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पंकज चतुर्वेदी
पिछले दिनों अखबार में दो समाचार एक ही दिन छपे। पहले में दिल्ली से सटे उत्तरप्रदेष के एक जिले में सरकारी स्कूल के एक टीचर को लानत-मनानत दी गई थी, क्योंकि उसने बच्चों से अपनी कक्षा की सफाई करवाई थी। दूसरी खबर भी उत्तरप्रदेष से ही थी - स्थानीय निकाय में सफाई कर्मचारी की खाली जगहों के लिए एम.ए. पास लोगों ने अर्जी दी, इनमें कई सामान्य और उच्च जातियों से थे। पहली खबर के खलनायक घोशित षिक्षक को तो उसके अफसरों ने बाकायदा कारण बताओं नोटिस जारी किया गया है। ऐसे लोगों केी कमी नहीं होगी, जो बच्चों से कक्षा में झाड़ू लगवाने को बाल अधिकार, बाल श्रम या बच्चों के षोशण से जोड़ कर देखते हों और उनकी निगाह में ऐसा करने वाला षिक्षक एक हैवान हो। ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में होंगे जो उच्च षिक्षा या ऊंची जाति के लोगों द्वारा सफाईकर्मी के लिए अर्जी देने को देष मेें बढ़ती बेरोजगारी, दुर्गति और षिक्षा के अवमूल्यीकरण से जोड़ कर देख रहे होंगे। क्या कभी ऐसा सोचा गया कि आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी आम हिंदुस्तानी ना तो श्रम की कीमत समझा है और ना ही षिक्षा का उद्देष्य। हम अभी भी मान कर बैठे हैं कि डिगरी पाने का मतलब कुरसी पर बैठ कर बाबूगिरी करना ही है,जैसा कि लार्ड मैकाले ने सोचा था। हम अभी भी यह समझ नहीं पाए हैं कि जब तक श्रम को उसका सम्मान नहीं मिलेगा, देष में सामाजिक-साहचर्य स्थापित नहीं किया जा सकेगा ।
क्या अपने घर की सफाई करना दोयम दर्जे का काम है ? क्या षौचालय को साफ करना अछूत कर्म है ? क्या एम.ए की डिगरी पा कर खेत या खलिहान में काम करना सम्मान के विरूद्ध है ? इन सभी संषयों/भ्रांतियों का जवाब महात्मा गांधी के दर्षन से मिल जाता है। एनसीईआरटी द्वारा प्रकाषित पुस्तक ‘‘बहुरूप गांधी’’ में इंग्लैंड से बारएट ला गांधी को लेखक-प्रकाषक, सपेरे, मोची और सफाईकर्मी के रूप में बड़े ही सहज तरीके से बताया गया है। गांधीजी की बुनियादी षिक्षा में ‘‘षिक्षण में समवाय’’ की बात कही गई है। समवाय यानी जिस तरह कपड़े बुनने की खड्डी में तागे को दाएं-बाएं दोनो तरफ से लिया जाता है, उसी तरह पढ़ाई में पाठ्यक्रम और व्यावहारिक ज्ञान साथ-साथ बुनना चाहिए। अभी कुछ साल पहले तक ही स्कूलों में बागवानी, पाककला आदि अनिवार्य हुआ करते थे। गांधीजी के समवाय में अपनी और अपने परिवेष की सफाई महत्वपूर्ण अंग रही है। सरकार बदलने के साथ पाठ्यक्रम बदलते रहे। इस बार की नई किताबों में तो बिजली का फ़्यूज जोड़ने, षौचालय की सफाई जैसे विशयांे पर पाठ हैं। विडंबना है कि जब ये बातें जीवन में अमली जामा पहनने लगती हैं तो सरकार व समाज अजीब तरह की आपत्तियां दर्ज करने लगते हैं। एक बच्चा जिस परिसर में पांच-छह घंटे बिताता है, वहां की सफाई के प्रति यदि वह जागरूक रहता है और जरूरत पड़ने पर झाड़ू उठा लेता है तो यह एक सजग समाज की ओर सषक्त कदम ही होगा। क्या किसी एक कर्मचारी के बदौलत स्कूल मंे सफाई की उम्मीद रखना जायज बात है?
अब एयरपोर्ट व बड़े-बड़े माॅल्स में सफाई की बता लें, वहां माहौल अच्छा है, वहां वेतन ठीक-ठाक है तो कई जाति-समाज के लेाग वहां काम कर रहे हैं। इससे पहले जूते के काम के साथ भी यह हंो चुका है। आज चमड़े के बड़े-बड़े कारखाने से ले कर कस्बों में जूतों की दुकान तक पर उन जाति के लोगों का कब्जा है, जो कथित तौर पर उंची जाति कही जाती थी। अब तो चमड़े का काम एक विषेशज्ञ तकनीकी काम हो चुका है। लेदर डिजाईनिंग के बड़े-बड़े संस्थान बड़े-बड़े घर के लोगों को बड़ी-बड़ी फीस के साथ आकर्शित कर रहे हैं। जाहिर है कि जिस काम में धन आने लगता है, वही बाजार का चहेता बन जाता है और फिर वहां कोई जाति-समाज का बंधन नहीं रहता है, वहां केवल एक ही विभाजन रहता है- गरीब और अमीर । यह आज के समाज को जरूर विचारना होगा कि कहीं हम आज के बच्चों को कुछ ज्यादा संरक्षित वातावरण में बड़ा नहीं कर रहे हैं ? विशम परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना करने के लायक हिम्मत और मन देने के लिए किताबों के साथ श्रम, उद्यम और साहस की पुरानी परंपराएं इतनी खराब नहीं है जितना उन्हें प्रचारित किया जा रहा है। असल में डिगरी के मायने दफ्तर में कुर्सी पाने से आगे स्थापित करना है तो स्कूल के दिनों में गमला लगाना या सफााई करना या अन्य कोई कार्य को दोयम या अत्याचार समझने की वृत्ति से मुक्ति जरूरी है।
एक तरफ हम सफाई कर्मचारियों को किसी दूसरे रोजगार में लगाने की बड़ी-बड़ी योजनाएं और वादे करते हैं, दूसरी तरफ अन्य जाति के लोग यदि इस ओर आते हैं तो इसे हिकारत की नजर से देखते हैं, जैसे कि भंगी का जन्म-सिद्ध अधिकार छीना जा रहा हो। एक तरफ हम बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के नारे लगाते हैं, दूसरी ओर अपनी ही कक्षा की सफाई करने पर उसे षोशण का नाम दे देते हैं। लगता है कि हम अपने विकास की वैचारिक दिषा ही नहीं तय कर पा रहे हैं। बाल-षोशण के खिलाफ आवाज उठाने के लिए विदेषों से पोशित संस्थाएं ‘बचपन बचाने’ के नाम पर बच्चे की नैसर्गिक विकास गति के विरूद्ध काम कर रही हैं। बचपन में इंसान की क्षमताएं अधिक होती हैं, वह उस दौर में बहुत कुछ सीख सकता है, जो उसके व देष के भविश्य के लिए सषक्त नींव हो सकता है। यदि कोई बच्चा पढ़ने-लिखने के साथ-साथ स्कूल में ही चरखा चलाना सीख रहा है, वह बिजली की मोटर बांधने की ट्रेनिंग ले रहा है तो इसमें क्या बुराई है। 18-20 साल की उमर में आ कर उसे समझ आए कि उसने जो कारे-कागज बांचे हैं, वह उसके लिए ना तो रोटी जुटा सकते हैं और ना ही सम्मान तो यह विडंबना नहीं हैं ? दो मत नहीं हैं कि बच्चे को खेलने-कूदने, पढ़ने-लिखने, घर-स्कूल में एक सहज व अच्छा माहौल मिलना चाहिए, लेकिन यदि इसके साथ अपने काम स्वयं करने की प्रेरणा भी हो तो क्या बुराई है ? किसी बच्चे के काम सीखने, उसकी काम करने की परिस्थितियां अनुकूल होने, उसका षोशण ना होना सुनिष्चित करने में बहुत अंतर है। यदि कोई बच्चा खेल-खेल में जिंदगी को जीना सीख रहा है तो क्या गलत है ?
पंकज चतुर्वेदी
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