आने वाली सदी भी किताबों की ही है!
पंकज चतुर्वेदी
दिन तो छुट्टी का था, लेकिन दिल्ली में आईटीओ से मथुरा रोड़ जाने वाले रास्ते पर यातायात पुलिस वाले पसीना-पसीना हो रहे थे, एकबारगी हर साल नवंबर में लगने वाले ट्रैड फेयर की यादें ताजा हो गईं। ज्ञान और सूचना के कई विकल्प आज मौजूद हैं, पुस्तकें मुद्रित ेक अलावा ईबुक्स, सीडी, व कई अन्य रूप में मौजूद हैं, लेकिन प्रगति मैदान के भीतर जमा ठसा-ठस भीड़ का आकर्शण तो अभी भी कागज पर छपी पुस्तकें ही हैं । हर हॅाल में तिल रखने की जगह ना मिलना कहावत सजीव होती दिखी। भीड़ में कई सौ लोग ऐसे थे जो पांच सौ किलोमीटर दूर से आए थे और दो-चार दोस्त किराये की गाड़ी ले कर आए थे। बानगी है कि छपे हुए हरफ का करिष्मा ना केवल बरकरार है, बल्कि देष के आर्थि-षैक्षिक-सामजिक विकास के साथ दिन दुगन रात चैगुना बढ़ रहा है। एक आंकड़ा देना लाजिमी है- भारत में किताबों के व्यापार की सालाना बढ़ौतरी 22 से 30 फीसदी है। यह भी जान लें कि यह पूरा साम्राज्य केवल सरकारी सप्लाई की रीढ़ पर नहीं, दस-बीस रूपए की किताबें खरीद कर अपने दोस्तों के साथ साझा करने वालों की बदौलत है।
विकासमान समाज पर आधुनिकता और हाई-टेक का गहरा असर हो रहा है । इनसे जहां भौतिक जीवन आसान हुआ है, वहीं दूसरी ओर हमारे जीवन में परनिर्भरता का भाव बढ़ा है । इससे हमारे जीवन का मौलिक सौंदर्य प्रभावित हो रहा है । रचनात्मकता पिछड़ रही है और असहिश्णुता उपज रही है । ऐसे में पुस्तकें आर्थिक प्रगति और सांस्कृतिक मूल्यों के बीच संतुलन बनाए रखने में अदभुत और निर्णायक भूमिका निभाती है । सूचनाएं और संचार बदलते हुए विष्व के सर्वाधिक षक्तिषाली अस्त्र-षस्त्र बनते जा रहे हैं । पिछले दो दषकों में सूचना तंत्र अत्यधिक सषक्त हुआ है, उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं । लेकिन पुस्तक का महत्व और रोमांच इस विस्तार के बावजूद अक्षुण्ण है । यही नहीं कई स्थानों पर तो पुस्तक व्यवसाय में अत्यधिक प्रगति हुई है । यूरोप और अमेरिका में लेाग मानने लगे हैं कि पुस्तकें उनकी संस्कृति की पोशक हैं, तभी वहां लेखकों को बड़े-बड़े सम्मान दिए जा रहे हैं ।
बीते दो दषकेां से, जबसे सूचना प्रौद्योगिकी का प्रादुर्भाव हुआ है , मुद्रण तकनीक से से जुड़ी पूरी दुनिया एक ही भय में जीती रही है कि कहीं कंप्यूटर, टीवी सीडी की दुनिया छपे हुए काले अक्षरों को अपनी बहुरंगी चकाचैंध में उदरस्थ ना कर ले। जैसे-जैसे चिंताएं बढ़ीं, पुस्तकों का बाजार भी बढ़ता गया। उसे बढ़ना ही था- आखिर साक्षरता दर बढ़ रही है, ज्ञान पर आधारित जीवकोपार्जन करने वालो की संख्या बढ़ रही है। जो प्रकाषक बदलते समय में पाठक के बदलते मूड को भांप गया , वह तो चल निकला, बांकी के पाठकों की घटती संख्या का स्यापा करते रहे।
दिल्ली में ही अब नेषनल बुक ट्रस्ट का विष्व पुस्तक मेला सालाना हो गया तो फेडरेषन आफ इंडियन पब्लिषर्स यानी एफआईपी तो कई सालों से अगस्त में पुस्तक मेला लगा ही रहा है। कोलकाता और पटना के पुस्तक मेले तो पुस्तक प्रेमियों के ‘वेटिकन’ के तौर पर स्थापित हो चुके हैं। भारत में पुस्तक मेलों आयोजन अब केवल धर्माथ या समाजसेवी काम नहीं रह गया है, कई ऐसी संस्थाएं भी मैदान में हैं जो हर साल लखनऊ, इंदौर, गुवाहाटी में निजी तौर पर पुस्तक मेलों का आयोजन करती हैं। इसके अलावा हर साल कम से कम 20 पुस्तक मेले तो नेषनल बुक ट्रस्ट लगाता ही है। छोटे गाव-कस्बों तक पुस्तकें पहुंचाने में नेषनल बुक ट्रस्ट की सचल प्रदर्षिनियों की बड़ी भूमिका है। साल के बारहों महीने-तीसों दिन संस्थान की कम से कम आठ गाडि़या किताबें ले कर पाठकों के दरवाजे तक पहुंचती रहती हैं। इसके अलावा हर छोटे-बड़े कस्बों में स्कूलों में प्रदर्षिनयों अब आम बात है। कहने के मायने यह हैं कि किताब भले ही एक उपभोक्ता वस्तु के तौर पर नहीं, लेकिन समाज के लिए एक अनिवार्य तत्व के तौर पर दिनो दिन स्थापित होती जा रही है।
संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन के बाद अंग्रेजी पुस्तकों के प्रकाषन में भारत का दुनिया में तीसरा स्थान है। भारत दुनिया के सबसे विषाल पुस्तक बाजारों में से एक हैं और इसी कारण हाल के वर्शों में विष्व के कई बड़े प्रकाषकों ने भारत की ओर अपना रुख किया है । विष्व पुस्तक बाजार में भारत के विकासमान महत्व को रेखांकित करने के उदाहरणस्वरूप ये तथ्य विचारणीय हैं-फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला, 2006 में भारत को दूसरी बार अतिथि देष सम्मान, सन 2009 के लंदन पुस्तक मेला का ‘मार्केट फोकस’ भारत होना, मास्को अंतरराश्ट्रीय पुस्तक मेला 2009 में भारत को अतिथि देष का दर्जा आदि। भारत में भी महंगाई, अवमूल्यन और प्रतिकूल सांस्कृतिक, सामाजिक-बौद्धिक परिस्थितियों के बावजूद पुस्तक प्रकाषन एक क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है । छपाई की गुणवत्ता में परिवर्तन के साथ-साथ विशय विविधता यहां की विषेशता है । समसामयिक भारतीय प्रकाषन एक रोमांचक और भाशाई दृश्टि से विविधतापूर्ण कार्य है। विष्व में संभवतः भारत ही एक मात्र ऐसा देष हैं जहां 37 से अधिक भाशाओं में पुस्तकें प्रकाषित की जाती हैं। संयुक्त राज्य अमरीका और ब्रिटेन के बाद अंग्रेजी पुस्तकों के प्रकाषन में भारत का तीसरा स्थान है । पुस्तकों की महत्ता का प्रमाण यह आंकड़ा है कि हमारे देष में हर साल लगभग 85 हजार पुस्तकें छप रही हैं, इनमें 25 प्रतिषत हिंदी, 20 प्रतिषत अंग्रेजी और षेश 55 प्रतिषत अन्य भारतीय भाशाओं में हैं। लगभग 16 हजार प्रकाषक सक्रिय रूप से इस कार्य में लगे हैं। प्रकाषक के साथ, टाईप सेटर , संपादक , प्रूफ रीडर, बाईंडिग, कटिंग, विपणन जैसे कई अन्य कार्य भी जुडे़ हैं। जाहिर है कि यह समाज के बड़े वर्ग के रोजगार का भी साधन है। विष्व बाजार में भारतीय पुस्तकों का बेहद अहम स्थान है। एक तो हमारी पुस्तकों की गुणवत्ता बेहतरीन है, दूसरा इसकी कीमतें कम हैं। भारतीय पुस्तकें विष्व के 130 से अधिक देषों को निर्यात की जाती हैं।
नई दिल्ली विष्व पुस्तक मेला कई मायनों में विष्व का अनूठा अवसर होता है - यहां एक साथ इतनी अधिक भाशाओं में, इतने अधिक विशयों पर पुस्तकें देखने को तो मिलती ही हैं, यहां आने वाली लाखेंा-लाख लोगों की भीड़ देष की विविधता और एकता की भी साक्षी होती है । इन सभी बातों को करीब से जानने के लिए वसंत के मोहक मौसम में विष्व पुस्तक मेले का आयोजन दिल्लीवासियों के लिए एक आनंदोत्सव की तरह है । यहां कई लेखक, खिलाड़ी, मषहरू सिनेमा कलाकार, राजनेता, विदेषी राजनीयिक नियमित आते हैं, किताबों और लोगों के साथ समय बिताते हैं।
बिना पुस्तक का समाज बिना हृृदय के षरीर की तरह है । विष्व पुस्तक मेला ज्ञान का एक ऐसा भंडार होता है जहां दिमाग की बंद खिड़कियां खुल जाती हैं । कितने सारे विचार, कितनी सारी भाषाओं में, कितने स्वरूपों में , यही विविधता हमारे देश की विशेषता भी हैं । ऐसी पुस्तकों के सहारे हम हर दिषा में, हर क्षेत्र में, हर समय उड़ान भर सकते हैं । पुस्तकें षांति की दूत होती हैं । ये न केवल व्यक्ति, समाज और राश्ट्र के रूप में हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम बनती हैं , बल्कि हमें एहसास कराती हैं कि पूरी मानवता एक हैं ।
हमारे देष में प्रकाषन का इतिहास 300 साल पुराना हो गया है। इसके बावजूद असंठित, अनियोजित और अल्पकालीक प्रकाषन आज भी इस व्यवसाय पर हावी है। इसकी छबि पुस्तक मेलों में देखने को भी मिलती है। भारत की 64.8 फीसदी आबादी साक्षर है, यानी कोई 84 करोड़ लोग लिख-पढ़ सकते हैं। यह बात सही है कि सभी साक्षर लोगो का रूझान पुस्तकें पढ़ने में नहीं होता है लेकिन व्यवसाय की दृश्टि से यह एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग है। जो मनोरंजन, ज्ञानवर्धन, समय काटने, सूचना लेने जैसे कार्यों में पुस्तकों पर निर्भर होता है। जरूरत इस बात की है कि समाज के प्रत्येक वर्ग की आवष्यकताओं को समझा जाए और उसके अनुरूप पुस्तकें तैयार की जाएं और उनकी उपलब्धता हो। हमारी पठनीयता का स्तर विष्व स्तरीय हो, इसके लिए विदषी पुस्तकों की कतई जरूरत नहीं है, जरूरत है अपने पाठकों की जरूरत को समझने व उसके अनुरूप प्रकाषन करने की।
किताबें बिकती नहीं हैं, पूंजी कम है, कीमतें ज्यादा हैं, छपाई व कागज के दाम आसमान को छू रहे हैं, प्रकायाक लेखक का पारिश्रमिक खा जाते हैं, प्रकाषन का ध्ंाधा सरकारी खरी और कमीषनखोरी पर टिका है, टीवी ने किताबों की बिक्री कम कर दी है-- आदि--आदि ! ढेर सारी षिकायतें, षिकवे औ परेषानियां हैं, इसके बावजूद पुस्तक मेले आबाद है। लोगों को वहां जाना अच्छा लगता है(चाहे जो भी कारण हो)। जाहिर है कि ‘‘ ये जिंदगी के मेले दुनिया मे ंकम ना होंगे, अफसोस हम ना होंगे---’’
पटरी बाजार बनता नई दिल्ली विष्व पुस्तक मेला
‘बात करती हैं किताबें, सुनने वाला कौन है ?
सब बरक यूं ही उलट देते हैं पढ़ता कौन है ?’ अख्तर नज्मी
लेखकों, प्रकाषकों, पाठकों को बड़ी बेसब्री से इंतजार होता है हर दूसरे साल लगने वाले नई दिल्ली विष्व पुस्तक मेला का। हालांकि फेडरेषन आफ इंडियन पब्लिषर्स(एफआईपी) हर साल अगस्त में दिल्ली के प्रगति मैदान में ही पुस्तक मेला लगा रहा है और इसमें लगभग सभी ख्यातिलब्ध प्रकाषक आते हैं, बावजूद इसके नेषनल बुक ट्रस्ट के पुस्तक मेले की मान्यता अधिक है। वैष्वीकारण के दौर कें हर चीज बाजार बन गई है, लेकिन पुस्तकें अभी इस श्रेणी से दूर हैं। इसके बावजूद पिछले कुछ सालों से नई दिल्ली पुस्तक मेला पर वैष्वीकरण का प्रभाव देखने को मिल रहा है। हर बार 1300 से 1400 प्रकाषक/विकेंता भागीदारी करते हैं, लेकिन इनमें बड़ी संख्या पाठ्य पुस्तकें बेचने वालों की होेती हे। दरियागंज के अधिकांष विक्रेता यहां स्टाल लगाते हैं। परिणामतः कई-कई स्टालों पर एक ही तरह की पुस्तें दिखती हैं।
यह बात भी तेजी से चर्चा में है कि इस पुस्तक मेले में विदेषी भागीदारी लगभग ना के बराबर होती जा रही है। यदि पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल को छोड़ दें तो विष्व बैंक, विष्व श्रम संगठन, विष्व स्वास्थ्य संयुक्त राश्ट्र, यूनीसेफ आदि के स्टाल विदेषी मंउप में अपनी प्रचार सामग्री प्रदर्षित करते दिखते हैं। फै्रंकफर्ट और अबुधाबी पुस्तक मेला के स्टाल भागीदारों को आकर्शित करने के लिए होते हैं। इक्का-दुक्का स्टालों पर विदेषी पुस्तकों के नाम पर केवल ‘रिमेंडर्स’ यानी अन्य देषों की फालतू या पुरानी पुस्तकें होती हैं। ऐसी पुस्तकों को प्रत्येक रविवार को दरियागंज में लगने वाले पटरी-बाजार से आसानी से खरीदा जा सकता है।
नई दिल्ली पुस्तक मेला में बाबा-बैरागियों और कई तरह के धार्मिक संस्थाओं के स्टालों में हो रही अप्रत्याषित बढ़ौतरी भी गंभीर पुस्तक प्रेमियों के लिए चिंता का विशय है। इन स्टालों पर कथित संतों के प्रवचनों की पुस्तकें, आडियों कैसेट व सीडी बिकती हैं। कुरान षरीफ और बाईबिल से जुड़ी संस्थाएं भी अपने प्रचार-प्रसार के लिए विष्व पुस्तक मेला का सहारा लेने लगी हैं।
पुस्तक मेला के दौरान बगैर किसी गंभीर योजना के सेमिनारों, पुस्तक लोकार्पण आयोजनों का भी अंबार होता है। कई बार तो ऐसे कार्यक्रमों में वक्ता कम और श्रोता अधिक होते है। यह बात भी अब किसी से छिपी नहीं है कि दिल्ली में एक ऐसा समूह सक्रिय है जो सेमिनारों/ गोश्ठियों में बगैर बौद्धिक सहभागिता निभाए भोजन या नाष्ता करने के लिए कुख्यात है।
पुस्तक मेला के दौरान प्रकाषकों, धार्मिक संतों, विभिन्न एजंेंसियों द्वारा वितरित की जाने वाली निषुल्क सामग्री भी एक आफत है। पूरा प्रगति मैदान रद्दी से पटा दिखता है। कुछ सौ लोग तो हर रोज ऐसा ‘‘कचरा’’ एकत्र कर बेचने के लिए ही पुस्तक मेला को याद करते हैं। छुट्टी के दिन मध्यवर्गीय परिवारों का समय काटने का स्थान, मुहल्ले व समाज में अपनी बौद्धिक ताबेदारी सिद्ध करने का अवसर और बच्चों को छुट्टी काटने का नया डेस्टीनेषन भी होता है। पुस्तक मेला। यह बात दीगर है कि इस दौरान प्रगति मैदान के खाने-पीने के स्टालों पर पुस्तक की दुकानों से अधिक बिक्री होती है।