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पंकज चतुर्वेदी
भारत की आजादी की लड़ाई या समाज के बारे में देष-दुनिया की कोई भी किताब या नीति पढ़े ंतो पाएंगे कि हमारा मुल्क अहिंसा के सिद्धांत चलता है। एक वर्ग जो अपने पर ‘‘पिलपिले लोकतंत्र’ का आरोप लगवा कर गर्व महसूस करता है, खुद को गांधीवादी बाता है तो दूसरा वर्ग जो गांधी को देष के लिए अप्रासंगिक और बेकार मानता है वह भी ‘देष की गांधीवादी’(?) नीतियों को आतंकवाद जैसी कई समस्याओं का कारक मानता है। असल में इस मुगालते का कभी आकलन किया ही नहीं गया कि क्या हम गांधीवादी या अहिंसक हैं? आए रोज की छोटी-बड़ी घटनाएं गवाह हैं कि हम भी उतने ही हिंसक और अषांति प्रिय हैं जिसके लिए हम पाकिस्तान या अफगानिस्तान या अमेरिरका को कोसते हैं। भरोसा ना हो तो अफजल गुरू या कसाब की फंासी के बाद आए बयान, जुलूस, मिठाई बांटने, बदला पूरा होने, कलेजे में ठंडक पहुंचने की अनगिनत घटनाओं को याद करें। उ.प्र के मुरादाबाद में एक मंदिर से लाउड स्पीकर उतारने मात्र के बवाल पर ट्रेन की पटरी व कलेक्टर की आंख उखाड देने जैसी घटनाएं आए रोज हो रही हैं। जाहिर है कि बदला पूरा होने की बात करना हमारे मूल हिंसक स्वभाव का ही प्रतीक है।
यह सवाल क्यों खड़ा कर रहा हूं ? इंसानियत या इंसान को कटघरे में खड़ा करने के लिए नहीं , बलिक इस लिए कि यदि एक बार हम मान लेगंे कि हमारे साथ कोई समस्या है तो उसके निदान की अनिवार्यता या विकल्प पर भी विचार करेंगे। जब सिद्धांततः मानते हैं कि हम तो अहिंसक या षांतिप्रिय समाज हैं तो यह स्वीकार नहीं कर रहे होते हैं कि हारे समाज के सामने कोई गूढ समस्या है जिसका निदान महति है। अफजल गुरू या कसाब की फंासी पर आतिषबाजी चलाना, या मिठाई बांटना उतना ही निंदनीय है जितना उनको मुकर्रर अदालती सजा के अमल का विरोध । जब समाज का कोई वर्ग अपराधी की फंासी पर खुषी मनाता है तो एकबारगी लगता है कि वह उन निर्दोश लोगों की मौत और उनके पीछे छूट गए परिवार के स्थाई दर्द की अनदेखी कर रहा है। ऐसा इसी लिए होता है क्योंकि समाज का एक वर्ग मूलरूप् से हिंसा-प्रिय है। देष में आए रोज ऐसे प्रदर्षन, धरने, षादी-ब्याह, धार्मिक जुलूस देखे जा सकते हैं जो उन आत्ममुग्ध लोगों के षक्ति प्रदर्षन का माध्यम होते हैं और उनके सार्वजनिक स्थान पर बलात अतिक्रमण के कारण हजारों बीमार, मजबूर, किसी काम के लिए समय के के साथ दौड़ रहे लोगों के लिए षारीरिक-मानसिक पीड़ादायी होते हैं। ऐसे नेता, संत, मौलवी बेपरवाह होते हैं उन हजारों लेागों की परेषानियों के प्रति। असल में हमारा समाज अपने अन्य लोगों के प्रति संवेदनषील ही नहीं है क्योंकि मूलरूप से हिंसक-कीड़ा हमारे भीतर कुलबुलाता है। ऐसी ही हिंसा, असंवेदनषीलताऔर दूसरों के प्रति बेपरवाही के भाव का विस्तार पुलिस, प्रषासन और अन्य सरकारी एजेंसियो मं होता हे। हमारे सुरक्षा बल केवल डंडे - हथियार की ताकत दिखा कर ही किसी समस्या का हल तलाषते हैं।
हकीकत तो यह है कि देष के ‘अहिंसा-आयकान’ गांधीजी अपने अंतिम दिनों के पहले ही यह जान गए थे कि उनके द्वारा दिया गया अहिंसा का पाठ महज एक कमजोर की मजबूरी था। तभी जैसे ही आजादी और बंटवारे की बात हुई समग्र भारत में दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा कत्लेआम हो गया। जून-जुलाई 1947 में गांधीजी ने अपने दैनिक भाशण में कह दिया था -‘‘ परंतु अब 32 वर्श बाद मेरी आंख खुली है। मैं देखता हूं कि अब तक जो चलती थी वह अहिसा नहीं है, बल्कि मंद-विरोध था। मंद विरोध वह करता है जिसके हाथ में हथियार नहीं होता। हम लाचारी से अहिंसक बने हुए थे, मगर हमारे दिलों में तो हिंसा भरी हुई थी। अब जब अंग्रेज यहां से हट रहे हैं तो हम उस हिंसा को आपस में लड़ कर खर्च कर रहे हैं।’’ गांधीजी अपने आखिरी दिनों इस बात से बेहद व्यथित, हताष भी थे कि वे जिस अहिंसा के बल पर अंग्रेजों को देष से निकालने का दावा करते रहे थे , वह उसे आम लोगों में स्थापित करने में असफल रहे थे। कैसी विडंबना है कि जिस हिंसा को ले कर गांधी दुखी थे, उसी ने उनकी जान भी ली।
षायद हमें उसी दिन समझ लेना था कि भारत का समाज मूल रूप से हिंसक है, हमारे त्योहर-पर्व में हम तलवारें चला कर , हथियार प्रदर्षित कर खुष होते हैं। हमारे नेता सम्मान में मिली तलवारें लहरा कर गर्व महसूस करते हैं। आम लोग भी कार में खरोंच, गली पर कचरे या एकतरफा प्यार में किसी की हत्या रकने में संकोच नहीं करता हे। अपनी मांगों को समर्थन में हमारे धरने-प्रदर्षन दूसरों के लिए आफत बन कर आते हैं,लेकिन हम इसे लोकतंत्र का हिस्सा जता कर दूसरों की पीड़ा में अपना दवाब होने का दावा करते हैं।
हम आजादी के बाद 67 सालों में छह बड़े युद्ध लड़ चुके हैं जिनमें हमारे कई हजार सैनिक मारे जा चुके हैं। हमारे मुल्क का एक तिहाई हिस्सा सषस्त्र अलगाववादी आंदोलनों की चपेट में हैं जहां सालाना तीस हजार लोग मारे जाते हैं, जिनमें सुरक्षा बल भी षामिल हैं। देष में हर साल पैंतीस से चालीस हजार लोग आपसी दुष्मनियों में मर जाते हैं जो दुनिया के किसी देष में हत्या की सबसे बड़ी संख्या होती है। हमारा फौज व आंतरिक सुरक्षा का बजट स्वास्थ्य या षिक्षा के बजट से बहुत ज्यादा होता है।
हम क्यों मान लें कि हम हिंसक समाज हैं ? हमें स्वीकार करना होगा कि असहिश्णुता बढ़ती जा रही है। यह सवाल आलेख के पहले हिस्से में भी था। यदि हम यह मान लेते हैं तो हम अपनी षिक्षा, संस्कार, व्यवस्था, कानून में इस तरह की तब्दीली करने पर विचार कर सकते है जो हमारे विषाल मानव संसाधन के सकारात्मक इस्तेमाल में सहायक होगी। हम गर्व से कह सकेंगे कि जिस गांधी के जिस अहिंसा के सिद्धांत को नेल्सन मंडेला से ले कर बराक हुसैन ओबामा तक सलाम करते रहे हैं; हिंदुस्तान की जनता उस पर अमल करना चाहती है।
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