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पंकज चतुर्वेदी
लखनउ के मोहनलाल गंज के एक सरकारी स्कूल में एक विधवा युवती के साथ लगभग उतनी ही न्रिशंश्ता हुई, जितनी लगभग दो साल पहले दिल्ली में ‘दामिनी’ के साथ। ठीक उसी समय बंगलौर के एक फाईव स्टार स्कूल में एक छह साल की बच्ची के साथा पाशविक कृत्य की सूचना आई। जब पूरा देश इन दो घटनाओं से सुलग रहा था तब मध्यप्रदेष के छतरपुर जिले में एक 70 साल के रिश्ते के बाबा ने रमजान के पवित्र महीने में अपनी गूंगी पोती को ही अपनी हवस का षिकार बना लिया। जिस समय लखनउ और बंगलौर कांड के विरोध में देष में कई जगह प्रदर्षन हो रहे थे, ठीक उसी दिन तमिलनाडु के कृश्णानगर जिले के बोडाम पट्टी में एक बीस वर्शीय छात्रा के साथ चार ड्रायवरों ने एक मंदिर परिसर में ना केवल बालात्कार किया, बल्कि उसका वीडियो बना कर इंटरनेट पर अपलोड कर दिया व अपने नाम व फोन नंबर उस लड़की को यह कह कर दिए कि उनकी जब इच्छा होगी, उसे बुलाएंगे। जाहिर है कि इस तरह के अपराधियों को कानून, जनाक्रोष या स्वयं की अनैतिकता पर ना तो डर रह गया है ना ही संवेदना।
दिसंबर-2012 के दामिनी कांड में एक आरोपी की जेल में कथित आत्महत्या हो गई व बाकी की फंासी की सजा पर अदालती रोक चल रही है। उस कांड के बाद बने पास्को कानून में जम कर मुकदमें कायम हो रहे हैं। दामिनी कांड के दौरान हुए आंदोलन की ऊश्मा में सरकारें बदल गईं। उस कांड के बाद हुए हंगामें के बाद भी इस तरह की घटनाएं सतत होना यह इंगित करता है कि बगैर सोच बदल,े केवल कानून से कुछ होने से रहा, तभी देष के कई हिस्सों में ऐसा कुछ घटित होता रहा जो इंगित करता है कि महिलाओं के साथ अत्याचार के विरोध में यदा-कदा प्रज्जवलित होने वाली मोमबत्तियां केवल उन्हीं लोेगों का झकझोर पा रही हैं जो पहले से काफी कुछ संवदेनषील है- समाज का वह वर्ग जिसे इस समस्या को समझना चाहिए -अपने पुराने रंग में ही है - इसमें आम लोग हैं, पुलिस भी है और समूचा तंत्र भी।
दिल्ली में दामिनी की घटना के बाद हुए देषभर के धरना-प्रदर्षनों में षायद करोड़ों मोमबत्त्तिया जल कर धुंआ हो गई हों लेकिन समाज के बड़े वर्ग पर दिलो-दिमाग पर औरत के साथ हुए दुव्र्यवहार को ले कर जमी भ्रांतियों की कालिख दूर नहीं हो पा रही हे। ग्रामीण समाज में आज भी औरत पर काबू रखना, उसे अपने इषारे पर नचाना, बदला लेने - अपना आतंक बरकरार रखने के तरीके आदि में औरत के षरीर को रोंदना एक अपराध नहीं बल्कि मर्दानगी से जोड़ कर ही देखा जाता हे। केवल कंुठा दूर करने या दिमागी परेषानियों से ग्रस्त पुरूश का औरत के षरीर पर बलात हमला महज महिला की अस्मत या इज्जत से जोड़ कर देखा जाता हे। यह भाव अभी भी हम लोगों में पैदा नहीं कर पा रहे हैं कि बलात्कार करने वाला मर्द भी अपनी इज्जत ही गंवा रहा है। हालांकि जान कर आष्चर्य होगा कि चाहे दिल्ली की 45 हजार कैदियों वाली तिहाड़ जेल हो या फिर दूरस्थ अंचल की 200 बंदियों वाली जेल ; बलात्कार के आरोप में आए कैदी की , पहले से बंद कैदियों द्वारा दोयम दर्जें का माना जाता है और उसकी पिटाई या टाॅयलेट सफाई या जमीन पर सोने को विवष करने जैसे स्वघोशित नियम लागू हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जेल जिसे असामाजिक लोगों की बस्ती कहा जाता है, जब वहां बलात्कारी को दोयम माना जाता है तो बिरादरी-पंचायतें- पुलिस इस तरह की धारणा क्यों विकसित नहीं कर पा रही हैं। खाप, जाति बिरादरियां, पंचायतें जिनका गठन कभी समाज के सुचारू संचालन के इरादे से किया गया था अब समानांतर सत्ता या न्याय का अड्डा बन रही है तो इसके पीछे वोट बैंक की सियासत होना सर्वमान्य तथ्य है।
ऐसा नही है कि समय-समय पर बलात्कार या षोशण के मामले चर्चा में नहीं आते हैं और समाजसेवी संस्थाएं इस पर काम नहीं करती हैं, । बाईस साल पहले भटेरी गांव की साथिन भंवरी देवी को बाल विवाह के खिलाफ माहौल बनाने की सजा सवर्णों द्वारा बलातकार के रूप में दी गई थीं उस ममाले को कई जन संगठन सुप्रीम कोर्ट तक ले गए थे और उसे न्याय दिलवाया था। लेकिन जान कर आष्चर्य होगा कि वह न्याय अभी भी अधूरा है । हाई कोर्ट से उस पर अंतिम फैसला नहीं आ पाया है । इस बीच भंवरी देवी भी साठ साल की हो रही हैं व दो मुजरिमों की मौत हो चुकी है। ऐसा कुछ तो है ही जिसके चलते लोग इन आंदालनो, विमर्षों, तात्कालिक सरकारी सक्रिताओं को भुला कर गुनाह करने में हिचकिचाते नहीं हैं। आंकडे गवाह हैं कि आजादी के बाद से बलात्कार के दर्ज मामलों में से छह फीसदी में भी सजा नहीं हुई। जो मामले दर्ज नहीं नहीं हुए वे ना जाने कितने होंगे।
फांसी की मांग, नपुंसक बनाने का षोर, सरकार को झुकाने का जोर ; सबकुछ अपने- अपने जगह लाजिमी हैं लेकिन जब तक बलात्कार को केवल औरतों की समस्या समझ कर उसपर विचार किया जाएगा, जब तक औररत को समाज की समूची ईकाई ना मान कर उसके विमर्ष पर नीतियां बनाई जाएंगी; परिणा अधूरे ही रहें्रे। फिर जब तक सार्वजनिक रूप से मां-बहन की गाली बकना , धूम्रपान की ही तरह प्रतिबंधित करने जैसे आघारभूत कदम नहीं उठाए जाते , अपने अहमं की तुश्टि के लिए औरत के षरीर का विमर्ष सहज मानने की मानवीय वत्त्ृिा पर अंकुष नहीं लगाया जा सकेगा। भले ही जस्टिस वर्मा कमेटी सुझाव दे दे, महिला हेल्प लाईन षुरू हो जाए- एक तरफ से कानून और दूसरी ओर से समाज के नजरिये में बदलाव की कोषिष एकसाथ किए बगैर असामनता, कुंठा, असंतुश्टि वाले समाज से ‘‘रंगा-बिल्ला’’ या ‘‘राम सिंह-मुकेष’’ या रामसेवक यादव की पैदाईष को रोका नहीं जा सकेगा।
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