विकास का सहयात्री बने पर्यावरण संरक्षण
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पंकज चतुव्रेदी स्वतंत्र पत्रकार/ लेखक
अभिलाषाओं, अपेक्षाओं और उम्मीदों के सूर्य-रथ पर सवार हो कर आई मोदी सरकार विकास के प्रति कटिबद्ध होने का दावा कर रही है। सनद रहे विकास एक सापेक्षिक अवधारणा है और समानअर्थी प्रतीत होने के बावजूद इसके मायने ‘प्रगति’ से भिन्न हैं। विकास, प्रगति का उत्प्रेरक तत्व है, लेकिन इसका मूल महज आर्थिक तत्व नहीं है-गुणात्मक उन्नति यानी समाज, स्वाथ्य, शिक्षा, परिवहन, संचार, बौद्धिकता, रोजगार, बूढ़े, गरीब, औरतें, बच्चे..सभी के जीवन में सकारात्मक बदलाव। केवल सड़क, कारखाने, तेज गति की ट्रेन ही विकास शब्द को परिभाषित नहीं करते हैं। मुल्क के हर बाशिंदे-चाहे व इंसान हो या फिर जीव- जंतु, को साफ हवा मिले सांस लेने के लिए, नदी-तालाब, समुद्र स्वच्छ हों, लाखों-लाख किस्म के पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, जानवर-पक्षी उन्मुक्त हो कर अपने नैसर्गिक स्वरूप में जीवन यापन कर रहे हों-ऐसा विकास ही जन भावनाओं की संकल्पना होता है। तमिलनाडु का एक शहर है रानीपेट, वहां चमड़े के हजारों कारखाने हैं। वहां की प्रति व्यक्ति आय राज्य में सबसे ऊंची है लेकिन दूसरी तरफ उसे दुनिया के दस सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में गिना जाता है, वहां कई सौ मीटर गहराई तक भूजल में बदबू और जहर है, इलाके की नदी की बदबू कई किलोमीटर तक दिमाग को फाड़ देती है। लब्बोलुआब यही है कि नई सरकार के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का यह बयान है तो बड़ा लुभावना कि वह विकास और पर्यावरण में संतुलन से ज्यादा इनके सहअस्तित्व पर भरोसा करते हैं। परियोजना व पर्यावरण केंद्र सरकार को अपनी पूर्व सरकार से विरासत में सैकड़ों ऐसी फाइलें मिली हैं, जिनमें कोई आठ लाख हैक्टेयर इलाके में विकास की मंजूरियों की दरकार है। इनमें से कुछ पांच साल से भी ज्यादा पुरानी हैं। याद होगा कि चुनाव के समय ‘जयंती टैक्स’ खूब उछला था और उससे पहले जयराम रमेश की पर्यावरण मंत्रायलय से विदाई के पीछे भी कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं को पर्यावरण अनापत्ति के नाम पर हटाने का मसला गरम रहा था। यह भी जरूरी है कि आधुनिक विकास की अवधारणा का मूल अवयव ऊर्जा है और कोयला खदानों से अधिक माल निकालने, कोयला व अन्य खदानों के वन क्षेत्र में होने के कारण उन संरक्षित क्षेत्रों में खुदाई की अनुमति, परमाणु ऊर्जा का विस्तार जैसे मसले एक चुनौतीपूर्ण निर्णय वाले होंगे। अब हरियाणा के फतेहाबाद जिले के गोरखपुर में लगने वाले परमाणु ऊर्जा संयत्र का ही मसला लें, चुनाव से पहले मौजूदा सरकार में मंत्री व सेना के पूर्व प्रमुख विजय कुमार सिंह इलाके का दौरा कर परियोजना से पर्यावरण के नुकसान के प्रति लोगों को जागरूक करते रहे हैं। मेनका गांधी ने भी यहां बडोपल गांव में सभा कर इस संयत्र को इलाके के जीव-जंतुओं के लिए खतरा बताया था। अब यह सिंह व गांधी तथा उनके साथ घूम-घूम कर नारे लगा रहे सभी भाजपा नेताओं के लिए कथनी व करनी के अंतर का सवाल है कि क्या ये दोनों कैबिनेट में परमाणु ऊर्जा संयत्रों की खिलाफत करेंगे। गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिए गंगा एक्शन प्लान के तहत अभी तक हुए कामों की समीक्षा का काम शुरू होना एक अच्छा कदम है, लेकिन यह भी समझना जरूरी होगा कि यमुना, हिंडन, सिंध जैसी नदियों की हालत सुधारे बगैर गंगा में सुधार होना असंभव है, फिर उस तरह रौद्र नदी ब्रहपुत्र है तो दक्षिण में मैली होती कावेरी, छत्तीसगढ़ में इंद्रावति , हर जगह की कहानी एक सी ही है। देश की संस्कृति, सभ्यता, लोकाचार के अनुसार सभी छोटी-बड़ी नदियां गंगा की ही तरह पवित्र, जन आस्थाओं की प्रतीक और पर्यावरण के लिए जरूरी हैं। जिस तरह प्रकृति का तापमान बढ़ रहा है, उसको देखते हुए हिमाचल के ग्लेशियर से ले कर गांव-कस्बे की ताल-तलैया को संरक्षित करना इस सरकार की योजना में होना चाहिए वरना गांगा सफाई अभी तक उछाले गए नारों से अलग नहीं होगा। बढ़ती आबादी, जल संकट से निबटने के लिए पाताल फोड़ कर पानी निकालने के बजाए, बारिष की हर बूंद को सहेजने की छोटी-छोटी योजनाएं समय की मांग हैं। पर्यावरण मंत्रालय के सामने सबसे बड़ी चुनौती नदी जोड़ने की परियोजनाओं को लेकर है। अभी तक तो यही सामने आया है कि हजारों करोड़ खर्च कर नदियों को जोड़ने के बाद जिस स्तर पर जंगल, खेतों का नुकसान होना है, उसी तुलना में फायदे बहुत कम हैं। कहर बरपाता विकास!
साल दर साल बढ़ती गरमी, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल..ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कही पेड़ लगा कर धरती को बचाने का संकल्प, जंगल व वहां के बाशिंदे जानवरों को बचाने के लिए भी सरकार व समाज प्रयास कर रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील व्यवस्था वाले देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता ‘शहरीकरण’ एक समग्र विषय के तौर लगभग उपेक्षित है। असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का; सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहररूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता। और अब 100 नए शहर बसाने की तैयारी हो रही है, बस उम्मीद ही कर सकते हैं कि नए बने शहर ऊर्जा, यातायात, गंदगी निस्तारण, पानी के मामलों में अपने संसाधनों पर ही निर्भर होंगे, वरना यह प्रयोग देश के लिए नया पर्यावरणीय संकट होगा। एक बात और बेहद चौकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में ‘अरबन स्लम’ या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील ना हो जाए। भारत में तस्करों की पसंद वे नैसर्गिक संपदा है, जिसके प्रति भारतीय समाज लापरवाह हो चुका था, लेकिन पाश्चात्य देश उनका महत्व समझ रहे हैं। गौरतलब है कि यह महज नैतिक और कानूनसम्मत अपराध ही नहीं है, बल्कि देश की जैव विविधता के लिए ऐसा संकट है, जिसका भविष्य में कोई समाधान नहीं होगा। भारत में लगभग 45 हजार प्रजातियों के पौधों की जानकारी है, जिनमें से कई भोजन या दवाइयों के रूप में बेहद महत्वपूर्ण हैं। दुर्लभ कछुओं, कैकड़ों और तितलियों को अवैध तरीके से देश से बाहर भेजने के कई मामले अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों पर पकड़े जा चुके हैं। हमारा जल, मिट्टी, फसल और जीवन इन्हीं विविध जीवों व फसलों के आपसी सामंजस्य से सतत चलता है। खेतों में चूहे भी जरूरी हैं और चूहों का बढ़ना रोकने के लिए सांप भी। सांप पर काबू पाने के लिए मोर व नेवले भी हैं। लेकिन कहीं खूबसूरत चमड़ी या पंख के लिए तो कहीं जैव विविधता की अनबुझ पहेली के गर्भ तक जानने को व्याकुल वैज्ञानिकों के प्रयोगों के लिए भारत के जैव संसार पर तस्करों की निगाहें गहरे तक लगी हुई हैं। भारत ही साक्षी है कि पिछले कुछ वर्षो के दौरान चावल और गेहूं की कई किस्मों, जंगल के कई जानवरों व पंक्षियों को हम दुर्लभ बना चुके हैं और इसका खमियाजा भी समाज भुगत रहा है। कानून, योजनाएं सरकार भले ही बहुत-सी बना ले लेकिन जब तक आम लोगों को पर्यावरणीय संरक्षण के सरोकारों से जोड़ा नहीं जाएगा, सरकार का हर प्रयास अधूरा रहेगा।
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RASHTRIY SAHARA] HASTAKSHEP 07-06-2014 | http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=9 |
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