My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 5 जून 2014

the society has eaten traditional water tanks




और किषोर सागर बन गया ‘बूढ़ा नाबदान’’
पंकज चतुर्वेदी
कलम और तलवार दोनों के समान धनी महाराज छत्रसाल ने सन 1907 में जब छतरपुर षहर की स्थापना की थी तो यह वेनिस की तरह हुआ करता थ। चारों तरफ घने जंगलों वाली पहाडि़यों और बारिष के दिनों में वहां से बह कर आने वाले पानी की हर बूंद को सहजेने वाले तालाब, तालाबों के बीच से सड़क व उसके किनारे बस्तियां। सन 1908 में ही  इस षहर को नगर पलिका का दर्जा मिल गया था। आसपास के एक दर्जन जिले बेहद पिछड़े थे से व्यापार, खरीदारी, सुरक्षित आवास जैसे सभी कारणों के लिए लोग यहां आ कर बसने लगे। आजादी मिलने के बाद तो यहां का वाषिंदा होना गर्व की बात कहा जाने लगा। लेकिन इस षहरीय विस्तार के बीच धीरे-धीरे यहां की खूबसूरती, नैसर्गिकता और पर्यावरण में सेंध लगने लगी। जिस तालाब की लहरें कभी आज के छत्रसाल चैराहे से महल के पीछे तक और बसोरयाना से आकाषवाणी तक उछाल मारती थीं, वहां अब गंदगी, कंक्र्रीट के जंगल और बदबू रह गई है। भले ही मामला राश्ट्रीय हरित प्राधिकरण या नेषनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के सामने है, लेकिन यह तय है कि पूरे साल पानी के लिए कराहते छतरपुर षहर को अपने सबसे बड़े व नए ‘‘किषोर सागर’ की दुर्गति करने का खामियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा।
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िबुंदेलखंड का मिजाज है कि हर पांच साल में दो बार कम बारिष होगी ही, इसके बावजूद अस्सी के दषक तो छतरपुर षहर में पानी का संकट नहीं था। इस बीच यहां बाहर से आने वाले लोगों की बाढ़ आ गई। उनकी बसाहट और व्यापार के लिए जमीन की कमी आई तो षहर के दर्जनभर तालाबों के किनारों पर लोगों ने कब्जे षुरू कर दिए। उन दिनों तो लोगों को लगा था कि पानी की आपूर्ति नल या हैंडपंप से होती है। जब लोगों को समझ आया कि नल या भूजल का अस्तित्व तो उन्हीं तालाबों पर निर्भर है जिन्हे वे हड़प गए हंै, बहुत देर हो चुकी थी। किषोर सागर कानपुर से सागर जाने वाले राजमार्ग पर है, उसके आसपास नया छतरपुर बसना षुरू हुआ था , सो किषोर सागर पर मकान, दुकान, बाजार, माॅल, बैक्वेट सभी कुछ बना दिए गए हैं।  कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह से कब्जे करने वालों में अधिकांष रसूखदार लोग ही है।  अभी कुछ सालों में बारिष के दौरान वहां बनी कालोनी के घरेां में पानी भरने की दिक्कतें आनी षुरू हुईं। कुछ लोगों ने प्रषासन को कोसना भी षुरू किया, उन्हें पता नहीं था कि तालाब उनके घर में नहीं, बल्कि वे तालाब में घुसे बैठे हैं। बीच-बीच में कुछ षिकयतें होती रहीं, कई बार जांच भी हुईं लेकिन हर बार भूमाफिया, राजस्व अफसर सांठ गांठ कर ऐसे दस्तावेज सामने रखते कि छतरपुर के सरकारी स्कूल से कर अस्पताल तक तो तालाब पर अवैध कब्जे दिखते, लेकिन वहां जल निध्धि के बीच बने घर और दुकानें निरापद रहते।
किषोर सागर के बंदाबस्त रिकार्ड के मुताबिक सन 1939-40 से ले कर सन 1951-52 तक खसरा नंबर 3087 पर इसका रकबा 8.20 एकड़ था।  सन 1952-53 में इसके कोई चैथाई हिस्से को कुछ लोगों ने अपने नाम करवा लिया। आज पता चल रहा है कि उसकी कोई स्वीकृति थी ही नहीं, वह तो बस रिकार्ड में गड़बड़ कर  तालाब को किसी की संपत्ति बना दिया गया था। उन दिनों यह इलाका षहर से बाहर निर्जन था और किसी ने कभी सोचा भी नहंी था कि आने वाले दिनों में यहां की जमीन सोने के भाव होगी। अब तो वहां का कई साल का बंदोबस्त बाबत पटवारी का रिकार्ड  उपलब्ध ही नहीं है।
यह बात हमारे संविधान के मूल कर्तव्यों में दर्ज है, सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में समय-समय पर कहती रही है, पर्यावरण मंत्रालय के दिषा निर्देया भी हैं और नेषनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का आदेष भी कि - किसी भी नाले, नदी या तालाब, नहर, वन क्षेत्र जो कि पर्यावरण को संतुलित करने का काम करते हैं, वहां किसी भी तरह का पक्का निर्माण नहीं किया जा सकता। यही हीं ऐसी जल-निधियों के जल ग्रहण क्षेत्र या केचमंट एरिया के चारों और चालीस फुट दायरे में भी कोई निर्माण नहीं हो सकता। किषोर सागर में तो निर्माण कर उसे डेढ एकड़ में समेट दिया गया।  अब यह मामला ग्रीन ट्रिब्यूनल की भोपाल षाखा में है। चूंकि इसमें घपलों, गड़बडि़यों की अनंत श्रंखलाएं हैं, सो सही स्थिति जानने में कई बाधाएं आ रही हैं। यही नहीं ट्रिब्युूनल कलेक्ट के खिलाफ गैर जमानती वारंट भी जारी कर चुका है। अब भू अभिलेख कार्यालय, ग्वालियर ने सेटेलाईट व अत्याुधनिक तकनीक वाली टीएसएम से तालाब के असली रकबे की जांच भी हो रही है। चूंकि अब तालाब पर सैंकड़ों माकन बन गए हैं सो यह मानवीय, सियासती मुद्दा भी बन गया है।
किषोर सागर तो एक बानगी मात्र है- छतरपुर षहर के दो दर्जन, जिले के हजार, बुंदेलखंड के बीस हजार और देषभर के कई लाख तालाबों की त्रासदी लगभग इसी तरह की है। कभी जिन तालाबों का सरोकार आमजन से हुआ करता था, उन तालाबों की कब्र पर अब हमारे भविष्य की इमारतें तैयार की जा रही हैं। ये तालाब हमारी प्यास बुझाने के साथ-साथ खेत-खलिहानों की सिंचाई के माध्यम हुआ करते थे। एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। देश भर में फैले तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। तब पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों  की मरम्मत , नवीकरण और जीर्णोध्दार ( आर आर आर ) के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक  स्तर पर  बुनियादी ढाँचे का विकास करना था। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-मफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबंदी ने देश को तालाब विहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यह तो सरकारी आंकड़ों की जुबानी है, इसमें कितनी सचाई है, यह किसी को नहीं पता। सरकार ने मनरेगा के तहत फिर से तालाब बनाने की योजना का सूत्रपात किया है। अरबों रुपये खर्च हो गए, लेकिन वास्तविक धरातल पर न तो तालाब बने और न ही पुराने तालाबों का संरक्षण ही होता दिखा।
जरा अपने आसपास देखें , ना जाने कितने किषोर सागर समय से पहले मरते दिख रहे होंगे, असल में ये तालाब नहीं मर रहे हैं, हम अपने आने वाले दिनों की प्यास को बढ़ा रहे है, जल संकट को बढा रहे हैं, धरती के तापमान को बढ़ा रहे हैं।
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