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रविवार, 31 अगस्त 2014

BIG DAMS BIG PROBLEMS

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बड़े बांध के बड़े खतरे
पंकज चतुर्वेदी

पानी इस समय विष्व के संभावित संकटों में षीर्श पर है । पीने के लिए पानी, उद्योग , खेेती के लिए पानी, बिजली पैदा करने को पानी । पानी की मांग के सभी मोर्चों पर आषंकाओं व अनिष्चितता के बादल मंडरा रहे हैं । बरसात के पानी की हर एक बूंद को एकत्र करना व उसे समुद्र में मिलने से रोकना ही इसका एकमात्र निदान है। इसके बनाए गए बड़े भारी भरकम बांध कभी विकास के मंदिर कहलाते थे । आज यह स्पश्ट हो गया है कि लागत उत्पादन, संसाधन सभी मामलों में ऐसे बांध घाटे का सौदा सिद्ध हो रहे हैं ।।
अंतरराश्ट्रीय मानकों के अनुसार नींव से 15 मीटर ऊंचाई के बांध को बड़े बांध में आंका जाता है । यदि किसी बांध की ऊंचाई 15 मीटर से कम हो , लेकिन उसके जलाषय की क्षमता 30 लाख घनमीटर से अधिक हो तो उसे भी बड़ा बांध कहा जाता है ।  इस समय दुनियाभर में कम से कम 45 हजार बड़े बांध हैं । बांधों के कारण नदियां खंडित व परिवर्तित हो गई हैं , जबकि आठ करोड़ से अधिक लोगों को अपने घर-गांव, खेत-व्यापार छोड़ कर पलायन करना पड़ा है । एक तरफ बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई, बिजली जैसी सामाजिक व आर्थिक जरूरतें हैं तो दूसरी ओर बड़े बांधों की अधिक लागत, विस्थापन, पारिस्थिती और मत्सय संसाधनों का विनाष जैसी त्रासदियां हैं ।
सिंचाई, बिजली, नगरीय व औद्योगिक जल आपूर्ति के लिए बनाए गए बड़े बांध अक्सर अपने लक्ष्यों से बहुत पीछे रह जाते हैं । विष्व बांध आयोग ने पाया कि बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए गए बांध कई बार बाढ़ के खतरों को ही बढ़ा देते हैं ।  आयोग ने सभी बड़े बांधों के निर्माण में समयगत विलंब और लागत वृहद्ध की उल्लेखनीय प्रवृति देखी । विषाल बांधों की उम्र बीत जाने पर उनके रखरखाव के खतरे, जलवायु परिवर्तन की वजह से जलचव में आ रेह बदलाव के संकट , ऐसे बांधों का विषाल कब्रिस्तान उपजा रहे हैं । गाद भराव के कारण जलाषय की ामता में होने वाला दीर्घकालीन घटाव दुनियाभर में चिंता का विशय बना हुआ है । बांधों के करीबी मैदानों व खेतों में दलदलीकरण व लवणीकरण के खतरों से कृशि भूमि घटने का गंभीर संकट भारत सहित दुनियाभर के कई कृशि-प्रधान देष झेल रहे हैं ।
बड़े बांधों के कारण पर्यावरणीय तंत्र और जैवविविधता  पर अत्यधिक विपरित असर पड़ रहा है । जलाषय क्षेत्र में डूब की वजह से वनों व वन्य जीवों के के आवास व प्रजातियों का नाष हुआ है, जिसकी भरपाई असंभव है । यहां पानी रिसने से होने वाला जमीन का नुकसान, इलाके जानवरों का समाप्त होना आदि कुछ ऐसे नुकसान हैं जिनकी पूर्ति कोई भी वैज्ञानिक या तकनीकी खोज नहीं कर पाई है। इसी तरह बांध के उपर के हिस्से के जलग्रहण क्षेत्र के प्राकृतिक स्वरूप के बदरंग होने का खामियाजा समाज को भुगतना पड़ रहा है ।
बांधों के कारण लेाक-जीवन पपर पड़ रहे नकारात्मक प्रभावों का ना तो भलीभांति आकलन किया जाता है, ना ही उसे आय-व्यय में षामिल किया जाता है । जबकि यह प्रभाव काफी व्यापक है और इसमें नदी पर आश्रित समुदायों के जीवन, जीविका व स्वास्थ्य पर प्रभाव षामिल है । बड़े बांधो ंसे उपजी सबसे बड़ी त्रासदी है पुष्तैनी घर-गांवों से लेागों का विस्थापन । विस्थापितों को मिलने वाला मुआवजा जीवन को नए सिरे से षुरू करने को नाकाफी होता है । ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं होती है, जिनके नाम पुनर्वास या मुआवजे की सूची में होते ही नहीं है । भारत में ही अधिकांष घटनाओं में पाया गया है कि व्यवस्थित पुनर्वास और पर्याप्त मुआवजे के मामले बहुत ही कम हैं । अधिकंाष जगह लोग एक दषक से अधिक से अपने वाजिब मुआवजे के लिए लड़ रहे हैं और पैसा मिलना पूरी तरह भ्रश्टाचार की डोर पर टिका होता है।
बड़े बांधों के डूब क्षेत्र का निर्धारण इतनी निश्ठुरता से होता है कि उसमें सदियों पुरानी सांस्कृतिक धरोहरों, आध्यात्मिक अस्मिताओं और आस्थाओं के डबूने पर कोई संवेदना नहीं दिखती है । यह भी विडंबना है कि बड़े बांधों के विशम प्रभावों को झेलने वाले गरीब, किसान और आदिवासियों को इस बांध की सहूलियतों से मेहरूम रखा जाता है । उन्हें न  तो सिंचाई मिलती है और न ही बिजली , ना ही इन परियोजनाओं में रोजगार । यह भी पाया कि विषाल बांध अक्सर राजनेताओं, सरकारी संस्थाअेां, अंतरराश्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और निर्माण कार्य में लगे ठेकेदारों के निजी हितों व स्वार्थों का केंद्र बन जाते हैं । यही नहीं बांध बन जाने के बाद निगरानी व मूल्यांकन की प्रक्रिया अक्सर अपनाई नहंी जाती है, तभी अनुभवों से सीखने व उसके अनुरूप सुधार करने की बात नदारत है ।
कुछ साल पहले जारी हुई विष्व बांध आयोग  की एक रिपोर्ट  समता, टिकाऊपन, कार्यक्षमता, भागीदारीपूर्ण निर्णय प्रक्रिया और जवाबदेही जैसे पांच मूल्यों पर आधारित थी और इसमें स्पश्ट कर दिया गया था कि ऐसे निर्माण उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे हैं । विष्व बांध आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बांधों से बेहतर परिणाम पाने के लिए कई सुझाव भी दिए थे । इसमें किसी बड़े बांध को बनाने से पहले उसकी सार्वजनिक स्वीकृति प्राप्त करना, उसके विकल्पों पर समग्र विचार करना, मौजूदा बांधो के अनुभवों के अनुसार कार्य करना आदि षामिल हैं । जिस नदी को बांध जा रहा हो, उसके पर्यावरणीय तंत्र और उस पर आश्रित लोगों की जरूरतों व सामाजिक मूल्यों को समझने से पुनर्वास के दर्द को कुछ कम किया जा सकता है । इसके अलावा जिन इलाके के लेाग बांध बनाने की त्रासदी का षिकार हो रहे हैं, बांध की सुविधाओं के लाभ में वहीं के लेागों की प्राथमिकता सुनिष्चित करना आवष्यक है ।
पुराने जलाषयों की मरम्मत, प्राकृतिक जलप्रपातों का इस्तेमाल, बेहतर जल प्रबंधन कुछ ऐसेे छोटे-छोटे प्रयोग हैं जो कि बड़े बांधों का सषक्त विकल्प बन सकते हैं । तेजी से बढ़ रही आबादी , भूमि के उपयोग में बदलाव और, प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ते खतरे कुछ ऐसे कारक हैं जो कि किसी ऐसी परियोजना की प्रासंगिकता पर प्रष्न चिन्ह लगाते हैं जिसके निर्माण में कई साल  लगने हों व बड़ी पूंजी का निवेष होना हो । ऐसे निर्माण महज कुछ ठेकेदारों व औद्योगिक घरानों के अलावा किसी के हित में नहीं हैं ।

पंकज चतुर्वेदी
नेषनल बुक ट्रस्ट
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