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बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

हाथी पर संकट राष्ट्रीय सहारा १३ फरवरी २०१४

हाथी अब क्यों नहीं रहे साथी?
मुद्दा
पंकज चतुव्रेदी
दुनिया भर में हाथियों को संरक्षित करने के लिए गठित आठ देशों के समूह में भारत भी शामिल है और इसे ‘राष्ट्रीय धरोहर पशु’ घोषित किया गया है। इसके बावजूद बीते दो दशकों के दौरान देश में हाथियों की संख्या स्थिर हो गई है। मानव आबादी का विस्तार, हाथियों के प्राकृतिक वास में कमी, जंगलों की कटाई और बेशकीमती दांतों के लालच में हाथी मारे जा रहे हैं। दूसरी ओर झारखंड-ओडिशा-छत्तीसगढ़ राज्यों की सीमा के रिहायशी इलाकों में भूखे हाथियों का आतंक बना हुआ है। कहा जा रहा है कि हाथी बस्ती में आ गया है, लेकिन तीस साल पहले के जमीन के रिकार्ड से साफ हो जाएगा कि हाथी ने नहीं, इंसान ने उसके प्राकृतिक आवास में घुसपैठ की है। देश भर से हाथियों के गुस्साने की खबरें आती ही रहती हैं। हाथियों का सबसे सुरक्षित क्षेत्र माने जाने वाले असम में पिछले सात सालों में हाथी व इंसान के टकराव में साढ़े चार सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। हाथी को गुस्सा आ जाता है तो वह खेत, घर, इंसान, जो भी रास्ते में आए सबको कुचल कर रख देता है। उत्तराखंड में राजाजी नेशनल पार्क से सटे ऋषिकेश व हरिद्वार इलाके में हाथियों के डर से लोग खेतों में जाने से घबराते हैं। छत्तीसगढ़ में हाथी गांव में घुस खाने-पीने का सामान लूट ले जाते हैं। इसकी प्रतिक्रिया में इंसान को भी जब जैसा मौका मिल रहा है, हाथियों की जान ले रहा है। दक्षिणी राज्यों के जंगलों में गर्मी के मौसम में हर साल 20 से 30 हाथी संदिग्ध हालात में मृत मिल रहे हैं। बहरहाल, प्रकृति के साथ लगातार हो रही छेड़छाड़ को अपना हक समझने वाला इंसान हाथी का दर्द नहीं समझ रहा है और धरती के इस सबसे भारी-भरकम प्राणी का अस्तित्व संकट में है । 19 वीं सदी की शुरुआत में एशिया में हाथियों की संख्या दो लाख से अधिक आंकी गई थी। आज यह बमुश्किल 35 हजार है। 1980 में भारत में 26 से 28 हजार हाथी थे। अगले दशक में यह संख्या घट कर 18 से 21 हजार रह गई। सरकारी दावे जो कहें लेकिन आज यह आंकड़ा 15 हजार के आसपास सिमट गया है। भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में सबसे अधिक हाथी हैं। उसके बाद दक्षिण का स्थान आता है। हिमालय की तराई भी इनका का पसंदीदा क्षेत्र रहा है। 1959 में एशियाई हाथी को संकटग्रस्त वन्यजाति में शामिल किया गया था। इसी के मद्देनजर आठवीं पंचवर्षीय योजना में हाथी परियोजना के लिए अलग से वित्तीय प्रावधान रखे गए थे। सरकारी फाइलों के मुताबिक 1991-92 से देश में यह विशेष परियोजना लागू है लेकिन दुर्भाग्य से इसी के बाद हाथियों पर संकट गहराता जा रहा है। उत्तर-पूर्वी राज्यों, विशेषकर नगालैंड के धान के खेतों को हाथी तबाह कर देते हैं। मौका मिलने पर वह गांवों को भी नहीं छोड़ते हैं, इसलिए स्थानीय लोग उन्हें मारने की फिराक में रहते हैं। इन क्षेत्रों में हाथी की हड्डी, सूंड, दांत व अन्य अंगों को लेकर कई चिकित्सीय व अंधविासी मान्यताएं हैं, इस कारण भी ये मारे जा रहे हैं। तस्कर आदिवासियों को लालच में फंसा हाथियों का शिकार करवा रहे हैं। कर्नाटक के कोडगू और मैसूर जिले में 643 वर्ग किमी में फैला नागरहोल पार्क हाथियों का पसंदीदा आवास है। इसके दक्षिण-पश्चिम में केरल की व्यानाद सेंचुरी है । पास में ही बांदीपुर (कर्नाटक) और मधुमलाई (तमिलनाडु) के घने जंगल हैं। भारत में पाए जाने वाले हाथियों का 40 फीसद यहीं रहता है। पिछले कुछ सालों में यहां जंगल की कटाई बढ़ी है। हर साल बारिश से पहले इन जंगलों में हाथियों की मौत हो रही है। वन विभाग के अफसर इसका कारण लू या दूषित पानी बता कर पल्ला झाड़ लेते हैं। हकीकतन में हाथियों को 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटों तक भटकना पड़ता है। दिखने में भारी-भरकम हाथी का मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है। थेड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है। ऐसे में थके-हारे जानवर के प्राकृतिक घर यानी जंगल को जब नुकसान पहुंचाया जाता है तो इंसान से उसकी भिडं़त होती है। असल संकट हाथी की भूख है। कई-कई सदियों से हाथी अपनी जरूरत के अनुरूप अपना स्थान बदला करता था। उसके आवागमन के इन रास्तों को ‘एलीफेंट कॉरीडार’ कहा गया। 1999 में भारत सरकार के वन तथा पर्यावरण मंत्रालय ने इन कॉरीडारों पर सव्रे करवाया था तो पता चला कि अपने प्राकृतिक कॉरीडार से छेड़छाड़ के कारण हाथी व्याकुल है। हरिद्वार और ऋषिकेश से सटा उत्तराखंड का राजाजी नेशनल पार्क हाथियों का आवास है। लेकिन विकास की आंधी में वहां जगल उजाड़ कर आलीशान होटल और रिसोर्ट बन गए हैं जिस कारण रामगंगा पार करना हाथियों लिए असंभव है। बेबस हाथी सड़क या रेलवे ट्रैक पर चले आते हैं और मारे जाते हैं। ओडिशा के हालत तो बहुत ही खराब हैं। वहां हाथियों का पसंदीदा ‘सिमलीपल कॉरीडार’ बोउला की क्रोमियम खदान की चपेट में आ गया और सतसोकिया कॉरीडोर को राष्ट्रीय राजमार्ग हड़प गया । उत्तर-पूर्वी राज्यों में विकास के नाम पर हाथी के पारंपरिक भोजन-स्थल उजाड़ा गया तो बेहाल हाथी आबादी में घुस आया और लोगों के गुस्से का शिकार बना। हाथियों के एक अन्य प्रमुख आश्रय-स्थल असम में हाथी बेरोजगार हो गए हैं और उनके सामने पेट भरने का संकट खड़ा हो गया है। 2005 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद हाथियों से वजन ढुलाई का काम गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। इसके बाद असम के कोई 1200 पालतू हाथी एक झटके में बेरोजगार हो गए। सदियों से उत्तर-पूर्वी राज्यों के समाज का अभिन्न हिस्सा रहा हाथी जंगलों से लकड़ी के लठ्ठे ढोने का काम करता रहा है। अदालती आदेश के बाद ये हाथी और उनके महावत लगभग भुखमरी की कगार पर हैं। सनद रहे कि एक हाथी की खुराक के लिए महीने भर में कम से कम दस हजार रपए खर्च करने पड़ते हैं। ऐसे में हाथी पालना अब रईसों के भी बूते से बाहर है। असम के कुछ महावत अब दिल पर पत्थर रख कर अपने हाथियों को राजस्थान, दिल्ली जैसे राज्यों में बेच रहे हैं। दक्षिणी राज्यों में जंगल से सटे गांव के लोग बिगड़ैल हाथी से खेत या घर बचाने के लिए उसे बिजली के करंट लगाना या गहरी खाई खोदना मजबूरी मानते हैं। ‘हाथी प्रोजेक्ट’ का इलाका होना किसानों की त्रासदी बन गया है। यदि हाथी फसल खराब कर दे तो उसका मुआवजा इतना कम होता है कि उसे पाने की भागदौड़ में इससे कहीं अधिक खर्चा हो जाता है। हाथी के पैरों के नीचे इंसान कुचल कर मर जाए तो मुआवजा राशि 25 हजार मात्र होती है। हाथी दांत के लिए भी तस्कर हाथियों के दुश्मन बने हुए हैं। उत्तराखंड में बांध विस्थापितों के नए घर-खेतों के लिए जंगल कटने से भूख से बेहाल हाथी कई बार फसल और संपत्ति का नुकसान कर बैठते हैं। यहां पिछले 25 सालों के दौरान कई हाथी ट्रेन से टकरा कर मारे गए हैं। कोई एक दर्जन हाथियों की मौत जंगल से गुजरती बिजली की लाइनों में टूटफूट के कारण होना सरकारी रिकार्ड में दर्ज है। ये हादसे अनियोजित विकास के कारण प्राकृतिक संपदा को हो रहे नुकसान की बानगी हैं। बिहार के पलामू जिले से भाग कर छत्तीसगढ़ के सरगुजा व सटे हुए आंध्रप्रदेश के गांवों तक में हाथी उपद्रव करते रहते हैं। कई बार ऐसे बेकाबू हाथियों को जंगल में खदेड़ने के दौरान मारना वन विभाग के कर्मचारियों की मजबूरी हो जाता है।
    

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