मुद्दा पंकज चतुव्रेदी
दिल्ली की ठसाठस भरी बसों में बेसुरे स्वर में गाना गाकर भीख मांगते बच्चों को सुन अब शायद ही किसी के दिल में कसक उठती हो। चीथड़ों में लिपटे और नंगे पैर चार से आठ-दस साल की उम्र के ये बच्चे भोर होते ही बसों में गाने लगते हैं। गाना पूरा करने के बाद दुत्कार के साथ कुछ एक से पैसा मिल जाने की खुशी भले ही इन्हें होती हो, लेकिन यह खुशी इस देश के लिए कितनी महंगी पड़ेगी, इस पर गौर करने का कष्ट कोई भी शासकीय या स्वयंसेवी संगठन नहीं कर रहा है। देश की कुल आबादी का 21.87 फीसद यह वर्ग आने वाले दिनों में किस भारत का निर्माण करेगा, इस पर हर तरफ चुप्पी है । ट्रेन-बस में भौडी आवाज में गाना गाने के अलावा, इन मासूमों का इस्तेमाल और भी तरीकों से होता है। कुछ बच्चे (विशेषकर लड़कियां) भीड़ में पर्चा बांटती दिखेंगी कि वह गूंगी है, उसकी मदद करनी चाहिए। छोटे बच्चों को बीच सड़क पर लिटाकर बीमार होने या मर जाने का नाटक कर पैसे ऐंठने का खेल अब छोटे-छोटे कस्बों तक फैल गया है। मथुरा, काशी सरीखे धार्मिक स्थानों पर बाल ब्रrाचारियों के फेर में भिक्षावृत्ति जोरों पर है। इसके अलावा जादू या सांपने वले का खेल दिखाने वाले मदारी के जमूरे, सेकेंड क्लास डिब्बों में झाडू लगा व क्रासिंग पर कार-स्कूटर की धूल झाड़ने जैसे कायार्ें के जरिए या सीधे भीख मांगते बच्चे सरेआम मिल जाएंगे। अनुमान है कि देश में कोई पचास लाख बच्चे हाथ फैलाए एक अकर्मण्य व श्रमहीन भारत की नींव रख रहे हैं। सत्तर के दशक में देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ ऐसे गिरोहों का पर्दाफाश हुआ था, जो अच्छे-भले बच्चों का अपहरण कर उन्हें लोमहर्षक तरीके से विकलांग बना भीख मंगवाते थे। यह दानव बच्चों की खरीद-फरोख्त भी करते थे लेकिन नब्बे का दशक आते-आते इस समस्या का रंग-ढंग बदल गया है। ऐसे गिरोहों के अलावा महानगरों में ‘झुग्गी संस्कृति’ से अनाचार-कदाचार के जो रक्तबीज प्रसवित हुए, उनमें अब अपने सगे ही बच्चों को भिक्षावृत्ति में धकेल रहे हैं। हारमोनियम लेकर बसों में भीख मांगने वाले एक बच्चे से बात करने पर पता चला कि उसके मां-बाप उसे सुबह छह बजे जगा देते हैं। बगैर मंजन-कुल्ला या स्नान के इनको ऐसे बस रूटों की ओर धकेल दिया जाता है, जहां दफ्तर जाने वालों की बहुतायत होती है। भूखे पेट बच्चे दिन में 12 बजे तक एक बस से दूसरी बस में चढ़कर वही अलापते रहते हैं। फिर ये शाम 4.30 बजे से 8.00 बजे तक बसों के चक्कर काटते हैं। रोजाना औसतन 50 से 75 रुपये एक संगीत पार्टी कमा लेती है। ये भिखारी ज्यादातर फुटपाथों पर ही रहते हैं। मां जहां भीख मांगती फिरती है, वहीं बाप नशा करके दिन काट देता है। जाहिर है नशा खरीदने के लिए पैसे बच्चों की मशक्कत से ही आते हैं । यह भी देखा गया है कि भीख मांगने वाली लड़कियां 14 वर्ष की होते-होते मां बन जाती हैं और दुबली पतली देह पर एक मरगिल्ला सा बच्चा आय का अच्छा ‘एक्सपोजर’
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बन जाता है। आंख खुलने ही हिकारत, तिरस्कार और श्रम के अवमूल्यन की भावना के शिकार ये बच्चे किस हद तक कुंठित होते हैं, इसका मार्मिक उदाहरण दिल्ली के एक मध्यम वर्ग कालोनी के बगीचे में बच्चों के बीच हो रही तकरार का यह वाकिया है। कुछ भिखारी बच्चे (उम्र सात से नौ वर्ष,) कालोनी के झूले पर झूलने लगे। कालोनी के उतनी उम्र के बच्चे झूला खाली कराना चाहते थे। भिखारी लड़की गुस्से में कहती है,‘भगवान करे तुम्हारा भी बाप मर जाए। जब किसी का बाप मरता है तो मुझे बड़ी खुशी होती हैं।’ कालोनी के बच्चे ने कहा ‘तुझसे क्या मुंह लगें, तू तो फुटपाथ पर सोती है।’ ‘एक दिन फुटपाथ पर सोकर देख ले, पता चल जाएगा।’ मुश्किल से नौ साल की इस भिखारी लड़की के दिल में समाज और असमानता को लेकर भरा जहर किस हद तक पहुंच गया है, यह इस वार्तालाप से उजागर होता है। यह विष भारत के भविष्य पर क्या असर डालेगा, यह सवाल अभी कहीं खड़ा ही नहीं हो पा रहा है, हल की बात कौन करे! भिक्षावृति निरोधक अधिनियम के अंर्तगत, भीख मांगने वाले को एक से तीन साल के कारावास का प्रावधान है लेकिन कई राज्यों में सपेरे, मदारी, नट, साधु आदि को पुरातन भारतीय लोक-कलाओं व संस्कृति का रक्षक माना जाता है और वे इस अधिनियम की परिधि से बाहर होते हैं। अलबत्ता भिखारी बच्चों को पकड़ने की जहमत कोई सरकारी महकमा उठाता नहीं हैं। फिर यदि इस सामाजिक समस्या को कानूनी डंडे से ठीक करने की सोचें तो असफलता ही हाथ लगेगी। देश के बाल सुधार गृहों की हालत अपराधी निर्माणशाला से अधिक नहीं है। यहां बच्चों को पीट-पीट कर मार डाला जाता है। भूख से बेहाल बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं। बाल भिक्षावृत्ति समस्या की र्चचा बालश्रम के बगैर अधूरी लगेगी। देश में बचपन-बचाने के नाम पर संचालित दुकानों द्वारा बालश्रम की रोकथाम के नारे केवल उन उद्योगों के इर्द-गिर्द भटकते दिखते हैं, जिनके उत्पाद देश को विदेशी मुद्रा अर्जित कराते हैं। भूख से बेहाल बच्चे की पेट व बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न तो कानून या शासन सक्षम है, न ही समाज जागरूक। ऐसे में बच्चा यदि छुटपन से कोई ऐसा तकनीकी कार्य सीखने लगता है, जो आगे चल कर न सिर्फ उसके जीवकोपार्जन का साधन बनता है, बल्कि देश की आर्थिक व्यवस्था की सुदृढ़ता में भी सहायक होता है, तो यह सुखद है। एक्सपोर्ट कारखानों से बच्चों की मुक्ति की मुहिम चलाने वालों द्वारा सड़कों पर हाथ फैलाए नौनिहालों की अनदेखी करना, उनका बच्चों के प्रति प्रेम व निष्ठा के विद्रूप चेहरे को उघाड़ता है। बच्चों के शारीरिक, मानसिक व सामाजिक विकास के लिए 22 अगस्त 1974 को बनी ‘राष्ट्ीय बाल नीति’ हो या 1986 की राष्ट्रीय शिक्षानीति या फिर 2010 तक सभी के लिए शिक्षा का विश्व बैंक कार्यक्रम या केद्र सरकार का सभी को शिक्षा का नारा। फिलहाल सभी कागजी शेर की तरह दहाड़ते दिख रहे हैं। सभी बच्चों को शिक्षा के अधिकार के ढिंढोरे से ज्यादा उस मानवीय दृष्टिकोण जरूरत है जो मासूमों के दिल के अरमानों को पूरा कर सके।
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