, जनजातियों की जीवन-शैली पर शोध करने और ना जाने किन-किन बहानों से बाहरी लोग उनके बीच में पहुंचे । इन समाज सेवकों के अति उतसाह व अतिरंजित प्रशासन या विकास ने उनके परंपरागत सामाजिक और सांस्कृतिक आवरण को छेड़ने की भी कोशिश की । गौरतलब है कि इन बाहरी पढ़े-लिखे लोगों ने आदिवासियों को भषणों के अलावा कुछ नहीं दिया । बदले में उनके निः स्वार्थ गुरों (जैसे जड़ी बूटियों के प्रयोग) का व्यावसायिक इस्तेमाल शुरू कर में ‘‘चिलाटी’’ नामक पेड़ मिलता है । इसकी छाल कतिपय बाहरी लोग आदिवासियों से मात्र दो रूपए किलों में खरीदते है । बाद में इसके ट्रक भर के आंध्रप्रदेश भेज दिये जाते हैं और इसका कई सौ गुना अधिक दाम वसूला जाता है । सनद रहे चिलाटी की छाल का उपयोग नशीली दवाओं के निर्माण में होता है । लेकिन यह त्रासदी है कि छाल निकालने के बाद चिलाटी का पेड़ सूख रहे हैं, क्योंकि उन फर ड्रग-माफिया की नजर है । ये माफिया भोले-भोले आदिवासियों को इस घृणित कार्य में मोहरा बागर हुए हैं । यही नहीं अब इन जंगलों में जड़ी-बूटियां उखाड़ने का काम चोरी छिपे युुध्द स्तर पर होने लगा है । इससे यहां के हजारों वर्ष पुराने जंगलों का प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा रहो है । साथ ही वनवासियों के अपने दैनिक उपयोग के लिए इन जड़ी बूटियों का अभाव होता जा रहा है ।
जिस विशिष्ठ संस्कृति और जीवन शैली के चलते जनजातिय समाज के लोग हजारों वषों से सरलता व शांति से जीवन पीते आ रहे हैं, उसे समकालीन समाज की तमाम बुराईयां ग्रस रही हैं । आदिवासियों के विकास के नाम पर उन पर अपने विचार या निर्णय थोपना, देश की सामाजिक संरचना के लिए खतरे की घंटी ही है । जनजातिय जड़ी बूटियों को जानने की बाहरी समाज की मंशा निश्चित ही स्वार्थपूर्ण है, और इससे जंगल के स्वशासन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ेगा । अतीत गवाह है कि जब-जब वनपुत्रों पर बजारू संस्कृति थेापने का प्रयास किया गया, तब-तब वंश हिंसात्मक प्रतिरोध और अलगाववादी स्वर मुखर हुए है । आदिवासियों की चिकित्सा पध्दति, सभ्य (?) समाज की कसैली नजरों से बची प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का दम तोड़ता अवशेष है । इसके संरक्षण के लिए मात्र यही काफी होगा कि समाज और सरकार उनमें अपनी रूचि दिखाना छोड़ दे ।
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