http://epaper.jagran.com/epaper/10-mar-2014-262-edition-National-Page-1.html
परीक्षा के दवाब में नीरस होती सीखने की प्रक्रिया
पंकज चतुर्वेदी
सीबीएसई बोर्ड के इम्तेहान क्या षुरू हुए- बच्चे, पालक, षिक्षक सभी पर जैसे संकट छा गया है। किसी को बेहतर संस्थान में एडमिषन की चिंता है तो किसी को अपने स्कूल का नाम रोषन करने की तो कोई समाज में अपने रूतबे के लिए बच्चे को सहारा बनाए है। कहने को तो सीबीएसई ने नंबर की जगह ग्रेड को लागू कर दिया है, लेकिन इससे उस संघर्श का दायरा और बढ़ गया है जो बच्चों के आगे के एडमीषन, भविश्य या जीवन को तय करते हैं।
ज्यादा नंबर लाने की होड़, दवाब, संघर्ष; और इसके बीच में पिसता किशोर ! अभ्ीा-अभी बचपन की दहलीज छोड़ी है और पहला अनुभव ही इतना कटु ? दुनिया क्या ऐसे ही गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा से चलती है। एक तरफ कालेजों में दाखिले की मारामार होगी, तो दूसरी ओर हायर सैकेंडरी में अपने पसंद के विषय लेने के लिए माकूल अंकों की दरकार का खेल। अब तो बोर्ड के इम्तेहान से आगे की गलाकाट ज्यादा बड़ी हो गई है- हर एक बच्चा एआईइइइ, सीपीएमटी के अलावा अलग-अलग राज्यों के इंजीनियरिंग और मेडिकल इंट्रेंस एक्जाम में भी लगा है। बीबीए में दाखिला भी अलग से परीक्षा से होना है, जाहिर है कि पाठ्यक्रम के दवाब के साथ-साथ अपने भविश्य और अपने पालकों के अरमानों के दवाब को झेलने के लिए 17-18 साल की उमर कुछ कम ही होती है। नारों से दमकती षिक्षा नीति इस तरह की ‘परीक्षा-प्रणाली’ से सफलता की नहीं वरन असफल लोगों की जमात तैयार कर रहा है।
क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमता का तकाजा महज अंकों का प्रतिषत ही है ? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में , जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है । मूल्यांकन का आधार बच्चों की योग्यता ना हो कर उसकी कमजोरी है । यह सरासर नकारात्मक सोच है, जिसके चलते बच्चों में आत्महत्या, पर्चे बेचने-खरीदने की प्रवृति, नकल व झूठ का सहारा लेना जैसी बुरी आदतें विकसित हो रही हैं । षिक्षा का मुख्य उद्देष्य इस नंबर- दौड़ में गुम हो कर रह गया है ।
छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देष के आठ षिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो. यषपाल कर रहे थे । समिति ने देषभर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी । उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है ना समझ पाने का बोझ । सरकार ने सिफारिषों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं । फिर देष की राजनीति मंदिर-मस्जद जैसे विवादों में ऐसी फंसी कि उस रिपोर्ट की सुध ही नहीं रही ।
चूंकि परीक्षा का वर्तमान स्वरूप आनंददायक षिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है । अतः इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए । इसके विपरीत बीते एक दषक में कक्षा में अव्वल आने की गला काट में ना जाने कितने बच्चे कुंठा का षिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं । हायर सैकेंडरी के रिजल्ट के बाद ऐसे हादसे सारे देष में होते रहते हैं । अपने बच्चे को पहले नंबर पर लाने के लिए कक्षा एक-दो में ही पालक युद्ध सा लड़ने लगते हैं ।
समिति की दूसरी सिफारिष पाठ्य पुस्तक के लेखन में षिक्षकों की भागीदारी बढ़ा कर उसे विकेंद्रित करने की थी । सभी स्कूलों को पाठ्य पुस्तकों और अन्य सामग्री के चुनाव सहित नवाचार के लिए बढ़ावा दिए जाने की बात भी इस रपट में थी । अब प्राईवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के षोशण का जरिया बन गया है । पब्लिक स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं । सरकार बदलने के साथ किताबें बदलने का दौर एनसीईआरटी के साथ-साथ विभिन्न राज्यों के पाठ्य पुस्तक निगमों में भी जारी हैं । पाठ्य पुस्तकों को स्कूल की संपत्ति मानने व उन्हें बच्चों को रोज घर ले जाने की जगह स्कूल में ही रखने के सुझाव ना जाने किस लाल बस्ते में बंध कर गुम हो गए । जबकि बच्च बस्ते के बोझ , कोर्स की अधिकता, अभिभावकों की अपेक्षाओं से कुठित होता जा रहा है ।
कुल मिला कर परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिष्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है । कहने को तो अंक सूची पर प्रथम श्रेणी दर्ज है, लेकिन उनकी आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों ने भी दरवाजों पर षर्तों की बाधाएं खड़ी कर दी हैं । सवाल यह है कि षिक्षा का उद्देष्य क्या है - परीक्षा में स्वयं को श्रेश्ठ सिद्ध करना, विशयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायाद ? निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्व षिक्षा अभियान और ऐसी ही कई योजनाएं संचालित हैं । सरकार हर साल अपनी रिपोर्ट में ‘‘ड्राप आउट’’ की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती है । लेकिन कभी किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अपने पसंद के विशय या संस्था में प्रवेष ना मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गई हैं । एम.ए और बीए की डिगरी पाने वालों में कितने ऐसे छात्र हैं जिन्होंने अपनी पसंद के विशय पढ़े हैं । विशय चुनने का क बच्चों को नहीं बल्कि उस परीक्षक को है जो कि बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन उनकी गलतियों की गणना के अनुसार कर रहा है ।
वर्ष 1988 में लागू शिक्षा नीति (जिसकी चर्चा नई षिक्षा नीति के नाम से होती रही है) के 119 पृष्ठों के प्रचलित दस्तावेज से यह ध्वनि निकलती थी कि अवसरों की समानता दिलानेे तथा खाईयों को कम करके बुनियादी परिवर्तन से शिक्षा में परिवर्तन से आ जाएगा । दस्तावेज में भी शिक्षा के उद्देश्यों पर विचार करते हुए स्त्रोतों की बात आ गई है । उसमें बार-बार आय व्यय तथा बजट की ओर इशारे किए गए थे। इसे पढ़ कर मन में सहज ही प्रश्न उठता था कि देश की समूची आर्थिक व्यवस्था को निर्धारित करते समय ही शिक्षा के परिवर्तनशील ढ़ांचे पर विचार हो जाएगा । सारांश यह है कि आर्थिक ढांचा पहले तय होगा तब शिक्षा का । कई बजट आए और औंधे मुंह गिरे । लेकिन देश की आर्थिक दशा और दिशा का निर्धारण नहीं हो पाया । ऐसा हुआ नहीं सो शिक्षा में बदलाव का यह दस्तावेज भी किसी सरकारी दफ्तर की धूल से अटी फाईल की तरह कहीं गुमनामी के दिन काट रहा है।
आजादी के बाद हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग को कभी गंभीरता से नहीं लिया । इसमें इतने प्रयोग हुए कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया । हम गुणात्मक दृष्टि से पीछे जाते गए, मात्रात्मक वृद्वि भी नहीं हुई । कुल मिला कर देखें तो षिक्षा प्रणाली का उद्देष्य और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक दूसरे में उलझ गए व एक गफलत की स्थिति बन गई । षिक्षा या स्कूल एक पाठ्यक्रम को पूरा करने की जल्दी, कक्षा में ब्लेक बोर्ड, प्रष्नों को हल करने की जुगत में उलझ कर रह गया ।
नई षिक्षा नीति को बनाने वाले एक बार फिर सरकार में हैं । षिक्षा की दिषा व दषा तय करने वाली प्रो. यषपाल की टीम की एक बार फिर पूछ बढ़ गई है । क्या ये लोग अपने पुराने अनुभवों से कुछ सीखते हुए बच्चों की बौद्धिक समृद्धता व अपने प्रौढ़ जीवन की चुनौतियों से निबटने की क्षमता के विकास के लिए कारगर कदम उठाते हुए नंबरों की अंधी दौड़ पर विराम लगाने की सुध लेंगे ?
यह भी गौरतलब है कि कक्षा 12वीं की जिस परीक्षा को योग्यता का प्रमाणपत्र माना जा रहा है, उसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम वाले महज एक कागज का टुकड़ा मानते हैं । इंजीनियरिंग, मेडिकल, चार्टेड एकाउंटेंट; जिस किसी भी कोर्स में दाखिला लेना हो, एक प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी। मामला यहीं नहीं रूकता है, बच्चे को 12वीं पास करने के एवज में मिला प्रमाणपत्र उसकी उच्च शिक्षा की गारंटी भी नहीं लेता हैं। डिगरी कालेजों में भी ऊंचे नंबर पाने वालों की लिस्ट तैयार होती है और अनुमान है कि हर साल हायर सैकंडरी (राज्य या केंद्रीय बोर्ड से) पास करने वाले बच्चों का 40 फीसदी आगे की पढ़ाई से वंचित रह जाता है। ऐसे में पूरी परीक्षा की प्रक्रिया और उसके बाद के नतीजों को बच्चों के नजरिए से तौलने-परखने का वक्त आ गया है।
फोनः 9891928376, 0120-2649985
परीक्षा के दवाब में नीरस होती सीखने की प्रक्रिया
पंकज चतुर्वेदी
सीबीएसई बोर्ड के इम्तेहान क्या षुरू हुए- बच्चे, पालक, षिक्षक सभी पर जैसे संकट छा गया है। किसी को बेहतर संस्थान में एडमिषन की चिंता है तो किसी को अपने स्कूल का नाम रोषन करने की तो कोई समाज में अपने रूतबे के लिए बच्चे को सहारा बनाए है। कहने को तो सीबीएसई ने नंबर की जगह ग्रेड को लागू कर दिया है, लेकिन इससे उस संघर्श का दायरा और बढ़ गया है जो बच्चों के आगे के एडमीषन, भविश्य या जीवन को तय करते हैं।
ज्यादा नंबर लाने की होड़, दवाब, संघर्ष; और इसके बीच में पिसता किशोर ! अभ्ीा-अभी बचपन की दहलीज छोड़ी है और पहला अनुभव ही इतना कटु ? दुनिया क्या ऐसे ही गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा से चलती है। एक तरफ कालेजों में दाखिले की मारामार होगी, तो दूसरी ओर हायर सैकेंडरी में अपने पसंद के विषय लेने के लिए माकूल अंकों की दरकार का खेल। अब तो बोर्ड के इम्तेहान से आगे की गलाकाट ज्यादा बड़ी हो गई है- हर एक बच्चा एआईइइइ, सीपीएमटी के अलावा अलग-अलग राज्यों के इंजीनियरिंग और मेडिकल इंट्रेंस एक्जाम में भी लगा है। बीबीए में दाखिला भी अलग से परीक्षा से होना है, जाहिर है कि पाठ्यक्रम के दवाब के साथ-साथ अपने भविश्य और अपने पालकों के अरमानों के दवाब को झेलने के लिए 17-18 साल की उमर कुछ कम ही होती है। नारों से दमकती षिक्षा नीति इस तरह की ‘परीक्षा-प्रणाली’ से सफलता की नहीं वरन असफल लोगों की जमात तैयार कर रहा है।
क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमता का तकाजा महज अंकों का प्रतिषत ही है ? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में , जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है । मूल्यांकन का आधार बच्चों की योग्यता ना हो कर उसकी कमजोरी है । यह सरासर नकारात्मक सोच है, जिसके चलते बच्चों में आत्महत्या, पर्चे बेचने-खरीदने की प्रवृति, नकल व झूठ का सहारा लेना जैसी बुरी आदतें विकसित हो रही हैं । षिक्षा का मुख्य उद्देष्य इस नंबर- दौड़ में गुम हो कर रह गया है ।
छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देष के आठ षिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो. यषपाल कर रहे थे । समिति ने देषभर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी । उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है ना समझ पाने का बोझ । सरकार ने सिफारिषों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं । फिर देष की राजनीति मंदिर-मस्जद जैसे विवादों में ऐसी फंसी कि उस रिपोर्ट की सुध ही नहीं रही ।
चूंकि परीक्षा का वर्तमान स्वरूप आनंददायक षिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है । अतः इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए । इसके विपरीत बीते एक दषक में कक्षा में अव्वल आने की गला काट में ना जाने कितने बच्चे कुंठा का षिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं । हायर सैकेंडरी के रिजल्ट के बाद ऐसे हादसे सारे देष में होते रहते हैं । अपने बच्चे को पहले नंबर पर लाने के लिए कक्षा एक-दो में ही पालक युद्ध सा लड़ने लगते हैं ।
समिति की दूसरी सिफारिष पाठ्य पुस्तक के लेखन में षिक्षकों की भागीदारी बढ़ा कर उसे विकेंद्रित करने की थी । सभी स्कूलों को पाठ्य पुस्तकों और अन्य सामग्री के चुनाव सहित नवाचार के लिए बढ़ावा दिए जाने की बात भी इस रपट में थी । अब प्राईवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के षोशण का जरिया बन गया है । पब्लिक स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं । सरकार बदलने के साथ किताबें बदलने का दौर एनसीईआरटी के साथ-साथ विभिन्न राज्यों के पाठ्य पुस्तक निगमों में भी जारी हैं । पाठ्य पुस्तकों को स्कूल की संपत्ति मानने व उन्हें बच्चों को रोज घर ले जाने की जगह स्कूल में ही रखने के सुझाव ना जाने किस लाल बस्ते में बंध कर गुम हो गए । जबकि बच्च बस्ते के बोझ , कोर्स की अधिकता, अभिभावकों की अपेक्षाओं से कुठित होता जा रहा है ।
कुल मिला कर परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिष्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है । कहने को तो अंक सूची पर प्रथम श्रेणी दर्ज है, लेकिन उनकी आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों ने भी दरवाजों पर षर्तों की बाधाएं खड़ी कर दी हैं । सवाल यह है कि षिक्षा का उद्देष्य क्या है - परीक्षा में स्वयं को श्रेश्ठ सिद्ध करना, विशयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायाद ? निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्व षिक्षा अभियान और ऐसी ही कई योजनाएं संचालित हैं । सरकार हर साल अपनी रिपोर्ट में ‘‘ड्राप आउट’’ की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती है । लेकिन कभी किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अपने पसंद के विशय या संस्था में प्रवेष ना मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गई हैं । एम.ए और बीए की डिगरी पाने वालों में कितने ऐसे छात्र हैं जिन्होंने अपनी पसंद के विशय पढ़े हैं । विशय चुनने का क बच्चों को नहीं बल्कि उस परीक्षक को है जो कि बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन उनकी गलतियों की गणना के अनुसार कर रहा है ।
वर्ष 1988 में लागू शिक्षा नीति (जिसकी चर्चा नई षिक्षा नीति के नाम से होती रही है) के 119 पृष्ठों के प्रचलित दस्तावेज से यह ध्वनि निकलती थी कि अवसरों की समानता दिलानेे तथा खाईयों को कम करके बुनियादी परिवर्तन से शिक्षा में परिवर्तन से आ जाएगा । दस्तावेज में भी शिक्षा के उद्देश्यों पर विचार करते हुए स्त्रोतों की बात आ गई है । उसमें बार-बार आय व्यय तथा बजट की ओर इशारे किए गए थे। इसे पढ़ कर मन में सहज ही प्रश्न उठता था कि देश की समूची आर्थिक व्यवस्था को निर्धारित करते समय ही शिक्षा के परिवर्तनशील ढ़ांचे पर विचार हो जाएगा । सारांश यह है कि आर्थिक ढांचा पहले तय होगा तब शिक्षा का । कई बजट आए और औंधे मुंह गिरे । लेकिन देश की आर्थिक दशा और दिशा का निर्धारण नहीं हो पाया । ऐसा हुआ नहीं सो शिक्षा में बदलाव का यह दस्तावेज भी किसी सरकारी दफ्तर की धूल से अटी फाईल की तरह कहीं गुमनामी के दिन काट रहा है।
आजादी के बाद हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग को कभी गंभीरता से नहीं लिया । इसमें इतने प्रयोग हुए कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया । हम गुणात्मक दृष्टि से पीछे जाते गए, मात्रात्मक वृद्वि भी नहीं हुई । कुल मिला कर देखें तो षिक्षा प्रणाली का उद्देष्य और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक दूसरे में उलझ गए व एक गफलत की स्थिति बन गई । षिक्षा या स्कूल एक पाठ्यक्रम को पूरा करने की जल्दी, कक्षा में ब्लेक बोर्ड, प्रष्नों को हल करने की जुगत में उलझ कर रह गया ।
नई षिक्षा नीति को बनाने वाले एक बार फिर सरकार में हैं । षिक्षा की दिषा व दषा तय करने वाली प्रो. यषपाल की टीम की एक बार फिर पूछ बढ़ गई है । क्या ये लोग अपने पुराने अनुभवों से कुछ सीखते हुए बच्चों की बौद्धिक समृद्धता व अपने प्रौढ़ जीवन की चुनौतियों से निबटने की क्षमता के विकास के लिए कारगर कदम उठाते हुए नंबरों की अंधी दौड़ पर विराम लगाने की सुध लेंगे ?
यह भी गौरतलब है कि कक्षा 12वीं की जिस परीक्षा को योग्यता का प्रमाणपत्र माना जा रहा है, उसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम वाले महज एक कागज का टुकड़ा मानते हैं । इंजीनियरिंग, मेडिकल, चार्टेड एकाउंटेंट; जिस किसी भी कोर्स में दाखिला लेना हो, एक प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी। मामला यहीं नहीं रूकता है, बच्चे को 12वीं पास करने के एवज में मिला प्रमाणपत्र उसकी उच्च शिक्षा की गारंटी भी नहीं लेता हैं। डिगरी कालेजों में भी ऊंचे नंबर पाने वालों की लिस्ट तैयार होती है और अनुमान है कि हर साल हायर सैकंडरी (राज्य या केंद्रीय बोर्ड से) पास करने वाले बच्चों का 40 फीसदी आगे की पढ़ाई से वंचित रह जाता है। ऐसे में पूरी परीक्षा की प्रक्रिया और उसके बाद के नतीजों को बच्चों के नजरिए से तौलने-परखने का वक्त आ गया है।
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