बढ़ती उम्मीदवरी-घटता लेाकतंत्र
पंकज चतुर्वेदी
सोलहवीं लोकसभा के आम चुनाव के लिए बिसात बिछ चुकी है । कुछ लोगों के लिए यह सत्ता हथियाने का पर्व है, तो कुछ लोगों के लिए किसी को नीचे गिराने का साधन । ऐेसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जोकि इसे मखौल मान रहे हैं, या फिर कतिपय नेताओं के लिए ऐसे औजार बन रहे हैं, जो लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार कर उसे कमजोर करने में लगे हैं । कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राषि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयषुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याषी चुनने में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रषासनिक दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याषी चुनावों के दौरान कई गड़बडि़यां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं ।
इस बार तो उम्मीदवारों के पास विकल्पों की कमी नहीं है। कांग्रेस, भाजपा से टिकट ना मिलने की दषा में लोगों के पा सपा, बसपा, राजद, लोजपा सहित कई क्षेत्रीय दलों के विकल्प भी मौजूद है। अब सियासत में विचारधारा के तो कोई मायने रह नहीं गए है। दुष्मन का दुष्मन मेरा दोस्त- बस यही नीति राजनीति बन गई है। लेकिन इसके चलते हमारा लोकतंत्र जाति, क्षेत्र, भाशा, संप्रदाय की छिछली दलदल में धंसता जा रहा है। जब राश्ट्रीय दल आठ हो गए हैं और उन्हें अपनी राश्ट्रीय हैसियत बनाए रखने के लिए वोट जुटाने का दवाब है तो वे भी आंख बंद कर टिकट बांट रहे हैं। जबरदस्ती के उम्मीदवार ना केवल लोकतंत्र का मखौल उड़ाते हैं, वे सरकार का खर्च, मतदाता की मुष्किल में भी इजाफा करते हैं।
स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनावों में केवल 1864 उम्मीदवार मैदान में थे । दूसरे चुनाव(1957) में यह संख्या घट कर 1591 हो गई । लेकिन उसके बाद प्रत्याषियों की संख्या बढ़ती ही गई । सन 1962 के चुनाव में 1985 , 1967 में 2369, 1971 में 2784 उम्मीदवार मैदान में थे । 1977 के आम चुनावों में सभी गैर कांग्रेसी दल एकजु हो गए थे सो उम्मीदवारों की सांख्या घट कर 2439 हो गई थी । एक बार फिर राजनैतिक बिखराव का दौर षुरू हुआ और 1980 के आम चुनावों में 4620 उम्मीदवार खड़े हुए । 1984 के आम चुनावो ंमें 5481, और 1989 में 6160 लोगों ने अपनी किस्मत आजमाई । 1991 के मध्यावधि चुनाव में उम्मीदवारी का आंकड़ा 8699 और अ्रगले चुनाव 1996 में 13,952 पर पहुंच गया । गौरतलब है कि इनमें 10,635 तो निर्दलीय थे, जिनमें से महज आठ ही जीत पाए थे । आंध्रप्रदेष की नालगोंडा सीट की किसी समस्या पर देष का ध्यान आकृश्ट करने के लिए 456 उम्मीदवार मैदान में आ गए थे । पता नहीं कि उनकी समस्या का हल हुआ था कि नहीं, हां, चुनाव का काम जरूर एक समस्या बन गया था ।
उसके बाद उम्मीदवारी के लिए जमानत राषि दस हजार करने व किसी भी उम्मीदवार को दो से अधिक स्थानो से चुनाव लड़ने पर पाबंदी , प्रस्तावक और अनुमोदन करने वालों की संख्या जैसे सुधार लागू किए गए । इसका असर भी दिखा और 1998 के आम चुनावों में 537 सीटों (जम्मू-कष्मीर को छोड़ कर) के लिए 6132 उम्मीदवार मैदान में आए । वैसे गौर करें तो यह संख्या भी अधिक है - एक सीट के लिए औसतन 11 उम्मीदवार ।
सन 2004 के आम चुनावों में छह राश्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दलों के 1351 उम्मीदवार तो मैदान में थे ही क्षेत्रीय दलों के 801, पंजीकृत दलों के 898 और 2385 निर्दलीय भी चुनाव लड़े। इस चुनाव में कुल उम्मीदवारों की संख्या 5435 थी और इसमें आधे से अधिक को जनता ने गंभीरता से लिया ही नहीं। बीते चुनाव में कुल 8070 उम्मीदवार चुनाव लड़े, जिसमें सात राश्ट्रीय दलों के 1623 प्रत्याषी थे। 6053 उम्मीदवार पंजीकृत दलों ने खड़े किए जो सभी हार गए।
उम्मीदवार का बढ़ना यानि मतदता के्रद और गणना स्थल पर प्रत्याषी-प्रतिनिधियों की भीड़, इलेक्ट्रानिक वोटिंग मषीन का आकार या संख्या में बढ़ौतरी, कानून-व्यवस्था के लिए सुरक्षा बलों की संख्या ; और भी ना जाने कितने व्यवधान । पहले दो या तीन मुख्य दल मैदान में होते थे, लेकिन इस बार कांग्रेस, भाजपा, मुलायम सिंह मोर्चा, बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी लगभग सभी सीटों पर हैं । हरियाणा को ही लें वहां चैटाला व बंसीलाल के दल भी मैदान में होंगे । इसके अलावा राश्ट्रीय दल तो हैं ही । एक तो कम मतदान और तिस पर भी मतों का बंटवारा , यानि विजेता उम्मीदवार बामुष्किल 10 प्रतिषतम लोगों का प्रतिनिधित्व करेगा । विचार करें कि क्या लोकतंत्र की परिकल्पना इसी अल्पमत प्रतिनिधि में ही निहित है क्या ?
सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याषी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविषेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजूट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मषीन का आकार बढ़ जाता है । इस बार के चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्धों पर आधारित चुनाव का दावा कर रहे हों, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देष के 200 से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है । कई राज्यों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राश्ट्रीय जनता दल, लोक दल और षिव सेना के प्रत्याषी केवल दूसरों को मजा चखाने के लिए ही खड़े हैं ।
ऐसे भी लोगों की संख्या कम नहीं है, जोकि स्थानीय प्रषासन या राजनीति में अपना रसूख दिखानेभर के लिए पर्चा भरते हैं । ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जबकि मात्र नामांकन दाखिल कर कुछ लोग लाखों के वारे-न्यारे कर लेते हैं । मध्यप्रदेष के खजुराहो संसदीय क्षेत्र में एक नेताजी ऐसे हैं, जोकि गत 20 सालों से नगर पालिका से लेकर लोकसभा तक के सभी चुनावों में प्रत्याषी होते हैं । कुछ साल पहले उनकी छतरपुर बस स्टेड के पास गाडियों का पंचर जोड़ने की अस्थाई गुमटी हेाती थी, लेकिन आज उसी सरकारी जमीन पर उनकी आधा दर्जन दुकाने हैं । अब जब भी कोई चुनाव आता है, लोग समझजाते हंै कि नेताजी की एक दुकान और बनने वाली है ।
बहुत से राजनैतिक दल राश्ट्रीय या राज्य स्तर की मान्यता पाने के लिए निधार्रित मत-प्रतिषत पाना चाहते हैं । इस फिराक में वे आंख बंद कर प्रत्याषी मैदान में उतार देते हैं । जेल में बंद कुख्यात अपराधियों का जमानत पाने या फिर कारावास की चारदीवारी से बाहर निकलने के बहानों के रूप् में या फिर मुकदमें के गवाहों व तथ्यों को प्रभावित करने के लिए चुनाव में पर्चा भरना भी एक आम हथकंडा है ।
लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि का ओहदा पाने का अधिकार प्रत्येक नागरिक का है । लेकिन महज अपने अहमं की तुश्टि के लिए पर्चा भर देना लोकतंत्र की खिल्ली उड़ाना ही है । दूसरी तरफ यह जांच करना बेहद कठिन है कि कौन उम्मीदवार गंभीर है और कौन वोट काटू । विषेशरूप से जब संसद के चुनावों में बहुकोणीय मुकाबले त्रिषंकु व अस्थिर सदन का खतरा खड़ा कर रहे हों । ऐसे में केवल राश्ट्रीय पार्टियों को लोकसभा का चुनाव लड़ने की अनुमति देना, उम्मीदवार का पूर्व में किसी छोटे चुनाव में कुछ निधार्रित वोट पाने की बाध्यता या फिर न्यूनतम षैक्षिक व अनुभव की अनिवार्यता, संसदीय क्षेत्र के मतदान केंद्रों की संख्या के अनुसार प्रस्तावक-समर्थकों की सूची देना जैसे कदमों को उठाया जाना चाहिए । एक बार किसी चुनाव में निर्धारित मत ना पाने वाले को अगले कुछ चुनावों में खड़ा होने से रोकने पर भी विचार किया जा सकता है । यह सही मौका है, जब लोकतंत्र प्रेमी जनता सभी राजनैतिक दलों पर इस तरह के चुनाव सुधारों का समर्थन करने के लिए दवाब बना सकती है ।
पंकज चतुर्वेदी
पंकज चतुर्वेदी
सोलहवीं लोकसभा के आम चुनाव के लिए बिसात बिछ चुकी है । कुछ लोगों के लिए यह सत्ता हथियाने का पर्व है, तो कुछ लोगों के लिए किसी को नीचे गिराने का साधन । ऐेसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जोकि इसे मखौल मान रहे हैं, या फिर कतिपय नेताओं के लिए ऐसे औजार बन रहे हैं, जो लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार कर उसे कमजोर करने में लगे हैं । कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राषि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयषुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याषी चुनने में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रषासनिक दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याषी चुनावों के दौरान कई गड़बडि़यां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं ।
इस बार तो उम्मीदवारों के पास विकल्पों की कमी नहीं है। कांग्रेस, भाजपा से टिकट ना मिलने की दषा में लोगों के पा सपा, बसपा, राजद, लोजपा सहित कई क्षेत्रीय दलों के विकल्प भी मौजूद है। अब सियासत में विचारधारा के तो कोई मायने रह नहीं गए है। दुष्मन का दुष्मन मेरा दोस्त- बस यही नीति राजनीति बन गई है। लेकिन इसके चलते हमारा लोकतंत्र जाति, क्षेत्र, भाशा, संप्रदाय की छिछली दलदल में धंसता जा रहा है। जब राश्ट्रीय दल आठ हो गए हैं और उन्हें अपनी राश्ट्रीय हैसियत बनाए रखने के लिए वोट जुटाने का दवाब है तो वे भी आंख बंद कर टिकट बांट रहे हैं। जबरदस्ती के उम्मीदवार ना केवल लोकतंत्र का मखौल उड़ाते हैं, वे सरकार का खर्च, मतदाता की मुष्किल में भी इजाफा करते हैं।
स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनावों में केवल 1864 उम्मीदवार मैदान में थे । दूसरे चुनाव(1957) में यह संख्या घट कर 1591 हो गई । लेकिन उसके बाद प्रत्याषियों की संख्या बढ़ती ही गई । सन 1962 के चुनाव में 1985 , 1967 में 2369, 1971 में 2784 उम्मीदवार मैदान में थे । 1977 के आम चुनावों में सभी गैर कांग्रेसी दल एकजु हो गए थे सो उम्मीदवारों की सांख्या घट कर 2439 हो गई थी । एक बार फिर राजनैतिक बिखराव का दौर षुरू हुआ और 1980 के आम चुनावों में 4620 उम्मीदवार खड़े हुए । 1984 के आम चुनावो ंमें 5481, और 1989 में 6160 लोगों ने अपनी किस्मत आजमाई । 1991 के मध्यावधि चुनाव में उम्मीदवारी का आंकड़ा 8699 और अ्रगले चुनाव 1996 में 13,952 पर पहुंच गया । गौरतलब है कि इनमें 10,635 तो निर्दलीय थे, जिनमें से महज आठ ही जीत पाए थे । आंध्रप्रदेष की नालगोंडा सीट की किसी समस्या पर देष का ध्यान आकृश्ट करने के लिए 456 उम्मीदवार मैदान में आ गए थे । पता नहीं कि उनकी समस्या का हल हुआ था कि नहीं, हां, चुनाव का काम जरूर एक समस्या बन गया था ।
उसके बाद उम्मीदवारी के लिए जमानत राषि दस हजार करने व किसी भी उम्मीदवार को दो से अधिक स्थानो से चुनाव लड़ने पर पाबंदी , प्रस्तावक और अनुमोदन करने वालों की संख्या जैसे सुधार लागू किए गए । इसका असर भी दिखा और 1998 के आम चुनावों में 537 सीटों (जम्मू-कष्मीर को छोड़ कर) के लिए 6132 उम्मीदवार मैदान में आए । वैसे गौर करें तो यह संख्या भी अधिक है - एक सीट के लिए औसतन 11 उम्मीदवार ।
सन 2004 के आम चुनावों में छह राश्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दलों के 1351 उम्मीदवार तो मैदान में थे ही क्षेत्रीय दलों के 801, पंजीकृत दलों के 898 और 2385 निर्दलीय भी चुनाव लड़े। इस चुनाव में कुल उम्मीदवारों की संख्या 5435 थी और इसमें आधे से अधिक को जनता ने गंभीरता से लिया ही नहीं। बीते चुनाव में कुल 8070 उम्मीदवार चुनाव लड़े, जिसमें सात राश्ट्रीय दलों के 1623 प्रत्याषी थे। 6053 उम्मीदवार पंजीकृत दलों ने खड़े किए जो सभी हार गए।
उम्मीदवार का बढ़ना यानि मतदता के्रद और गणना स्थल पर प्रत्याषी-प्रतिनिधियों की भीड़, इलेक्ट्रानिक वोटिंग मषीन का आकार या संख्या में बढ़ौतरी, कानून-व्यवस्था के लिए सुरक्षा बलों की संख्या ; और भी ना जाने कितने व्यवधान । पहले दो या तीन मुख्य दल मैदान में होते थे, लेकिन इस बार कांग्रेस, भाजपा, मुलायम सिंह मोर्चा, बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी लगभग सभी सीटों पर हैं । हरियाणा को ही लें वहां चैटाला व बंसीलाल के दल भी मैदान में होंगे । इसके अलावा राश्ट्रीय दल तो हैं ही । एक तो कम मतदान और तिस पर भी मतों का बंटवारा , यानि विजेता उम्मीदवार बामुष्किल 10 प्रतिषतम लोगों का प्रतिनिधित्व करेगा । विचार करें कि क्या लोकतंत्र की परिकल्पना इसी अल्पमत प्रतिनिधि में ही निहित है क्या ?
सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याषी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविषेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजूट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मषीन का आकार बढ़ जाता है । इस बार के चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्धों पर आधारित चुनाव का दावा कर रहे हों, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देष के 200 से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है । कई राज्यों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राश्ट्रीय जनता दल, लोक दल और षिव सेना के प्रत्याषी केवल दूसरों को मजा चखाने के लिए ही खड़े हैं ।
ऐसे भी लोगों की संख्या कम नहीं है, जोकि स्थानीय प्रषासन या राजनीति में अपना रसूख दिखानेभर के लिए पर्चा भरते हैं । ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जबकि मात्र नामांकन दाखिल कर कुछ लोग लाखों के वारे-न्यारे कर लेते हैं । मध्यप्रदेष के खजुराहो संसदीय क्षेत्र में एक नेताजी ऐसे हैं, जोकि गत 20 सालों से नगर पालिका से लेकर लोकसभा तक के सभी चुनावों में प्रत्याषी होते हैं । कुछ साल पहले उनकी छतरपुर बस स्टेड के पास गाडियों का पंचर जोड़ने की अस्थाई गुमटी हेाती थी, लेकिन आज उसी सरकारी जमीन पर उनकी आधा दर्जन दुकाने हैं । अब जब भी कोई चुनाव आता है, लोग समझजाते हंै कि नेताजी की एक दुकान और बनने वाली है ।
बहुत से राजनैतिक दल राश्ट्रीय या राज्य स्तर की मान्यता पाने के लिए निधार्रित मत-प्रतिषत पाना चाहते हैं । इस फिराक में वे आंख बंद कर प्रत्याषी मैदान में उतार देते हैं । जेल में बंद कुख्यात अपराधियों का जमानत पाने या फिर कारावास की चारदीवारी से बाहर निकलने के बहानों के रूप् में या फिर मुकदमें के गवाहों व तथ्यों को प्रभावित करने के लिए चुनाव में पर्चा भरना भी एक आम हथकंडा है ।
लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि का ओहदा पाने का अधिकार प्रत्येक नागरिक का है । लेकिन महज अपने अहमं की तुश्टि के लिए पर्चा भर देना लोकतंत्र की खिल्ली उड़ाना ही है । दूसरी तरफ यह जांच करना बेहद कठिन है कि कौन उम्मीदवार गंभीर है और कौन वोट काटू । विषेशरूप से जब संसद के चुनावों में बहुकोणीय मुकाबले त्रिषंकु व अस्थिर सदन का खतरा खड़ा कर रहे हों । ऐसे में केवल राश्ट्रीय पार्टियों को लोकसभा का चुनाव लड़ने की अनुमति देना, उम्मीदवार का पूर्व में किसी छोटे चुनाव में कुछ निधार्रित वोट पाने की बाध्यता या फिर न्यूनतम षैक्षिक व अनुभव की अनिवार्यता, संसदीय क्षेत्र के मतदान केंद्रों की संख्या के अनुसार प्रस्तावक-समर्थकों की सूची देना जैसे कदमों को उठाया जाना चाहिए । एक बार किसी चुनाव में निर्धारित मत ना पाने वाले को अगले कुछ चुनावों में खड़ा होने से रोकने पर भी विचार किया जा सकता है । यह सही मौका है, जब लोकतंत्र प्रेमी जनता सभी राजनैतिक दलों पर इस तरह के चुनाव सुधारों का समर्थन करने के लिए दवाब बना सकती है ।
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