नईदुनिया राष्ट्रीय संस्करण ३० जून २०१४ http://naiduniaepaper.jagran.com/Details.aspx?id=692030&boxid=13533 |
फजीहत करवाते फ्लाईओवर
पंकज चतुर्वेदी
अभी कुछ फुहारें क्या पड़ी ,दिल्ली और उसके आसपास के सभी महानगर- गाजियाबाद, नोएडा, गुडगांव पानी-पानी हो गए। कई सड़कों पर पांच किलोमीटर तक लंबा जाम लग गया। गरमी से निजात के आनंद की कल्पना करने वाले सड़कों पर जगह-जगह पानी भरने से ऐसे दो-चार हुए कि अब बारिष के नाम से ही डर रहे हैं। बारिष भले ही रिकार्ड में बेहद कम थी, लेकिन आधी दिल्ली ठिठक गई। जहां उड़ कर जाने को यह भी नहीं कि ऐसा केवल दिल्ली में ही हो रहा है। यह तो हर साल की कहानी है और देष के कोई दो दर्जन महानगरों की त्रासदी है। हर बार सारा दोष नालों की सफाई ना होने ,बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप दिया जाता हैं । विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौड़े सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं ।
देष की राजधानी दिल्ली में सुरसामुख की तरह बढ़ते यातायात को सहज बहाव देने के लिए बीते एक दश्क के दौरान ढेर सारे फ््लाई ओवर और अंडरपास बने। कई बार दावे किए गए कि अमुक सड़क अब ट्राफिक सिग्नल से मुक्त हो गई है, इसके बावजूद दिल्ली में हर साल कोई 185 जगहों पर 125 बड़े जाम और औसतन प्रति दिन चार से पांच छोटे जाम लगना आम बात है। इनके प्रमुख कारण किसी वाहन का खराब होना, किसी धरने-प्रदर्शन की वजह से यातायात का रास्ता बदलना, सड़कांे की जर्जर हालत ही होते हैं । लेकिन जान कर आश्चर्य होगा कि यदि मानवजन्य जाम के कारणों को अलग कर दिया जाए तो महानगर दिल्ली में जाम लगने के अधिकांश् स्थान या तो फ्लाई ओवर हैं या फिर अंडर पास। और यह केवल बरसात के दिनों की ही त्रासदी नहीं है, यह मुसीबत बारहों महीने, किसी भी मौसम में आती है। कहीं इसे डिजाईन का देाश कहा जा रहा है तो कहीं लोगों में यातायात-संस्कार का अभाव। लेकिन यह तय है कि अरबों रूपए खर्च कर बने ये हवाई दावे हकीकत के धरातल पर त्रासदी ही हैं।
बारिष के दिनों में अंडर पास में पानी भरना ही था, इसका सबक हमारे नीति-निर्माताओं ने आईटीओ के पास के षिवाजी ब्रिज और कनाट प्लेस के करीब के मिंटो ब्रिज से नहीं लिया था। ये दोनों ही निर्माण बेहद पुराने हैं और कई दशकोंू से बारिश के दिनों में दिल्ली में जल भराव के कारक रहे हैं। इसके बावजूद दिल्ली को ट्राफिक सिग्नल मुक्त बनाने के नाम पर कोई चार अरब रूपए खर्च कर दर्जनभर अंडरपास बना दिए गए। लक्ष्मीनगर चुंगी, द्वारका मार्ग, मूलचंद,पंजाबी बाग आदि कुछ ऐसे अंडर पास हैं जहां थोड़ी सी बारिष में ही कई-कई फुट पानी भर जाता है। सबसे श र्मनाम तो है हमारे अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे को जोड़ने वाले अंडर पास का नाले में तब्दील हो जाना। कहीं पर पानी निकालने वाले पंपों के खराब होने का बहाना है तो सड़क डिजाईन करने वाले नीचे के नालों की ठीक से सफाई ना होने का रोना रोते हैं तो दिल्ली नगर पालिका अपने यहां काम नहीं कर रहे कई हजार कर्मचारियों की पहचान ना कर पाने की मजबूरी बता देती है। इन अंडरपास की समस्या केवल बारिश के दिनों में ही नहीं है। आम दिनों में भी यदि यहां कोई वाहन खराब हो जाए या दुर्घटना हो जाए तो उसे खींच कर ले जाने का काम इतना जटिल है कि जाम लगना तय ही होता है। असल में इनकी डिजाई में ही खामी है जिससे बारिश का पूरा जल-जमाव उसमें ही होता है। जमीन के गहराई में जा कर ड्रैनेज किस तरह बनाया जाए, ताकि पानी की हर बूंद बह जाए, यह तकनीक अभी हमारे इंजीनियरों को सीखनी होगी।
ठीक ऐसे ही हालात फ्लाईओवरों के भी हैं। जरा पानी बरसा कि उसके दोनो ओर यानी चढ़ाई व उतार पर पानी जमा हो जाता है। कारण एक बार फिर वहां बने सीवरों की ठीक से सफाई ना होना बता दिया जाता है। असल में तो इनकी डिजाईन में ही कमी है- यह आम समझ की बात है कि पहाड़ी जैसी किसी भी संरचना में पानी की आमद ज्यादा होने पर जल नीचे की ओर बहेगा। मौजूदा डिजाईन में नीचे आया पानी ठीक फ्लाईओवरों से जुड़ी सड़क पर आता है और फिर यह मान लिया जाता है कि वह वहां मौजूद स्लूस से सीवरों में चला जाएगा। असल में सड़कों से फ्लाईओवरों के जुड़ाव में मोड़ या अन्य कारण से एक तरफ गहराई है और यहीं पानी भर जाता है। कई स्थान पर इन पुलों का उठाव इतना अधिक है और महानगर की सड़कें हर तरह के वाहनों के लिए खुली भी हुई हैं, सो आए रोज इन पर भारी मालवाहक वाहनों का लोड ना ले पाने के कारण खराब होना आम बात है। एक वाहन खराब हुआ कि कुछ ही मिनटों में लंबा हो जाता है। ऐसे हालात सरिता विहार, लाजपत नगर, धौलाकुआं, नारायणा, रोहिणी आदि में आम बात हैं।
अब शायद दिल्ली को वल्र्ड क्लास सिटी बनाने के स्वप्नदृश्टाओं को सोचना होगा कि कई अरब-खरब खर्च कर यदि ऐसी ही मुसीबत को झेलना है तो फिर ट्राफिक सिग्नल सिस्टम ही क्या बुरा है ? जैसे हाल ही में सरकार को समझ में आया कि कई-कई करोड़ खर्च कर बनाए गए भूमिगत पैदल पारपथ आमतौर पर लोग इस्तेमाल करते ही नहीं हैं और नीतिगत रूप से इनका निर्माण बंद कर दिया गया है।
यह विडंबना है कि हमारे नीति निर्धारक यूरोप या अमेरिका के किसी ऐसे देष की सड़क व्यवस्था का अध्ययन करते हैं जहां ना तो दिल्ली की तरह मौसम होता है और ना ही एक ही सड़क पर विभिन्न तरह के वाहनों का संचालन। उसके बाद सड़क, अंडरपास और फ्लाईओवरों की डिजाईन तैयार करने वालों की षिक्षा भी ऐसे ही देशों में लिखी गई किताबों से होती हैं। नतीजा सामने है कि ‘‘आधी छोड़ पूरी को जावे, आधी मिले ना पूरी पावे’’ का होता है। हम अंधाधंध खर्चा करते हैं, उसके रखरखाव पर लगातार पैसा फूंकते रहते हैं- उसके बावजूद ना तो सड़कों पर वाहनों की औसत गति बढ़ती है और ना ही जाम जैसे संकटों से मुक्ति। काष! कोई स्थानीय मौसम, परिवेश और जरूरतों को ध्यान में रख कर जनता की कमाई से उपजे टैक्स को सही दिशा में व्यय करने की भी सोचे। सरकार में बैठे लोग भी इस संकट को एक खबर से कहीं आगे की सोच के साथ देखे।
पंकज चतुर्वेदी
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