आप भी तो जनता की इज्जत का ख्याल करो !
पंकज चतुर्वेदी
16वीं संसद में भी बेकाम के हंगामें और उसके चलते संसद का कामकाज ठप्प होने की पुरानी परंपरा जारी है। प्रधानमंत्रीजी ने स्वयं पकड़ा कि 30 सांसद सुबह आकर हाजिरी तो लगा गए, लेकिन सारे दिन गायब रहे। इन दिनों हमारे भाग्यविधाताओं को अपनी इज्जत और सुविधाओं का बड़ा खयाल आ रहा है, अपनी यानी खुद की , खुद की अर्थात निहायत निजी- अपनी ....ना देष की , ना जानता की , ना ही उस संसद की जिसके बदौलत वे ताजिंदगी जनता की करों से एकत्र गाढी कमाई खाने के हकदार बन जाते हैं। हकीकत में यदि ऐसा कृत्य कोई अन्य सरकारी महकमा करे तो सारे कर्मचारियों की नौकरी खतरे में आना तय है। संसद में जनता की सेवा के लिए आए माननीय काम ना करने के बावजूद वेतन या सुविधाएं लेने में हिचकते नहीं हैं। कई सांसद तो पूरे पांच साल एक लफ्ज नहीं बोलते तो कुछ केवल हंगामा, सभापति की कुर्सी की ओर आ कर नारेबाजी और भीड़ बढाने में ही लिप्त रहते हैं। सांसदों की विकास निधि खर्च नहीं होती है या फिर फिजूलखर्ची होती है। पैसे ले कर प्रष्न पूछना और वोट देना तो जाहिरा सिद्ध हो चुका है। तिस पर विषेशाधिकार का तुर्रा।
जरा सोचिए ग्यारहवीं लोकसभा के दौरान हंगामें या व्यवधान के कारण समय की बर्बादी कुल कार्य के घंटों की महज पांच फीसदी थी। 12वीं लोकसभा में यह आंकड़ा बढ कर दुगना यानी दस प्रतिषत हो गया। 13वीं लोकसभा के समय का 19 प्रतिषत और 14वीं लोकसभा के पांच सालों में 38 फीसदी समय उधम, हंगामें में गया। सन 2012 के बजट सत्र के निर्धारित 21 दिन के 181 घंटों में से 13 दिन यूंही बर्बाद हुए। जब संसद में 100 से अधिक महत्वपूर्ण बिल लंबित हों, जिनमें लोकपाल, न्यायिक जवाबदेही, भूमि अधिग्रहण, प्रत्यक्षकर कोड जैसे आम लोगों से जुड़े मसले हों ; सांसद मनमाने तरीके से आते हैं, हंगामा करते हैं और चले जाते हैं। लोकसभा में काम हो या नहीं इसके संचालन का खर्च हर रोज कोई दो करोड रूपए है। संासद महोदय को हर महीने कोई एक लाख चालीस हजार रूप्ए महीने वेतन मिलता है - बारह से चैदह घंटे काम करने वाले किसी आईएएस अफसर से कहीं ज्यादा। इसके अलावा महज संसद के रजिस्टर पर दस्तखत कर दो हजार रूपए रोज का भत्ता अलग से । क्या सांसद यह स्वीकार कर पाएंगे कि उनके इलाके का कलक्टर या चपरासी केवल दफ्तर आए और बगैर काम के वेतन ले जाए ? क्या हम अपने जन प्रतिनिधि से इतनी नैतिकता की उम्मीद नहीं कर सकते कि जिस दिन उन्होंने काम ना किया हो या जितने दिन सदन का सत्र होने के बावजूद वे दिल्ली में ही ना हों , उतने दिन का वेतन या भत्ता वे खुद अस्वीकार कर दें।
अभी दो महीने पहले तक भाजपा जब विपक्ष में थी तो यही करती थी और अब वह अपने विपक्ष पर सदन में व्यवधान का आरोप लगा रही है।याद करें सन 2004 में वरिश्ठ वकील और सांसद फली एस नरीमन ने संसदीय कार्यवाही में रूकावट डालने वाले सांसदों को बैठक भत्ता का भुगतान ना करने संबंधी बिल पेष किया था। उसके बाद सन 2009 में श्री राजगोपाल ने संसद की कार्यवाही में व्यवधान करने वाले सांसदों की सदस्यता समाप्त करने का बिल पेष किया था। कहने की जरूरत नहीं है कि उनका वहीं अंत हो गया क्योंकि उन्हें समर्थक ही नहीं मिले। हंगामा करने, काम रोकने की आदत अब केवल संसद तक सीमित नहीं रह गई है , विधानसभाएं तो ठीक ही हैं, स्थानीय नगरपालिकाएं भी अब प्रतिनिधियों के अमर्यादित व्यवहार से आहत महसूस कर रही हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान में षासन करने की लोकतंत्र के अलावा अन्य कोई कारगर व्यवस्था मौजूद नहीं है, लेकिन यह भी जरूरी हो गया है कि लोकतंत्र के पहरेदार कहे जाने वाले जन प्रतिनिधियों को उनके कर्तव्यों का पाठ पढाने के लिए कड़े कानूनों की जरूरत है। षायद ‘‘राईट टू री काल’’ जैसा प्रावधान एक अराजक स्थिति बना दे, लेकिन सदन की कार्यवाही में व्यवधान को राश्ट्रीय संपत्ति के नुकसान की तरह अपराध मानना, लगातार उधमक रने वाले जन प्रतिनिधियों को भविश्य के लिए प्रतिबंधित करना, प्रत्येक सत्र के न्यूनतम कार्य घंटे तय करना, प्रत्येक सांसद या जन प्रतिनिधि की अपने सदन में न्यूनतम हाजरी और समय तय करने ैसे कदम तो तत्काल उठाए जा सकते हैं। हां यह भी जरूरी है कि जनता अपने प्रतिनिधि से सवाल करे कि उन्हें जिस कार्य के लिए चुन कर भेजा था, उन्होंने उसमें से कितना ईमानदारी से निभाया। एक बात और सुविधाओं, अधिकारों और रूतबे ने जन प्रतिनिधि को जन से दूर कर दिया है, अब समय आ गया है कि जनता के सही नेता का दावा करने वालों को न्यूनतम वेतन और सुविधाओं के अनुरूप काम करने के लिए कहा जाए - जो असली नेता होगा वह काम करेगा, जो पैसा कमाने आया है वह छोड कर चला जाएगा। ऐसे में संसद या अन्य सदनों में काम के प्रति गंभीरता और निश्ठा दिखेगी, नाकि दस्तखत कर दो हजार लेने वाले वहां जा कर सोते-ऊंघते या केंटीन का लाजबाब भोजन उड़ाते दिखेंगे।
क्या अब आम आदमी को यह सवाल अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि से नहीं करना चाहिए कियदि वे वास्तक में जन सेवा करना चाहते हैं तो विकास योजनाओं के मद में एकत्र टैक्स से निजी एैयाषी को ठुकराने की हिम्मत क्यों नहीं करते हैं ? देष में लोकसभा व विधान सभा के अलावा स्थानीय निकाय व पंचायत तक के जन प्रतिनिधि हैं । प्रत्येक को अपेन-अपने स्तर पर कई सुविधाएं मिली हुई हैं । इनमें से जनता के प्रति जवाबदेही का पालन विरले ही कर रहे हैं । लगता है कि यह लोकतंत्र के नवाबों का नया संस्करण तैयार हो रहा है ।
पंकज चतुर्वेदी
पंकज चतुर्वेदी
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16वीं संसद में भी बेकाम के हंगामें और उसके चलते संसद का कामकाज ठप्प होने की पुरानी परंपरा जारी है। प्रधानमंत्रीजी ने स्वयं पकड़ा कि 30 सांसद सुबह आकर हाजिरी तो लगा गए, लेकिन सारे दिन गायब रहे। इन दिनों हमारे भाग्यविधाताओं को अपनी इज्जत और सुविधाओं का बड़ा खयाल आ रहा है, अपनी यानी खुद की , खुद की अर्थात निहायत निजी- अपनी ....ना देष की , ना जानता की , ना ही उस संसद की जिसके बदौलत वे ताजिंदगी जनता की करों से एकत्र गाढी कमाई खाने के हकदार बन जाते हैं। हकीकत में यदि ऐसा कृत्य कोई अन्य सरकारी महकमा करे तो सारे कर्मचारियों की नौकरी खतरे में आना तय है। संसद में जनता की सेवा के लिए आए माननीय काम ना करने के बावजूद वेतन या सुविधाएं लेने में हिचकते नहीं हैं। कई सांसद तो पूरे पांच साल एक लफ्ज नहीं बोलते तो कुछ केवल हंगामा, सभापति की कुर्सी की ओर आ कर नारेबाजी और भीड़ बढाने में ही लिप्त रहते हैं। सांसदों की विकास निधि खर्च नहीं होती है या फिर फिजूलखर्ची होती है। पैसे ले कर प्रष्न पूछना और वोट देना तो जाहिरा सिद्ध हो चुका है। तिस पर विषेशाधिकार का तुर्रा।
जरा सोचिए ग्यारहवीं लोकसभा के दौरान हंगामें या व्यवधान के कारण समय की बर्बादी कुल कार्य के घंटों की महज पांच फीसदी थी। 12वीं लोकसभा में यह आंकड़ा बढ कर दुगना यानी दस प्रतिषत हो गया। 13वीं लोकसभा के समय का 19 प्रतिषत और 14वीं लोकसभा के पांच सालों में 38 फीसदी समय उधम, हंगामें में गया। सन 2012 के बजट सत्र के निर्धारित 21 दिन के 181 घंटों में से 13 दिन यूंही बर्बाद हुए। जब संसद में 100 से अधिक महत्वपूर्ण बिल लंबित हों, जिनमें लोकपाल, न्यायिक जवाबदेही, भूमि अधिग्रहण, प्रत्यक्षकर कोड जैसे आम लोगों से जुड़े मसले हों ; सांसद मनमाने तरीके से आते हैं, हंगामा करते हैं और चले जाते हैं। लोकसभा में काम हो या नहीं इसके संचालन का खर्च हर रोज कोई दो करोड रूपए है। संासद महोदय को हर महीने कोई एक लाख चालीस हजार रूप्ए महीने वेतन मिलता है - बारह से चैदह घंटे काम करने वाले किसी आईएएस अफसर से कहीं ज्यादा। इसके अलावा महज संसद के रजिस्टर पर दस्तखत कर दो हजार रूपए रोज का भत्ता अलग से । क्या सांसद यह स्वीकार कर पाएंगे कि उनके इलाके का कलक्टर या चपरासी केवल दफ्तर आए और बगैर काम के वेतन ले जाए ? क्या हम अपने जन प्रतिनिधि से इतनी नैतिकता की उम्मीद नहीं कर सकते कि जिस दिन उन्होंने काम ना किया हो या जितने दिन सदन का सत्र होने के बावजूद वे दिल्ली में ही ना हों , उतने दिन का वेतन या भत्ता वे खुद अस्वीकार कर दें।
अभी दो महीने पहले तक भाजपा जब विपक्ष में थी तो यही करती थी और अब वह अपने विपक्ष पर सदन में व्यवधान का आरोप लगा रही है।याद करें सन 2004 में वरिश्ठ वकील और सांसद फली एस नरीमन ने संसदीय कार्यवाही में रूकावट डालने वाले सांसदों को बैठक भत्ता का भुगतान ना करने संबंधी बिल पेष किया था। उसके बाद सन 2009 में श्री राजगोपाल ने संसद की कार्यवाही में व्यवधान करने वाले सांसदों की सदस्यता समाप्त करने का बिल पेष किया था। कहने की जरूरत नहीं है कि उनका वहीं अंत हो गया क्योंकि उन्हें समर्थक ही नहीं मिले। हंगामा करने, काम रोकने की आदत अब केवल संसद तक सीमित नहीं रह गई है , विधानसभाएं तो ठीक ही हैं, स्थानीय नगरपालिकाएं भी अब प्रतिनिधियों के अमर्यादित व्यवहार से आहत महसूस कर रही हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान में षासन करने की लोकतंत्र के अलावा अन्य कोई कारगर व्यवस्था मौजूद नहीं है, लेकिन यह भी जरूरी हो गया है कि लोकतंत्र के पहरेदार कहे जाने वाले जन प्रतिनिधियों को उनके कर्तव्यों का पाठ पढाने के लिए कड़े कानूनों की जरूरत है। षायद ‘‘राईट टू री काल’’ जैसा प्रावधान एक अराजक स्थिति बना दे, लेकिन सदन की कार्यवाही में व्यवधान को राश्ट्रीय संपत्ति के नुकसान की तरह अपराध मानना, लगातार उधमक रने वाले जन प्रतिनिधियों को भविश्य के लिए प्रतिबंधित करना, प्रत्येक सत्र के न्यूनतम कार्य घंटे तय करना, प्रत्येक सांसद या जन प्रतिनिधि की अपने सदन में न्यूनतम हाजरी और समय तय करने ैसे कदम तो तत्काल उठाए जा सकते हैं। हां यह भी जरूरी है कि जनता अपने प्रतिनिधि से सवाल करे कि उन्हें जिस कार्य के लिए चुन कर भेजा था, उन्होंने उसमें से कितना ईमानदारी से निभाया। एक बात और सुविधाओं, अधिकारों और रूतबे ने जन प्रतिनिधि को जन से दूर कर दिया है, अब समय आ गया है कि जनता के सही नेता का दावा करने वालों को न्यूनतम वेतन और सुविधाओं के अनुरूप काम करने के लिए कहा जाए - जो असली नेता होगा वह काम करेगा, जो पैसा कमाने आया है वह छोड कर चला जाएगा। ऐसे में संसद या अन्य सदनों में काम के प्रति गंभीरता और निश्ठा दिखेगी, नाकि दस्तखत कर दो हजार लेने वाले वहां जा कर सोते-ऊंघते या केंटीन का लाजबाब भोजन उड़ाते दिखेंगे।
क्या अब आम आदमी को यह सवाल अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि से नहीं करना चाहिए कियदि वे वास्तक में जन सेवा करना चाहते हैं तो विकास योजनाओं के मद में एकत्र टैक्स से निजी एैयाषी को ठुकराने की हिम्मत क्यों नहीं करते हैं ? देष में लोकसभा व विधान सभा के अलावा स्थानीय निकाय व पंचायत तक के जन प्रतिनिधि हैं । प्रत्येक को अपेन-अपने स्तर पर कई सुविधाएं मिली हुई हैं । इनमें से जनता के प्रति जवाबदेही का पालन विरले ही कर रहे हैं । लगता है कि यह लोकतंत्र के नवाबों का नया संस्करण तैयार हो रहा है ।
पंकज चतुर्वेदी
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