हर एक को दाग अच्छे लगते हैं
पंकज चतुर्वेदी
16वीं लोकसभा के गठन की अधिसूचना जारी होते ही सियासती दल एक दूसरे पर षुचिता के उलाहने दे रहे हैं, खुद को पाक-साफ व दूसरे को चोर साबित कर रहे हैंें, असल में समूचे कुंए में ही भांग घुली हुई हैं। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई हैं और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं। जो भारतीय जनता पार्टी इस अध्यादेष के विरोध में राश्ट्रपति से मिलने गई, असल में उस अध्यादेष को लोकसभा में रखने और वहां से ध्वनिमत से पास करने की प्रक्रिया में ना केवल भाजपा बल्कि लगभग सभी सियासती दल षामिल थे। और हकीकत यह है कि हर दल को दूसरे दल में दागी नजर आते हैं, लेकिन जब वे महामहिम दल बदल कर उनके पाले में आ जाते हैं तो राजनीतिक विद्वेष की कार्यवाही कह कर दागों को गले लगाया जाता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत में 15वीं लोकसभा भी माकूल चुनाव सुधारों की गैरमौजूदगी के कारण लगभग त्रिषंकु है। देष इसका खामियाजा भी भुगत रहा है- रिकार्डतोड़ महंगाई संसद में बहस का ठोस मुद्दा नहीं बन पाई, टेलीकाम घोटाल, कामनवेल्थ, कोयला, सहित कई घोटालों के संकेत मिलने के बाद भी प्रधानमंत्री को मूक दर्षक बनना पड़ रहा है, पूरे देष में सांप्रदायिक हिंसा रुक नहीं रही है, एक निर्दलीय मुख्यमंत्री कुछ ही सालों में सत्ता के जरिए किस तरह पैसा बनाता है, यह झारखंड में देख लिया है । वास्तव में ये लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र है। यह चरम बिंदू है जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक -सुधार के बनिस्पत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है।जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिषा में काम नहीं करना चाहता है।
आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की मतदान में कम रूचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, चुनाव करवाने के बढ़ते खर्च, आचार संहिता की अवहेलना - ये कुछ ऐसी बुराईयां हैं जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं और इस बार ये सभी ताकतवर हो कर उभरी हैं। कई बार निर्वाचन आयोग असहाय सा दिखा और फिर आयोग ने ही अपने खर्चे इतने बढ़ा लिए हैं कि वह आम आदमी के विकास के लिए जरूरी बजट पर डाका डालता प्रतीत होता है।
15वीं लोकसभा के लिए पूरे देष में जिस तरह बहुत कम मतदान हुआ, उससे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। पचपन-साठ फीसदी वोट पड़े, इतने सारे राजनीतिक दल बन गए और निर्दलीय तो थे ही ; लिहाजा कुल मतदाता का बामुष्किल 20 फीसदी या मतदान का 30 फीसदी पाने वाला निर्वाचित हो गया। हमारे लोकतंत्र की इस बाजीगरी को नेता भलीभांति जान गए हैं- एटा से पांच कल्याण सिंह नाम के निर्दलीय मैंदान में उतार दिए, गाजियाबाद में दो-तीन मुसलमानों को खड़ा करवा दिया गया, मुंबई और उसके आसपास मनसे की उम्मीदवार, सभी को मालूम था कि ये खुद जीतने के लिए नहीं, दूसरों को हराने की पैतंरेबाजी है। राजस्थान की दौसा, सवाईंमाधौपुर जैसी सीटों पर कुछ उम्मीदवार केवल मीणा या गूजरों से वोट मांग रहे थे, उनका कहना था कि हमें दूसरी जात के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, गूजर या मीणा का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां एक वोट या पांच लाख वोट से जीते दोनेां तरह के सांसदों के समान अधिकार होते हैं। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल गूजर, मुसलमान या ब्राहण वोट के। केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर सांसदों का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा।
कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राषि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयषुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याषी चुनने में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रषासनिक दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याषी चुनावों के दौरान कई गड़बडि़यां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं ।
सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याषी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविषेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजूट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मषीन का आकार बढ़ जाता है । चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्धों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों,, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देष के 200 से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है । कई राज्यों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राश्ट्रीय जनता दल, लोक दल और षिव सेना के प्रत्याषी केवल दूसरों को मजा चखाने के लिए ही खड़े किए जाते हैं।
ऐसे भी लोगों की संख्या कम नहीं है, जोकि स्थानीय प्रषासन या राजनीति में अपना रसूख दिखानेभर के लिए पर्चा भरते हैं । ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जबकि मात्र नामांकन दाखिल कर कुछ लोग लाखों के वारे-न्यारे कर लेते हैं । बहुत से राजनैतिक दल राश्ट्रीय या राज्य स्तर की मान्यता पाने के लिए निधार्रित मत-प्रतिषत पाना चाहते हैं । इस फिराक में वे आंख बंद कर प्रत्याषी मैदान में उतार देते हैं । जेल में बंद कुख्यात अपराधियों का जमानत पाने या फिर कारावास की चारदीवारी से बाहर निकलने के बहानों के रूप में या फिर मुकदमें के गवाहों व तथ्यों को प्रभावित करने के लिए चुनाव में पर्चा भरना भी एक आम हथकंडा है ।
यह एक विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आ कर चुनाव लड़ जाता है और ग्लेमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। ऐसे में सियासत को दलाली या धंधा समझने वालों की पीढ़ी बढ़ती जा रही है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीषाहों और नवसामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा। इस कदम से संसद में कारपोरेट दुनिया के बनिस्पत आम आदमी के सवालों को अधिक जगह मिलेगी। लिहाजा आम आदमी संसद से अपने सरोकारों को समझेगा व ‘‘कोउ नृप हो हमें क्या हानि’’ सोच कर वोट ना देने वाले मध्य वर्ग की मानसकिता भी बदलेगी।
इस समय चुनाव करवाना बेहद खर्चीला होता जा रहा है, तिस पर यदि किसी राज्य में दो चुनाव हो जाएं तो सरकारी खजाने का दम तो निकलता ही ही है, राज्य के काम भी प्रभावित होते हैं। विकास के कई आवष्यक काम भी आचार संहिता के कारण रूके रहते हैं । ऐसे में नए चुनाव सुधारों में तीनों चुनाव(कम से कम दो तो अवष्य) लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय एकसाथ करवाने की व्यवस्था करना जरूरी है। रहा सवाल सदन की स्थिरता को तो उसके लिए एक मामूली कदम उठाया जा सकता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव खुले सदन में वोट की कीमत यानी जो जितने वोट से जीता है, उसके वोट की सदन में उतनी ही अधिक कीमत होगी; के आधार पर पांच साल के लिए हो।
सांसद का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुष भी स्थाई व मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में कम से कम दो प्रतिषत वोट पाने वाले दल को ही सांसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम ‘दिल्ली में घोडा़ मंडी’’ की रोक का सषक्त जरिया बन सकता है। ठीक इसी तरह के बंधन राज्य स्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की षर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याषी लोकतंत्र का मजाक ना बना पाएं। सनद रहे कि 16 से अधिक उम्मीदवार होने पर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मषीन की एक से अधिक यूनिट लगानी पड़ती है, जो खर्चीली भी है और जटिल भी। जमानत जब्त होने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों को अगले दो किसी भी चुनावों में लड़ने से राकना जैसे कुछ कड़े कानून समय की मांग हैं।
मतदाता सूचियों में कमियां होना हरेक चुनाव के दौरान सामने आती हैं। घर-घर जा कर मतदाता सूचियों का पुनररीक्षण एक असफल प्रयोग रहा है। दिल्ली जैसे महानगरों में कई कालोनियां ऐसी हैं जहां गत दो दषकों से कोई मतदाता सूची बनाने नहीं पहुंचा है। देष के प्रत्येक वैध बाषिंदे का मतदाता सूची में नाम हो और वह वोट डालने में सहज महसूस करे; इसके लिए एक तंत्र विकसित करना भी बहुत जरूरी है।
चुनावी खर्च बाबत कानून की ढ़ेरों खामियों को सरकार और सभी सियासती पार्टियां स्वीकार करती हैं । किंतु उनके निदान के सवाल को सदैव खटाई में डाला जाता रहा है । राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुआई में गठित चुनाव सुधारों की कमेटी का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, ईंधन, मतदाता सूचियां, लाउड-स्पीकर आदि मुहैया करवाए जाने चाहिए । ये सिफारिशें कहीं ठडे बस्ते में पड़ी हुई हैं । वैसे भी आज के भ्रष्ट राजनैतिक माहौल में समिति की आदर्श सिफारिशें कतई प्रासंगिक नहीं हैं । इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि नेता महज सरकारी खर्चे पर ही चुनाव लड़ लेंगे या फिर सरकारी पैसे को ईमानदारी से खर्च करेंगे । 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ रहा ।
चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घडि़याली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है । 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है । इस रपट में हरेक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित आॅडिट करवाने के सुझाव थे । 1980 में राजाचलैया समिति ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं । ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके है ।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए । आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित आॅडिट नहीं कराती हैं । अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे । चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाता है तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिर्पोटें जमा करती हैं । आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है । यहां तक कि नई नई राजनीति में आई आम आदमी पार्टी अपने विदेषी चंदे के हिसाब को सबके सामने रखने में गोलमोल कर रही हैं
‘‘भारत में लोकतंत्रात्मक गणराज्य का सपना देखने वाले सेनानियों का मत था कि वोट के लिए निजी अपील करना संसदीय लोकतंत्र और सामूहिक हित की भावना के प्रतिकूल है । वोट मांगने का काम केवल सार्वजनिक सभाओं के जरिए होना चाहिए ।’’ यदि यह सरकार लोकतंत्र की इस मूल भावना को जीवित रखने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन करती है तो आम आदमी खुद को लोकतंत्र के करीब समझेगा।
पंकज चतुर्वेदी ,
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 फोन-9891928376
पंकज चतुर्वेदी
16वीं लोकसभा के गठन की अधिसूचना जारी होते ही सियासती दल एक दूसरे पर षुचिता के उलाहने दे रहे हैं, खुद को पाक-साफ व दूसरे को चोर साबित कर रहे हैंें, असल में समूचे कुंए में ही भांग घुली हुई हैं। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई हैं और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं। जो भारतीय जनता पार्टी इस अध्यादेष के विरोध में राश्ट्रपति से मिलने गई, असल में उस अध्यादेष को लोकसभा में रखने और वहां से ध्वनिमत से पास करने की प्रक्रिया में ना केवल भाजपा बल्कि लगभग सभी सियासती दल षामिल थे। और हकीकत यह है कि हर दल को दूसरे दल में दागी नजर आते हैं, लेकिन जब वे महामहिम दल बदल कर उनके पाले में आ जाते हैं तो राजनीतिक विद्वेष की कार्यवाही कह कर दागों को गले लगाया जाता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत में 15वीं लोकसभा भी माकूल चुनाव सुधारों की गैरमौजूदगी के कारण लगभग त्रिषंकु है। देष इसका खामियाजा भी भुगत रहा है- रिकार्डतोड़ महंगाई संसद में बहस का ठोस मुद्दा नहीं बन पाई, टेलीकाम घोटाल, कामनवेल्थ, कोयला, सहित कई घोटालों के संकेत मिलने के बाद भी प्रधानमंत्री को मूक दर्षक बनना पड़ रहा है, पूरे देष में सांप्रदायिक हिंसा रुक नहीं रही है, एक निर्दलीय मुख्यमंत्री कुछ ही सालों में सत्ता के जरिए किस तरह पैसा बनाता है, यह झारखंड में देख लिया है । वास्तव में ये लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र है। यह चरम बिंदू है जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक -सुधार के बनिस्पत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है।जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिषा में काम नहीं करना चाहता है।
आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की मतदान में कम रूचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, चुनाव करवाने के बढ़ते खर्च, आचार संहिता की अवहेलना - ये कुछ ऐसी बुराईयां हैं जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं और इस बार ये सभी ताकतवर हो कर उभरी हैं। कई बार निर्वाचन आयोग असहाय सा दिखा और फिर आयोग ने ही अपने खर्चे इतने बढ़ा लिए हैं कि वह आम आदमी के विकास के लिए जरूरी बजट पर डाका डालता प्रतीत होता है।
15वीं लोकसभा के लिए पूरे देष में जिस तरह बहुत कम मतदान हुआ, उससे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। पचपन-साठ फीसदी वोट पड़े, इतने सारे राजनीतिक दल बन गए और निर्दलीय तो थे ही ; लिहाजा कुल मतदाता का बामुष्किल 20 फीसदी या मतदान का 30 फीसदी पाने वाला निर्वाचित हो गया। हमारे लोकतंत्र की इस बाजीगरी को नेता भलीभांति जान गए हैं- एटा से पांच कल्याण सिंह नाम के निर्दलीय मैंदान में उतार दिए, गाजियाबाद में दो-तीन मुसलमानों को खड़ा करवा दिया गया, मुंबई और उसके आसपास मनसे की उम्मीदवार, सभी को मालूम था कि ये खुद जीतने के लिए नहीं, दूसरों को हराने की पैतंरेबाजी है। राजस्थान की दौसा, सवाईंमाधौपुर जैसी सीटों पर कुछ उम्मीदवार केवल मीणा या गूजरों से वोट मांग रहे थे, उनका कहना था कि हमें दूसरी जात के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, गूजर या मीणा का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां एक वोट या पांच लाख वोट से जीते दोनेां तरह के सांसदों के समान अधिकार होते हैं। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल गूजर, मुसलमान या ब्राहण वोट के। केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर सांसदों का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा।
कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राषि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयषुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याषी चुनने में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रषासनिक दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याषी चुनावों के दौरान कई गड़बडि़यां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं ।
सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याषी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविषेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजूट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मषीन का आकार बढ़ जाता है । चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्धों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों,, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देष के 200 से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है । कई राज्यों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राश्ट्रीय जनता दल, लोक दल और षिव सेना के प्रत्याषी केवल दूसरों को मजा चखाने के लिए ही खड़े किए जाते हैं।
ऐसे भी लोगों की संख्या कम नहीं है, जोकि स्थानीय प्रषासन या राजनीति में अपना रसूख दिखानेभर के लिए पर्चा भरते हैं । ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जबकि मात्र नामांकन दाखिल कर कुछ लोग लाखों के वारे-न्यारे कर लेते हैं । बहुत से राजनैतिक दल राश्ट्रीय या राज्य स्तर की मान्यता पाने के लिए निधार्रित मत-प्रतिषत पाना चाहते हैं । इस फिराक में वे आंख बंद कर प्रत्याषी मैदान में उतार देते हैं । जेल में बंद कुख्यात अपराधियों का जमानत पाने या फिर कारावास की चारदीवारी से बाहर निकलने के बहानों के रूप में या फिर मुकदमें के गवाहों व तथ्यों को प्रभावित करने के लिए चुनाव में पर्चा भरना भी एक आम हथकंडा है ।
यह एक विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आ कर चुनाव लड़ जाता है और ग्लेमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। ऐसे में सियासत को दलाली या धंधा समझने वालों की पीढ़ी बढ़ती जा रही है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीषाहों और नवसामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा। इस कदम से संसद में कारपोरेट दुनिया के बनिस्पत आम आदमी के सवालों को अधिक जगह मिलेगी। लिहाजा आम आदमी संसद से अपने सरोकारों को समझेगा व ‘‘कोउ नृप हो हमें क्या हानि’’ सोच कर वोट ना देने वाले मध्य वर्ग की मानसकिता भी बदलेगी।
इस समय चुनाव करवाना बेहद खर्चीला होता जा रहा है, तिस पर यदि किसी राज्य में दो चुनाव हो जाएं तो सरकारी खजाने का दम तो निकलता ही ही है, राज्य के काम भी प्रभावित होते हैं। विकास के कई आवष्यक काम भी आचार संहिता के कारण रूके रहते हैं । ऐसे में नए चुनाव सुधारों में तीनों चुनाव(कम से कम दो तो अवष्य) लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय एकसाथ करवाने की व्यवस्था करना जरूरी है। रहा सवाल सदन की स्थिरता को तो उसके लिए एक मामूली कदम उठाया जा सकता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव खुले सदन में वोट की कीमत यानी जो जितने वोट से जीता है, उसके वोट की सदन में उतनी ही अधिक कीमत होगी; के आधार पर पांच साल के लिए हो।
सांसद का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुष भी स्थाई व मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में कम से कम दो प्रतिषत वोट पाने वाले दल को ही सांसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम ‘दिल्ली में घोडा़ मंडी’’ की रोक का सषक्त जरिया बन सकता है। ठीक इसी तरह के बंधन राज्य स्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की षर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याषी लोकतंत्र का मजाक ना बना पाएं। सनद रहे कि 16 से अधिक उम्मीदवार होने पर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मषीन की एक से अधिक यूनिट लगानी पड़ती है, जो खर्चीली भी है और जटिल भी। जमानत जब्त होने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों को अगले दो किसी भी चुनावों में लड़ने से राकना जैसे कुछ कड़े कानून समय की मांग हैं।
मतदाता सूचियों में कमियां होना हरेक चुनाव के दौरान सामने आती हैं। घर-घर जा कर मतदाता सूचियों का पुनररीक्षण एक असफल प्रयोग रहा है। दिल्ली जैसे महानगरों में कई कालोनियां ऐसी हैं जहां गत दो दषकों से कोई मतदाता सूची बनाने नहीं पहुंचा है। देष के प्रत्येक वैध बाषिंदे का मतदाता सूची में नाम हो और वह वोट डालने में सहज महसूस करे; इसके लिए एक तंत्र विकसित करना भी बहुत जरूरी है।
चुनावी खर्च बाबत कानून की ढ़ेरों खामियों को सरकार और सभी सियासती पार्टियां स्वीकार करती हैं । किंतु उनके निदान के सवाल को सदैव खटाई में डाला जाता रहा है । राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुआई में गठित चुनाव सुधारों की कमेटी का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, ईंधन, मतदाता सूचियां, लाउड-स्पीकर आदि मुहैया करवाए जाने चाहिए । ये सिफारिशें कहीं ठडे बस्ते में पड़ी हुई हैं । वैसे भी आज के भ्रष्ट राजनैतिक माहौल में समिति की आदर्श सिफारिशें कतई प्रासंगिक नहीं हैं । इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि नेता महज सरकारी खर्चे पर ही चुनाव लड़ लेंगे या फिर सरकारी पैसे को ईमानदारी से खर्च करेंगे । 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ रहा ।
चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घडि़याली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है । 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है । इस रपट में हरेक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित आॅडिट करवाने के सुझाव थे । 1980 में राजाचलैया समिति ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं । ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके है ।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए । आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित आॅडिट नहीं कराती हैं । अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे । चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाता है तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिर्पोटें जमा करती हैं । आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है । यहां तक कि नई नई राजनीति में आई आम आदमी पार्टी अपने विदेषी चंदे के हिसाब को सबके सामने रखने में गोलमोल कर रही हैं
‘‘भारत में लोकतंत्रात्मक गणराज्य का सपना देखने वाले सेनानियों का मत था कि वोट के लिए निजी अपील करना संसदीय लोकतंत्र और सामूहिक हित की भावना के प्रतिकूल है । वोट मांगने का काम केवल सार्वजनिक सभाओं के जरिए होना चाहिए ।’’ यदि यह सरकार लोकतंत्र की इस मूल भावना को जीवित रखने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन करती है तो आम आदमी खुद को लोकतंत्र के करीब समझेगा।
पंकज चतुर्वेदी ,
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 फोन-9891928376
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