पंकज चतुव्रेदी
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RASHTRIY SAHARA 19-7-14 http://rashtriyasahara.samaylive.com/newsview.aspx?eddate=7/19/2014%2012:00:00%20AM&pageno=10&edition=9&prntid=75016&bxid=155813641&pgno=10 |
यह त्रासदी ही है कि देश के कुछ हिस्सों में बेशक सूखे के हालात हों और कागजों में सूखा दर्ज हो रहा हो लेकिन बरसात के मौसम में देश के बड़े भाग में नदियों के उफन कर तबाही मचाने की खबरे भी समानांतर आने लगती हैं। पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पाएंगे कि बारिश बेशक कम हुई, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनने लगी हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में बाढ़ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी। 1960 में यह ढाई करोड़ हेक्टेयर हो गई । 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी और 1980 में यह आंकड़ा चार करोड़ पर पहुंच गया। अभी यह तबाही कोई सात करोड़ हेक्टेयर होने की आशंका है। सूखे के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है। देश में बाढ़ की पहली दस्तक असम में होती है। असम का जीवन कही जाने वाली ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां मई-जून के मध्य में ही विकराल होने लगती हैं। हर साल लाखों लोग बाढ़ पीड़ित शरणार्थी बनकर भटकने लगते हैं। सरकार उन्हें कुछ तात्कालिक सहायता तो देती है लेकिन बाढ़ प्रभावित बस्तियों को सुरक्षित स्थान पर बसाने के लिए कभी नहीं सोचा गया। बाढ़ से उजड़े लोगों को पुनर्वास के नाम पर एक बार फिर वहीं बसा दिया जाता है, जहां छह महीने बाद जल प्लावन होना तय होता है। पहाड़ों की बेतरतीब खुदाई, अनियोजित शहरीकरण और सड़कों का निर्माण इस राज्य में बाढ़ से तबाही के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का 16 फीसद बिहार में है। यहां कोशी, गंड़क, बूढ़ी गंड़क, बाधमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं। इन पर तटबंध बनाने का काम केन्द्र सरकार से पर्याप्त सहायता न मिलने के कारण अधूरा पड़ा है। यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं। ‘बिहार का शोक’
कही जाने वाली कोशी के उपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है लेकिन इसके रखरखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला करीब 20 करोड़ रुपया बिहार सरकार वहन करती है। हालांकि तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल नहीं रहे हैं। कोशी के तटबंधों के कारण उसके तट पर बसे चार सौ गांव आज डूब क्षेत्र में हैं। इसकी सहयोगी कमला-बलान नदियों के तटबंध के गाद भराव से ऊंचा होने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती है। फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मुंगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है। विदित हो कि आजादी से पहले अंग्रेज सरकार ने बाढ़ नियंतण्रमें बड़े बांध या तटबंधों को तकनीकी दृष्टि से उचित नहीं माना था। तत्कालीन गवर्नर हेल्ट की अध्यक्षता में पटना में हुए एक सम्मेलन में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सहित कई विद्वानों ने बाढ़ के विकल्प के रूप में तटबंधों की उपयोगिता को नकारा था। इसके बावजूद आजादी के बाद हर छोटी- बड़ी नदी को बांधने का काम जारी है। बगैर सोचे समझे नदी-नालों को बांधने के कुप्रभावों का ताजातरीन उदाहरण मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बहने वाली ‘केन’ है। बुंदेलखंड को वाढ़ से सुरक्षित माना जाता रहा है लेकिन गत डेढ़ दशक से केन भी अप्रत्याित ढंग से उफन कर पन्ना, छतरपुर और बांदा जिले में जबरदस्त नुकसान कर रही है। केन के अचानक रौद्र होने का कारण छोटे-बड़े बांध हैं। केन बांदा जिले में चिल्ला घाट के पास यमुना में मिलती है। जब अधिक बारिश होती है या किन्हीं कारणों से यमुना में जल आवक बढ़ती है तो इसके बांधों के कारण इसका जल स्तर बढ़ जाता है। उधर केन और उसके सहायक नालों पर हर साल सैकड़ों ‘स्टाप-डेम’ बनाए जा रहे हैं, जो इतने घटिया हैं कि थोड़े से पानी के जमा होने पर टूट जाते हैं। केन में बारिश का पानी बढ़ता है, फिर ‘स्टापडे मों’ के टूटने का जल-दबाव बढ़ता है। केन की राह में स्थित ‘ओवर-एज’ बांधों में भी टूट-फूट होती रहती है और केन क्षमता से अधिक पानी लेकर यमुना की ओर लपलपाती है। वहां का जल स्तर इतना ऊंचा होता है कि केन के प्राकृतिक मिलन स्थल का स्तर नीचे रह जाता है। शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन प्रमुख कारण बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं। प्राकृतिक हरियाली उजाड़ कर बनाये गए कंक्रीट के जंगल जमीन की जल सोखने की क्षमता कम कर देते है, और सतही जल की बहाव क्षमता कई गुना बढ़ जाती है। शहरों के कूड़े ने भी समस्या बढ़ायी है। यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है। फलस्वरूप नदी की जल ग्रहण क्षमता कम होती जाती है। पंजाब और हरियाणा में बाढ़ का कारण जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हो रहा अनियंत्रित शहरीकरण ही है। इससे वहां भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं और मलबा भी नदियों में ही जाता है। पहाड़ों पर खनन से वहां की हरियाली उजड़ती है और फिर खदानों से निकली धूल और मलबा नदी-नालों में अवरोध पैदा करता है। सनद रहे हिमालय पृथ्वी का सबसे कम उम्र का पहाड़ है और इसकी विकास प्रक्रिया जारी है। इसका बड़ा भाग कठोर-चट्टानें न हो कर मिट्टी है। बारिश या बर्फ पिघलने पर जब यहां पानी नीचे की ओर बहता है तो साथ में मिट्टी भी बहा ले जाता है। इन नदियों का पानी जिस तेजी से चढ़ता है, उसी तेजी से उतर जाता है। इस मिट्टी के कारण नदियों के तट बेहद उपजाऊ हुआ करते हैं लेकिन अब इन नदियों को जगह-जगह बांधा जा रहा है, इसलिए बेशकीमती उपजाऊ मिट्टी बांधों में ही रुक जाती है और नदियों को उथला बनाती रहती है। कहने का आशय सिर्फ इतना है कि मौजूदा हालात में बाढ़ महज प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य त्रासदी भी है। इस पर अंकुश लगाने के लिए गंभीरता से सोचना होगा। कुछ लोग नदियों को जोड़ना इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के ऊंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां निष्पक्ष अध्ययन किया ही नहीं गया है और इसी का फायदा उठा कर स्वार्थी लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों के खनन पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ रोकना ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जो बाढ़ की विभीषिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।
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