द सी एक्सप्रेस, आगरा के मेरे साप्ताहिक कालम में आज कर्नाटक के कुछ ऐसे गांवों की चर्चा जिनकी अधिकांश आबादी बहरी है, लेकिन सरकारी रिकार्उ में वे विकलांग नहीं हैं, इसे इस लिंक http://theseaexpress.com/Details.aspx?id=66315&boxid=158551488या मेरे ब्लाग pankajbooks.blogspot.inपर पढ सकते हैं
हां! सरकारें ऊंचा सुनती हैं
पंकज चतुर्वेदी
पूरा गांव या तो सुन नही ंपाता है या फिर जोर से बोलो तो कुछ सुन पाता है। कहने को यह आदिवासी बाहुल्य गांव है, लेकिन कई पीढि़यों से यहां यही हालात हैं, ना तो कोई षोध हो रहा है और ना ही कोई इलाज। यह दर्द है कनार्टक के उत्तरी कन्नड़ा जिले के बासवन्नाकोप्पा गांव का यह गांव तालुका मुख्यालय मुंदगोड से कोई 18 किलोमीटर दूर है। यहां पीढी दर पीढी बहरेपन से सारा गांव परेषान है। पहले कान से कुछ चिपचिपा सा पदार्थ निकलता है और फिर धीरे-धीरे सुनने की क्षमता चुकती जाती है। यह कहानी घने जंगलों के बीच बसे कई और गांवों की भी जहां के वाषिंदे आवाजों को महसूस करने से मोहताज होते जा रहे हैं।
बासवन्नाकोप्पा गांव में कुछ घर सिद्दी व हरिजनों के हैं, लेकिन बहुसंख्यक आबादी ‘केरेवोक्कालिंगा’ नामक जनजाति की है। सौ से अधिक आबादी में से कोई साठ कान के रोगी है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि यह रोग केवल इसी जाति के लेागों में है, यहीं निवास करने वाली अन्या जातियों में नहीं।यहां से दो किजोमीटर दूर स्थित गांव ‘सुल्लाली’ को भी केप्पा यानी बहरी-बस्ती कहते हैं। यहां भी तीन-चैथाई वाषिंदे केरेवोक्कालिंगा ही हैं। यहां इस बीमारी का आगमन कोई 35 सालों के दौरान हुआ है। इन दोनों गावांे में स्कूल जाने वाले बच्चे कान कमजोर होने के ज्यादा षिकार हैं और इससे उनकी पढ़ाई भी प्रभवित हो रही है।
जैसा कि आमतौर पर कहा जाता है कि जो बच्चे बहरे होते हैं वे गूंगे भी होते हैं, लेकिन केरेवोक्कालिंगा लोगों में ऐसा नहीं है।यहां तक कि जन्मजात बहरे बच्चे भी बोलने में कोई दिककत नहीं महसूस करते हैं। यहा ंबहरेपन की षुरूआत कान बहने से होती है। छोटे बच्चों के कान पहले दुखने षुरू होते हैं, फिर रिसाव और उसके बाद श्रवण क्षमता का क्षय। सबकुछ पिछले कई दषकों से चल रहा है, इसके बावजूद इलाज के नाम पर नीम-हकीमी नुस्खों का ही जोर है। इमली के पेड़ की छाल को जला कर उसमें नीबू का रस मिला कर बनाया गया नुस्खा या फिर किसी भी तेल में तुलसी का छोंक लगा कर बनाई गई कथित दवा ही यहां ज्यादा प्रचलित है। कुछ लोग षहरी डाक्टसे अंग्रेजी दवा भी लाए, डाक्टर ने इनफेक्ष्षन या एलर्जी की दवाएं दीं। इसमें से कुछ भी कारगर नहीं रहा और अब आदिवासी इसे अपनी नियति मान कर अपने देवी-देवताओं से मनाते हैं कि उनके यहां बच्चों को यह रोग ना लगे।
आदिवासियों के ओझा ‘गुडिगा’ का प्रचार है कि ‘किलुदेव’ की नाराजी के चलते यह रोग गांव में बस गया है। देवता के श्राप की मुक्ति के नाम पर गुडिगा खूब कमाता है। जब किसी धर में कोई महिला गर्भवती होती है तो उसकी उड़ कर लगती है। आने वाले बच्चे को देवा के प्रकोप से बचाने के नाम पर खूब भेंट मिलती हे। कई बार नवजात षिषु के कान में भी बगैर जाने-समझे नुस्खे आजमाए जाते हैं। इसी का परिणाम होता है कि कान बहने का रोग बहरेपन में बदल जाता है।
हालांकि इस गांव में प्राथमिक षाला खुले तीस साल हो गए हैं, लेकिन बहरेपन के कारण बच्चे स्कूल आते नहीं हैं। यहां दाई-नर्स भी आती है और उसकी मानें तो वह अपने अफसर डाक्टरों को बहरे गांवों की दिक्कत बताती रही है, लेकिन ऊपर से ही उनके लिए कोई दवा नहीं आती है। जिला प्रषासन इस तरह बहरों के गांव हाने पर अनभिज्ञता जाता है। वैसे यह बहरापन इन गावों का नहीं, बल्कि सरकारी सिस्टम का है। इस बात का रिकार्ड उपलब्ध है कि सन 1980 में मुंदगोड केे तहसीलदार ने जिला प्रषासन को ‘बहरे गाव’ के बारे में सूचना भेजी थी। फिर तहसीलदार का तबादला हो गया व रिपोर्ट लाल बस्ते में गुम हो गई। एक बात और इलाके में विकलांगता के सर्वे में भी यहां का रिकार्ड षामिल नहीं होता है।
यदि स्थानीय डाक्टरों की मानें तो कुछ गांवों में जन्मजात बहरेपन के मुख्य कारण हैं - गर्भवती महिलाओं को पेाशक आहार की कमी,नजदीकी रिष्तों में विवाह होना, माता-पिता में गुप्त रोग और नवजात के कानों में गुनिया-ओझा के प्रयोग। यह बात भी सामने आई है कि बहरापन एक आनुवांषिकी रोग है और लगातार एक ही रक्त-कुल में विवाह करने से यह बढ़ता जाता है। ये लोग आपस के नजदीकी रिष्तों में ही षादी करते हैं । एक तो यह उनकी परंपरा है और फिर ये इलाके इतने बदनाम हो गए हैं कि अन्य कोई गांव के लोग ‘बहरों के गांव में ’’ रिष्ते को राजी नहीं होते हैं। जबकि कान बहने की समस्या की जड़ में मूल रूप से गंदे पानी से नहाना व वह पानी कान में जाना या बच्चों को रोग प्रतिरोधक टीके नहीं लगवाना है। केरेवोक्कालिंगा गांवों में यह सभी समस्याएं हैं ही।यहां पीने के पानी के सुरक्षित स्त्रोत हें नहीं। यहां कई साल पहले लिफ्ट इरीगेषन की एक परियोजना षुरू हुई थी, लेकिन वह आधी-अधूरी ही रही। सुल्लाली गांव में तो अभी भी लेाग खुले कुंए का पानी ही पीते हैं।
सनद रहे एक ऐसा ही गांव उत्तरी कन्नडा से कई हजार किलोमीटर दूर झारखंड के देवघर जिले में भी है। झूमरवाड नामक इस गांव की आबादी मुस्लिम हैं और यहां भी हर दूसरा चेहरा कम सुनने वाला है। हो सकता हे कि ऐसे कई और गांव देष के आंचलिक क्षेत्रों में हों। यहां साफ-सफाई के प्रति जागरूकता, साफ पानी की व्यवस्था, पुष्तों से बहरेपन के कारणों का पता लगाने के लिए विषेश षोध की व्यवस्था और इसके लिए माकूल दवा के खास इंतजाम जरूरी है। यह दुखद है कि विज्ञान के क्षेत्र में अंतरिक्ष पर काबिज होने के लिए काबिल इंसान उनके इलाज की तो बात दूर , ऐसे गांवंो ंव उनकी दिक्कतों से वाकिफ नहीं है।
हां! सरकारें ऊंचा सुनती हैं
पंकज चतुर्वेदी
पूरा गांव या तो सुन नही ंपाता है या फिर जोर से बोलो तो कुछ सुन पाता है। कहने को यह आदिवासी बाहुल्य गांव है, लेकिन कई पीढि़यों से यहां यही हालात हैं, ना तो कोई षोध हो रहा है और ना ही कोई इलाज। यह दर्द है कनार्टक के उत्तरी कन्नड़ा जिले के बासवन्नाकोप्पा गांव का यह गांव तालुका मुख्यालय मुंदगोड से कोई 18 किलोमीटर दूर है। यहां पीढी दर पीढी बहरेपन से सारा गांव परेषान है। पहले कान से कुछ चिपचिपा सा पदार्थ निकलता है और फिर धीरे-धीरे सुनने की क्षमता चुकती जाती है। यह कहानी घने जंगलों के बीच बसे कई और गांवों की भी जहां के वाषिंदे आवाजों को महसूस करने से मोहताज होते जा रहे हैं।
बासवन्नाकोप्पा गांव में कुछ घर सिद्दी व हरिजनों के हैं, लेकिन बहुसंख्यक आबादी ‘केरेवोक्कालिंगा’ नामक जनजाति की है। सौ से अधिक आबादी में से कोई साठ कान के रोगी है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि यह रोग केवल इसी जाति के लेागों में है, यहीं निवास करने वाली अन्या जातियों में नहीं।यहां से दो किजोमीटर दूर स्थित गांव ‘सुल्लाली’ को भी केप्पा यानी बहरी-बस्ती कहते हैं। यहां भी तीन-चैथाई वाषिंदे केरेवोक्कालिंगा ही हैं। यहां इस बीमारी का आगमन कोई 35 सालों के दौरान हुआ है। इन दोनों गावांे में स्कूल जाने वाले बच्चे कान कमजोर होने के ज्यादा षिकार हैं और इससे उनकी पढ़ाई भी प्रभवित हो रही है।
जैसा कि आमतौर पर कहा जाता है कि जो बच्चे बहरे होते हैं वे गूंगे भी होते हैं, लेकिन केरेवोक्कालिंगा लोगों में ऐसा नहीं है।यहां तक कि जन्मजात बहरे बच्चे भी बोलने में कोई दिककत नहीं महसूस करते हैं। यहा ंबहरेपन की षुरूआत कान बहने से होती है। छोटे बच्चों के कान पहले दुखने षुरू होते हैं, फिर रिसाव और उसके बाद श्रवण क्षमता का क्षय। सबकुछ पिछले कई दषकों से चल रहा है, इसके बावजूद इलाज के नाम पर नीम-हकीमी नुस्खों का ही जोर है। इमली के पेड़ की छाल को जला कर उसमें नीबू का रस मिला कर बनाया गया नुस्खा या फिर किसी भी तेल में तुलसी का छोंक लगा कर बनाई गई कथित दवा ही यहां ज्यादा प्रचलित है। कुछ लोग षहरी डाक्टसे अंग्रेजी दवा भी लाए, डाक्टर ने इनफेक्ष्षन या एलर्जी की दवाएं दीं। इसमें से कुछ भी कारगर नहीं रहा और अब आदिवासी इसे अपनी नियति मान कर अपने देवी-देवताओं से मनाते हैं कि उनके यहां बच्चों को यह रोग ना लगे।
आदिवासियों के ओझा ‘गुडिगा’ का प्रचार है कि ‘किलुदेव’ की नाराजी के चलते यह रोग गांव में बस गया है। देवता के श्राप की मुक्ति के नाम पर गुडिगा खूब कमाता है। जब किसी धर में कोई महिला गर्भवती होती है तो उसकी उड़ कर लगती है। आने वाले बच्चे को देवा के प्रकोप से बचाने के नाम पर खूब भेंट मिलती हे। कई बार नवजात षिषु के कान में भी बगैर जाने-समझे नुस्खे आजमाए जाते हैं। इसी का परिणाम होता है कि कान बहने का रोग बहरेपन में बदल जाता है।
हालांकि इस गांव में प्राथमिक षाला खुले तीस साल हो गए हैं, लेकिन बहरेपन के कारण बच्चे स्कूल आते नहीं हैं। यहां दाई-नर्स भी आती है और उसकी मानें तो वह अपने अफसर डाक्टरों को बहरे गांवों की दिक्कत बताती रही है, लेकिन ऊपर से ही उनके लिए कोई दवा नहीं आती है। जिला प्रषासन इस तरह बहरों के गांव हाने पर अनभिज्ञता जाता है। वैसे यह बहरापन इन गावों का नहीं, बल्कि सरकारी सिस्टम का है। इस बात का रिकार्ड उपलब्ध है कि सन 1980 में मुंदगोड केे तहसीलदार ने जिला प्रषासन को ‘बहरे गाव’ के बारे में सूचना भेजी थी। फिर तहसीलदार का तबादला हो गया व रिपोर्ट लाल बस्ते में गुम हो गई। एक बात और इलाके में विकलांगता के सर्वे में भी यहां का रिकार्ड षामिल नहीं होता है।
यदि स्थानीय डाक्टरों की मानें तो कुछ गांवों में जन्मजात बहरेपन के मुख्य कारण हैं - गर्भवती महिलाओं को पेाशक आहार की कमी,नजदीकी रिष्तों में विवाह होना, माता-पिता में गुप्त रोग और नवजात के कानों में गुनिया-ओझा के प्रयोग। यह बात भी सामने आई है कि बहरापन एक आनुवांषिकी रोग है और लगातार एक ही रक्त-कुल में विवाह करने से यह बढ़ता जाता है। ये लोग आपस के नजदीकी रिष्तों में ही षादी करते हैं । एक तो यह उनकी परंपरा है और फिर ये इलाके इतने बदनाम हो गए हैं कि अन्य कोई गांव के लोग ‘बहरों के गांव में ’’ रिष्ते को राजी नहीं होते हैं। जबकि कान बहने की समस्या की जड़ में मूल रूप से गंदे पानी से नहाना व वह पानी कान में जाना या बच्चों को रोग प्रतिरोधक टीके नहीं लगवाना है। केरेवोक्कालिंगा गांवों में यह सभी समस्याएं हैं ही।यहां पीने के पानी के सुरक्षित स्त्रोत हें नहीं। यहां कई साल पहले लिफ्ट इरीगेषन की एक परियोजना षुरू हुई थी, लेकिन वह आधी-अधूरी ही रही। सुल्लाली गांव में तो अभी भी लेाग खुले कुंए का पानी ही पीते हैं।
सनद रहे एक ऐसा ही गांव उत्तरी कन्नडा से कई हजार किलोमीटर दूर झारखंड के देवघर जिले में भी है। झूमरवाड नामक इस गांव की आबादी मुस्लिम हैं और यहां भी हर दूसरा चेहरा कम सुनने वाला है। हो सकता हे कि ऐसे कई और गांव देष के आंचलिक क्षेत्रों में हों। यहां साफ-सफाई के प्रति जागरूकता, साफ पानी की व्यवस्था, पुष्तों से बहरेपन के कारणों का पता लगाने के लिए विषेश षोध की व्यवस्था और इसके लिए माकूल दवा के खास इंतजाम जरूरी है। यह दुखद है कि विज्ञान के क्षेत्र में अंतरिक्ष पर काबिज होने के लिए काबिल इंसान उनके इलाज की तो बात दूर , ऐसे गांवंो ंव उनकी दिक्कतों से वाकिफ नहीं है।
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