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गुरुवार, 4 सितंबर 2014

Is it true for Muslim???

क्या मुसलमान ऐसे होते हैं?


प्रदीप कुमार
Book review
ND
मौजूदा समय में पूरी दुनिया में समुदाय को शक और संदेह की नजर से देखा जाता है। यही वजह है कि जब शाहरुख खान अपनी एक फिल्म में संवाद बोलते हैं, माय नेम इज खान, एंड आई एम नॉट ए टेररिस्ट। तो दुनिया भर के उस फिल्म को देखने टूट पड़ते हैं। फिल्म की विश्वव्यापी कामयाबी बताती है कि दुनिया का हर मुसलमान भले ही वह किसी देश में क्यों न रह रहा हो, कहना चाहता है- आई एम नॉट ए टेररिस्ट।

हम भले धर्मनिरपेक्ष देश हों, हमारे यहाँ सांप्रदायिक सद्भाव के असंख्य उदाहरण हों लेकिन हकीकत यही है कि हमारे देश में भी मुसलमानों को लेकर एक अलग धारणा दिखने लगी है मसलन-वे आतंकवादी होते हैं, वे कई शादियाँ करके बच्चों का ढेर पैदा करते हैं, वे देश में हिंदू को अल्पसंख्यक बनाने की मुहिम में जुटे हैं, आम मुसलमान भारत को अपना देश नहीं मानते। मुसलमान राष्ट्रगान नहीं गाते, उन्होंने देश के मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाए हैं, तलवार की नोक पर हिंदूओं को मुसलमान बनाया है।

इन्हीं सवालों को टटोलने की कोशिश की पंकज चतुर्वेदी ने। मुस्लिम समाज को कठघरे में खड़े करने वाले आरोपों की सच्चाई को जानने की कोशिश में वे उस वास्तविकता के करीब पहुँचते हैं, जहाँ इसका अहसास होने लगता है कि मुसलमान पर लगाए जाने वाले ज्यादातर आरोप अफवाह हैं और कतिपय स्वार्थी ताकतें सुनियोजित साजिश के तहत इसको फैलाने के काम में जुटी हैं। चूँकि लेखक सक्रिय पत्रकारिता में अरसे तक रहे हैं लिहाजा उन्होंने अपनी में आँखों देखा सच और विश्वसनीय आँकड़े शामिल किए हैं ताकि उनकी बातों की विश्वसनीयता भी कायम रहे।

पुस्तक के पहले हिस्से में यह बताने की कोशिश है कि देश के मुसलमानों पर सबसे बड़ा इल्जाम बेवफाई का लगता है। इसके तहत लेखक ने कश्मीर से लेकर राष्ट्रगीत तक के मुद्दों पर मुसलमानों की भूमिका पर रोशनी डाली है। 'राष्ट्रवाद, पाकिस्तान और मुसलमान' अध्याय में कहा गया है कि इस देश में आजादी के बाद ऐसे कई दंगे हुए जिनमें सरकारी संरक्षण में मुसलमानों का नरसंहार हुआ लेकिन कभी कोई ऐसा वाकया देखने को नहीं मिला जब किसी मुस्लिम संगठन की ओर से भारत की अंदरूनी व्यवस्था की तुलना करते हुए पाकिस्तान सरकार को सराहा गया हो।

वहीं 'पुलिस, झूठ और आतंकवाद' में बताया गया है कि आतंकवाद के पनपने में पुलिस के झूठे मुकदमे और फर्जीवाड़े का अहम योगदान है। और लेखक ने कई उदाहरणों के सहारे पुलिस की मुठभेड़ों पर भी सवाल उठाए हैं। मीडिया में काम करने के बावजूद लेखक की राय है कि आतंकवाद और मुसलमान से जुड़ी खबरों को मीडिया सनसनीखेज बनाने के साथ-साथ उसे असंवेदनशील तरीके से परोसता है। हालाँकि कई बार लेखक के तर्क भावुकता की रौ में लिखे जान पड़ते हैं।

पुस्तक के दूसरे हिस्से में पर्सनल लॉ के जरिए मुस्लिम समाज को आँकने की कोशिश की गई है। इसमें इस धारणा की आलोचना शामिल है जो कहता है कि देश में मुसलमानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जबकि आँकड़े लगातार बता रहे हैं कि देश में मुसलमानों की आबादी 13-14 फीसदी से ज्यादा नहीं बढ़ रही है। देश में 5 फीसदी से ज्यादा हिंदू बहुविवाह वाले हैं, जबकि मुसलमानों में यह 4 फीसदी के करीब हैं। पुस्तक के अंतिम हिस्से परिशिष्ट में जवाहर लाल नेहरू और प्रेमचंद के दो पठनीय लेखों को शामिल किया गया है जो भारत में हिंदू-मुस्लिम के आपसी सौहार्दपूर्ण रिश्तों की बानगी पेश करते हैं।

पुस्तक: क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?
लेखकः पंकज चतुर्वेदी
प्रकाशनः शिल्पायन
मूल्यः 175 रु

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