असम की हिंसा को सांप्रदायिक रंग ना दें !
पंकज चतुर्वेदी
अभी सितंबर 2012 के नरसंहार के दर्द व डर से लोग उबर नहीं पाए थे कि असम का बोडो बाहुल्य इलाका एक बार फिर रक्तपात से दहल गया। याद करें उस समय कोई साढे चार लाख लोग विस्थापित हुए थे और उनमें से आधे के जीवन से अभी भी रोजगार, षिक्षा, मकान आदि नदारद हैं । कुछ लोग भले ही इस हिंसा को सांप्रदायिक चष्मे से देख रहे हों, लेकिन यह समस्या अवैध घुसपैठियों की है। हिंसा का मूल भले ही चुनाव में बोडो उम्मीदवार की हार का अंदेषा हो, लेकिन असल में इसके मूल में कोई 28 साल पहले अषांत राज्य की आग षांत करने के लिए हुए समझौते के क्रियान्वयन में बेईमानी है। केंद्र व राज्य सरकार का वादा-खिलाफी का जो रवैया रहा है, उससे तो यही लगता है कि भड़कती अंगारों पर यदि राख जम जाए तो उन्हें षंात नहीं माना जा सकता। असम की असली समस्या घुसपैठियों की बढ़ती संख्या है, असल में यह असम ही नहीं पूरे देष की समस्या है। असम में वनोपज, तेल जैसे बेषकीमती भंडार भी हैं। यहां किसी भी तरह की अषांति पूरे पूर्वोत्तर के लिए बेहद खतरनाक है।
बोडो अलगाववादियों को अलग-थलग करने के लिए कुछ साल पहले सरकार ने बीटीएडी यानि बोडो टेरीटोरियल एडमिनिस्ट्रेटिव डिस्टीªक्ट का गठन किया गया था, जिसमें कोकराझार, बाक्सा, उदालगुडी और चिरांग जिले षामिल हैं । असल में यह इलाका बीते कई सालों से बोडो लोगों की आबादी घटने से सुलग रहा है। यह भी जानना जरूरी है कि इलाके के अधिकांष बोडो लोग ईसाई हैं । यहां घुसपैठिये बढ रहे हैं। कोकराझार सीट पर इस बार तीन -तीन बोडो उम्मीदवार खडे हो गए। जबकि एक गैर बोडो व पूर्व उल्फा कमांडर हीरा सारानिया निर्दलीय खडा हो गया। कहा जाता है कि इलाके के मुसलमानों ने सारानिया को वोट कर दिया, जबकि बोडो वोट तीन हिस्सों में बंट गया। असम की कांग्रेस सरकार में साझेदार व बीटीएफ की विधायक प्रमिला रानी ने 30 अप्रैल को बयान दिया कि मुसलमानों द्वारा हीरा सारानिया को वोट देने से पहली बार यहां की लाकसभा सीट किसी गैर बोडो के पास होगी और दो मई को ही कई गांवों में आगजनी, एके-47 से गोलीबारी , लूट-खसोट हो गई। कुछ इलाकों में बांग्लाभाशी मुसलमानों ने भी बोडो लेागों पर हमले किए। यही नहीं लोगों को एक तेज बहाव वाली नदी के किनारे ले जा कर अंधाधुंध गोलियां चलाई गई, कई सौ लोग नदी में कूद गए, अभी तक षव निकालने का काम चल रहा है और अंदाज है कि सौ से ज्यादा लोग तेज बहाव में गुम हो गए हैं। आरेाप है कि इस कत्लेआम के पीछे एनडीबीएफ(संगकिपित गुट) का हाथ है। उधर एनडीबीएफ किसी भी नरसंहार में षामिल होने से इंकार कर रही है। यहां यह जानना जरूरी है कि असम के आंचलिक क्षेत्रों में मुसलमान सदियों से हैं और अभी तीन दषक पहले तक जोरहाट जैसे जिलों में हर धर्म की बच्चियां मदरसों में जा कर ही अपनी प्राथमिक षिक्षा लेती थीं। यहां के मुसलमान दो तरह के हैं - असमियाभाशी मुसलमान और बांग्लाभाशी मुसलमान। कहा जाता है कि बांग्लाभाशी मुसलमान अवैध घुसपैठिए हैं।
असम के मूल निवासियों की बीते कई दषकों से मांग है कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए लोगों की पहचान कर उन्हें वहां से वापिस भेजा जाए। इस मांग को ले कर आल असम स्टुडंेट यूनियन(आसू) की अगुवाई में सन 1979 में एक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था, जिसमें सत्याग्रह, बहिष्कार, धरना और गिरफ्तारियां दी गई थीं। आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कार्यवाही के बाद हालात और बिगड़े। 1983 में हुए चुनावों का इस आंदोलन के नेताओं ने विरोध किया। चुनाव के बाद जम कर हिंसा शुरू हो गई। इस हिंसा का अंत केंद्र सरकार के साथ 15 अगस्त 1985 को हुए एक समझौते (जिसे असम समझौता कहा जाता है) के साथ हुआ। इस समझौते के अनुसार जनवरी-1966 से मार्च- 1971 के बीच प्रदेश में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी, लेकिन उन्हें आगामी दस साल तक वोट देने का अधिकार नहीं था। समझौते में केंद्र सरकार ने यह भी स्वीकार किया था कि सन 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को वापिस अपने देश जाना होगा। इसके बाद आसू की सरकार भी बनीं। लेकिन इस समझौते को पूरे 28 साल बीत गए हैं और विदेषियों- बांग्लादेषी व म्यांमार से अवैध घुसपैठ जारी है। यही नहीं ये विदेषी बाकायदा अपनी भारतीय नागरिकता के दस्तावेज भी बनवा रहे हैं।
यह एक विडंबना है कि बांग्लादेष को छूती हमारी 170 किलोमीटर की जमीनी और 92 किमी की जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसी का फायदा उठा कर बांग्लादेष के लोग बेखौफ यहां आ रहे हैं, बस रहे हैं और अपराध भी कर रहे हैं। हमारा कानून इतना लचर है कि अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेषी घोशित कर देती है, लेकिन बांग्लादेष की सरकार यह कह कर उसे वापिस लेने से इंकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं हैं। असम में बाहरी घुसपैठ एक सदी से पुरानी समस्या है। सन 1901 से 1941 के बीच भारत(संयुक्त) की आबादी में बृद्धि की दर जहां 33.67 प्रतिषत थी, वहीं असम में यह दर 103.51 फीसदी दर्ज की गई थी। सन 1921 में विदेषी सेना द्वारा गोलपाड़ा पर कब्जा करने के बाद ही असम के कामरूप, दरांग, सिबसागर जिलो में म्यांमार व अन्य देषों से लोगों की भीड़ आना षुरू हो गया था। सन 1931 की जनगणना में साफ लिखा था कि आगामी 30 सालों में असम में केवल सिवसागर ऐसा जिला होगा, जहां असम मूल के लोगों की बहुसंख्यक आबादी होगी।
असम में विदेषियों के षरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है - 1971 की लड़ाई या बांग्लादेष बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 से 1971 के बीच 37 लाख सत्तावन हजार बांग्लादेषी , जिनमें अधिकांष मुसलमान हैं, अवैध रूप से अंसम में घुसे व यहीं बस गए। सन 70 के आसपास अवैध षरणार्थियों को भगाने के कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के 33 मुस्लिम विधायाकें ने देवकांत बरूआ की अगुवाई में मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ ही आवाज उठा दी। उसके बाद कभी किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई। षुरू में कहा गया कि असम में ऐसी जमीन बहुत सी है, जिस पर ख्ेाती नहीं होती है और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे ही देष का भला कर रहे हैं। लेकिन आज हालात इतने बदतर है कि कांजीरंगा नेषनल पार्क को छूती कई सौ किलोमीटर के नेषनल हाईवे पर दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जनमें ये बिन बुलाए मेहमान डेरा डाले हुए हैं। सनद रहे इस साल के अभी तक के नौ महीनों में कांजीरंगा में चालीस एक सींग वाले गैंडे मारे जा चुके हैं और वन महकमा दबी जुबान से मानता है कि इस अपराण के मूल में यही घुसपैठिये हैं।
इन अवांछित बांिषदों के कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने बदतर हैं कि कुछ साल पहले राज्य के तत्कालीन राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी ले.ज. एस.के. सिन्हा ने राश्ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेषियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसे तलाषना व फिर वापिस भेजने के लायक हमारे पास मषीनरी नहीं है।
उल्फा से हथियार डलवा कर तो सरकार ने भले ही कुछ तात्कालीक षांति ला दी थी, लेकिन जब-जब राज्य के मूल बाषिंदों को बिजली, पानी व अन्य मूलभूत जरूरतों की कमी खटकेगी, उन्हें महसूस होगा कि उनकी सुविधाओं पर डाका डालने वाले देष के अवैध नागरिक हैं, आंदोलन फिर होंगे, हिंसा फिर होगी; आखिर यह एक संस्कृति-सभ्यता के अस्तित्व का मामला जो है। हां यह बात है कि उनको भडकाने वाले दीगर सियासतदां होते हैं, कुछ स्वार्थी तत्व और आईएसआई भी।
सरकार में बैठे लोगों को भी यह विचारना होगा कि किसी समझौते को लागू करने में 28 साल का समय कम नहीं होता है और यह वादा-खिलाफी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं। एक बात और , दिल्ली या राश्ट्रीय मीडिया के लिए असम की इस तरह की खबरें गैरजरूरी सी प्रतीत होती है- वहां होने वाली हिंसा की खबरें जरूर यदा-कदा सुर्खियों में रहती हैं, लेकिन हिंसा के क्या कारण हैं उसे जानने के लिए कभी कोई हकीकत को कुरेदने का प्रयास नहीं करता है। अभी एक साल भी नहीं बीता है जब बोडो व बाहरी मुसलमानों के बीच संघर्श में कई सौ लोग मारे गए थे। असल में वह दंगा या पुलिस डायरी का अपराध मात्र नहीं था, वह संस्कृतियों के टकराव का विद्रूप चैहरा था और उसके कारकों को सरकार नजरअंदाज कर रही है।
यही कारण है कि एकबारगी दवाब बना कर सरकार कुछ संगठनों को हिंसा त्यागने पर मजबूर करती है तो वादाखिलाफी से त्रस्त कोई दूसरे युवा हथियार उठा लेते हैं। लब्बोलुवाब यह है कि यदि वहां स्थाई षांति चाहिए तो घुसपैठियों की समस्या का सटीक व त्वरित हल खोजना जरूरी है।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद-201005
संपर्क 9891928376
पंकज चतुर्वेदी
द सी एक्सप्रसे, आगरा 11 मई 2014 |
अभी सितंबर 2012 के नरसंहार के दर्द व डर से लोग उबर नहीं पाए थे कि असम का बोडो बाहुल्य इलाका एक बार फिर रक्तपात से दहल गया। याद करें उस समय कोई साढे चार लाख लोग विस्थापित हुए थे और उनमें से आधे के जीवन से अभी भी रोजगार, षिक्षा, मकान आदि नदारद हैं । कुछ लोग भले ही इस हिंसा को सांप्रदायिक चष्मे से देख रहे हों, लेकिन यह समस्या अवैध घुसपैठियों की है। हिंसा का मूल भले ही चुनाव में बोडो उम्मीदवार की हार का अंदेषा हो, लेकिन असल में इसके मूल में कोई 28 साल पहले अषांत राज्य की आग षांत करने के लिए हुए समझौते के क्रियान्वयन में बेईमानी है। केंद्र व राज्य सरकार का वादा-खिलाफी का जो रवैया रहा है, उससे तो यही लगता है कि भड़कती अंगारों पर यदि राख जम जाए तो उन्हें षंात नहीं माना जा सकता। असम की असली समस्या घुसपैठियों की बढ़ती संख्या है, असल में यह असम ही नहीं पूरे देष की समस्या है। असम में वनोपज, तेल जैसे बेषकीमती भंडार भी हैं। यहां किसी भी तरह की अषांति पूरे पूर्वोत्तर के लिए बेहद खतरनाक है।
DAILY NEWS JAIPUR 15-5-14http://dailynewsnetwork.epapr.in/271284/Daily-news/12-05-2014#page/8/1 |
बोडो अलगाववादियों को अलग-थलग करने के लिए कुछ साल पहले सरकार ने बीटीएडी यानि बोडो टेरीटोरियल एडमिनिस्ट्रेटिव डिस्टीªक्ट का गठन किया गया था, जिसमें कोकराझार, बाक्सा, उदालगुडी और चिरांग जिले षामिल हैं । असल में यह इलाका बीते कई सालों से बोडो लोगों की आबादी घटने से सुलग रहा है। यह भी जानना जरूरी है कि इलाके के अधिकांष बोडो लोग ईसाई हैं । यहां घुसपैठिये बढ रहे हैं। कोकराझार सीट पर इस बार तीन -तीन बोडो उम्मीदवार खडे हो गए। जबकि एक गैर बोडो व पूर्व उल्फा कमांडर हीरा सारानिया निर्दलीय खडा हो गया। कहा जाता है कि इलाके के मुसलमानों ने सारानिया को वोट कर दिया, जबकि बोडो वोट तीन हिस्सों में बंट गया। असम की कांग्रेस सरकार में साझेदार व बीटीएफ की विधायक प्रमिला रानी ने 30 अप्रैल को बयान दिया कि मुसलमानों द्वारा हीरा सारानिया को वोट देने से पहली बार यहां की लाकसभा सीट किसी गैर बोडो के पास होगी और दो मई को ही कई गांवों में आगजनी, एके-47 से गोलीबारी , लूट-खसोट हो गई। कुछ इलाकों में बांग्लाभाशी मुसलमानों ने भी बोडो लेागों पर हमले किए। यही नहीं लोगों को एक तेज बहाव वाली नदी के किनारे ले जा कर अंधाधुंध गोलियां चलाई गई, कई सौ लोग नदी में कूद गए, अभी तक षव निकालने का काम चल रहा है और अंदाज है कि सौ से ज्यादा लोग तेज बहाव में गुम हो गए हैं। आरेाप है कि इस कत्लेआम के पीछे एनडीबीएफ(संगकिपित गुट) का हाथ है। उधर एनडीबीएफ किसी भी नरसंहार में षामिल होने से इंकार कर रही है। यहां यह जानना जरूरी है कि असम के आंचलिक क्षेत्रों में मुसलमान सदियों से हैं और अभी तीन दषक पहले तक जोरहाट जैसे जिलों में हर धर्म की बच्चियां मदरसों में जा कर ही अपनी प्राथमिक षिक्षा लेती थीं। यहां के मुसलमान दो तरह के हैं - असमियाभाशी मुसलमान और बांग्लाभाशी मुसलमान। कहा जाता है कि बांग्लाभाशी मुसलमान अवैध घुसपैठिए हैं।
असम के मूल निवासियों की बीते कई दषकों से मांग है कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए लोगों की पहचान कर उन्हें वहां से वापिस भेजा जाए। इस मांग को ले कर आल असम स्टुडंेट यूनियन(आसू) की अगुवाई में सन 1979 में एक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था, जिसमें सत्याग्रह, बहिष्कार, धरना और गिरफ्तारियां दी गई थीं। आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कार्यवाही के बाद हालात और बिगड़े। 1983 में हुए चुनावों का इस आंदोलन के नेताओं ने विरोध किया। चुनाव के बाद जम कर हिंसा शुरू हो गई। इस हिंसा का अंत केंद्र सरकार के साथ 15 अगस्त 1985 को हुए एक समझौते (जिसे असम समझौता कहा जाता है) के साथ हुआ। इस समझौते के अनुसार जनवरी-1966 से मार्च- 1971 के बीच प्रदेश में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी, लेकिन उन्हें आगामी दस साल तक वोट देने का अधिकार नहीं था। समझौते में केंद्र सरकार ने यह भी स्वीकार किया था कि सन 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को वापिस अपने देश जाना होगा। इसके बाद आसू की सरकार भी बनीं। लेकिन इस समझौते को पूरे 28 साल बीत गए हैं और विदेषियों- बांग्लादेषी व म्यांमार से अवैध घुसपैठ जारी है। यही नहीं ये विदेषी बाकायदा अपनी भारतीय नागरिकता के दस्तावेज भी बनवा रहे हैं।
यह एक विडंबना है कि बांग्लादेष को छूती हमारी 170 किलोमीटर की जमीनी और 92 किमी की जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसी का फायदा उठा कर बांग्लादेष के लोग बेखौफ यहां आ रहे हैं, बस रहे हैं और अपराध भी कर रहे हैं। हमारा कानून इतना लचर है कि अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेषी घोशित कर देती है, लेकिन बांग्लादेष की सरकार यह कह कर उसे वापिस लेने से इंकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं हैं। असम में बाहरी घुसपैठ एक सदी से पुरानी समस्या है। सन 1901 से 1941 के बीच भारत(संयुक्त) की आबादी में बृद्धि की दर जहां 33.67 प्रतिषत थी, वहीं असम में यह दर 103.51 फीसदी दर्ज की गई थी। सन 1921 में विदेषी सेना द्वारा गोलपाड़ा पर कब्जा करने के बाद ही असम के कामरूप, दरांग, सिबसागर जिलो में म्यांमार व अन्य देषों से लोगों की भीड़ आना षुरू हो गया था। सन 1931 की जनगणना में साफ लिखा था कि आगामी 30 सालों में असम में केवल सिवसागर ऐसा जिला होगा, जहां असम मूल के लोगों की बहुसंख्यक आबादी होगी।
असम में विदेषियों के षरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है - 1971 की लड़ाई या बांग्लादेष बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 से 1971 के बीच 37 लाख सत्तावन हजार बांग्लादेषी , जिनमें अधिकांष मुसलमान हैं, अवैध रूप से अंसम में घुसे व यहीं बस गए। सन 70 के आसपास अवैध षरणार्थियों को भगाने के कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के 33 मुस्लिम विधायाकें ने देवकांत बरूआ की अगुवाई में मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ ही आवाज उठा दी। उसके बाद कभी किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई। षुरू में कहा गया कि असम में ऐसी जमीन बहुत सी है, जिस पर ख्ेाती नहीं होती है और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे ही देष का भला कर रहे हैं। लेकिन आज हालात इतने बदतर है कि कांजीरंगा नेषनल पार्क को छूती कई सौ किलोमीटर के नेषनल हाईवे पर दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जनमें ये बिन बुलाए मेहमान डेरा डाले हुए हैं। सनद रहे इस साल के अभी तक के नौ महीनों में कांजीरंगा में चालीस एक सींग वाले गैंडे मारे जा चुके हैं और वन महकमा दबी जुबान से मानता है कि इस अपराण के मूल में यही घुसपैठिये हैं।
इन अवांछित बांिषदों के कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने बदतर हैं कि कुछ साल पहले राज्य के तत्कालीन राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी ले.ज. एस.के. सिन्हा ने राश्ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेषियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसे तलाषना व फिर वापिस भेजने के लायक हमारे पास मषीनरी नहीं है।
उल्फा से हथियार डलवा कर तो सरकार ने भले ही कुछ तात्कालीक षांति ला दी थी, लेकिन जब-जब राज्य के मूल बाषिंदों को बिजली, पानी व अन्य मूलभूत जरूरतों की कमी खटकेगी, उन्हें महसूस होगा कि उनकी सुविधाओं पर डाका डालने वाले देष के अवैध नागरिक हैं, आंदोलन फिर होंगे, हिंसा फिर होगी; आखिर यह एक संस्कृति-सभ्यता के अस्तित्व का मामला जो है। हां यह बात है कि उनको भडकाने वाले दीगर सियासतदां होते हैं, कुछ स्वार्थी तत्व और आईएसआई भी।
सरकार में बैठे लोगों को भी यह विचारना होगा कि किसी समझौते को लागू करने में 28 साल का समय कम नहीं होता है और यह वादा-खिलाफी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं। एक बात और , दिल्ली या राश्ट्रीय मीडिया के लिए असम की इस तरह की खबरें गैरजरूरी सी प्रतीत होती है- वहां होने वाली हिंसा की खबरें जरूर यदा-कदा सुर्खियों में रहती हैं, लेकिन हिंसा के क्या कारण हैं उसे जानने के लिए कभी कोई हकीकत को कुरेदने का प्रयास नहीं करता है। अभी एक साल भी नहीं बीता है जब बोडो व बाहरी मुसलमानों के बीच संघर्श में कई सौ लोग मारे गए थे। असल में वह दंगा या पुलिस डायरी का अपराध मात्र नहीं था, वह संस्कृतियों के टकराव का विद्रूप चैहरा था और उसके कारकों को सरकार नजरअंदाज कर रही है।
यही कारण है कि एकबारगी दवाब बना कर सरकार कुछ संगठनों को हिंसा त्यागने पर मजबूर करती है तो वादाखिलाफी से त्रस्त कोई दूसरे युवा हथियार उठा लेते हैं। लब्बोलुवाब यह है कि यदि वहां स्थाई षांति चाहिए तो घुसपैठियों की समस्या का सटीक व त्वरित हल खोजना जरूरी है।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद-201005
संपर्क 9891928376
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