नारों से नहीं बचेगी गाय
पंकज चतुर्वेदी
‘गाय हमारी माता है, गाय को बचाना है, ‘गाय देष की पहचान है ...... जैसे नारे समय समय पर हवा में तिरते हैं, कुछ गोश्ठी, सेमीनार-जुलूस, और उसके बाद वही ढाक के तीन पात। सउ़क पर ट्रकों में लदी गायों को पुलिस के पकड़वा कर, उन गाडियों में आग लगा कर व कुछ लोगों को पीट कर लोग मान लेते हैं कि उन्होंने बड़ा धर्म-रक्षा का काम कर दिया। ऐसी हरकतों में लिप्त कुछ चेहरे चुनावों में चमकते हैं और फिर सत्ता-सुख में भारत माता के साथ ही गौ माता को भी भ्ूाल जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि हमारे गांवों में खेती के रकबे कम हो रहे हैं, बैल पर आधारित खेती की जोत तेजी से घट रही है। यही नहीं हमारी गाय का दूध दुनिया में सबसे कम है ,इसके साथ ही गांवों के षहर की और दौड़ने या फिर षहरों के गांवेां की ओर संकुचित होने के चलते ग्रामीण अंचलों में घर के आकार छोटे हो रहे हैं और ऐसे में गाय-बैल को रखने की जगह निकालना कठिन होता जा रहा है। जब तक ऐसी व्याहवारिक बातों को सामने रख कर गौ-धन संरक्षण की बात नहीं होगी, तब तक यह कार्य किसी प्रख्यात कथा-वाचक की भागवत वाचन की ही तरह होगा, जहां कथरा सुनने के समय तो भक्तगण भावविभोर होते हैं, लेकिन वहां से बाहर निकल कर उन्हीं काम-क्रोध-लोभ-मद-मोह में डुब जाते हैं जिनके नाष के लिए कथा हो रही थी।
गाय को बचाने की बात करने में जरा भी ईमानदारी हो तो सबसे पहले देष के लगभग सभी हाईवे पर बारिष के मौसम की रातों में जा कर देखना होगा कि आखिर हजारों-हजार गायें सड़क पर क्यों बैठी होती हैं। जरा ध्यान से देखें इस झुंड में एक भी भैंस नहीं मिलती। जाहिर है कि गाय को पालने का खर्च इतना है कि उसके दूध को बेच कर पषु-पालक की भरपाई होती नहीं है। भारत की गाय का दुग्ध उत्पादन दुनिया में सबसे कम है। डेनमार्क में दूध देने वाली प्रत्येक गाय का वार्शिक उत्पादन औसत 4101 लीटर है,स्विटजरलैंड में 4156 लीटर, अमेरिका में 5386 और इंग्लैंड में 4773 लीटर है। वहीं भारत की गाय सालाना 500 लीटर से भी कम दूध देती है। जाहिर है कि भारत में गाय पालना बेहद घाटे का सौदा है। तभी जब गाय दूध देती है तब तो पालक उसे घर रखता है और जब वह सूख जाती है तो सडक पर छोड़ देता है। बारिष के दिनों में गाय को कहीं सूखी जगह बैठने को नही मिलती, वह मक्खियों व अन्य कीट से तंग रहती है, सो हाईवे पर कुनबे सहित बैठी होती हैं। विडंबना है कि हर दिन इस तरह मुख्य सडक पर बैठी या टहलती गायों की असामयिक मौत होती है और उनके चपेट में आ कर इंसान भी चुटैल होते हैं और इस तरह आवारा गाय आम लोगों की संवेदना भी खो देती है।
गाय की रक्षा के लिए धार्मिक उद्धरण देना या इसे भावुक जुमलों में उलझाना कतई सफल नहीं रहा है, अतएव जरूरी है कि इसके लिए कुछ प्रभावी सुझााव या कदम उठाए जाएं। सबसे पहले तो भारतीय गाय की नस्लें सुधारने, उसकी दूध -क्षमता बढ़ाने के वैज्ञानिक प्रयास किए जाने जरूरी हैं । कुछ हद तक गायों की विदेषी नस्लों पर पाबंदी लगे व देषी नस्ल को विकसित किया जाए। कुछ कार्यों जैसे - पूजा, बच्चों के मिल्क पाउडर आदि में गाय के दूध, घी आदि की अनिवार्यता करने पर गाय के दूध की मांग बढ़ेगी व इससे गौ पालक भी उत्साहित हांेगे। गौ मूत्र व गोबर को अलग से संरक्षित करने व उसे निर्मित खाद व कीट नाषकों का व्यावसायिक उत्पादन हो, ताकि पषु पालक को इस मद में भी कुछ आय हो और वह उसे आवारा ना छोड़ें। भारत की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था में कभी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले बैल अब मषीनों के चलते गांव से बाहर हो रहे हैं। छोटे रकबे में बैल से हल चलाने की अनिवार्यता, पटेला फेरने, पानी खींचने जैसे कुछ कार्यों के लिए बैल की अनिवार्यता का कानून बनना चाहिए। इससे डीजल की मांग घटेगी, और उसके दहन से ग्रामीण अंचल में बढ़ रहे प्रदूशण पर भी नियंत्रण होगा। सबसे बड़ी बात किसानेंा को यह समझााना होगा कि बैल की तुलना में ट्रैक्टर के इस्तेमाल से फसल में बेकारी ज्यादा होती है, दाना ज्यादा टूटता है।
कुछ गांवों में गौ पालन के सामुदायिक प्रयोग कियो जा सकते हैं । इसमें पूरे गांव की गायों का एक साथ पालन, उससे मिलने वाले उत्पाद का एकसाथ विपणन और उससे होने वाली आय का सभी गौ पालकों में समान वितरण जैसे प्रयोग करने जरूरी हैं। विडंबना है कि देषभर के अधिकांष गावों में सार्वजनिक गौचर की भूमि अवैध कब्जों में है। सामुदायिक पषु पालन से ऐसी चरती की जमीनों की मुक्ति का रास्ता निकलेगा। ग्रामीण सड़क परिवहन में बैल का इस्तेमाल करने के कुछ कानून बनें, गाय की खुराक, उसको रखने के स्थान की साफ-सफाई आदि का मानकीकरण जरूरी हो। पषु चिकित्सक के पाठ्यक्रम में भारतीय नस्ल के गाय-बैल के रोगों पर विषेश सामग्री हो। भारवाहक या खेत में काम करने वाले बैल के भाजन, स्वास्थ्य और काम करने के घंटों पर स्पश्ट व कठोर मार्गदर्षन हों। ये कुछ छोटे छोटे प्रयोग ग्रामीण अर्थ व्यवस्था और सामकि ताने-बाने को मजबूत करेंगे ही, गाय का भी संरक्षण करेंगे।
गाय व बैल का ग्रामीण विकास व खेती में इस्तेमाल हमारे देष को डीजल खरीदने में व्यय होने वाली विदेषी मुद्रा के भार से भी बचाता है, साथ ही डीजल से संचालित ट्रैक्टर, पंप व अन्य उपकरणों से होने वाले घातक प्रदूशण से भी निजात दिलवाता है। यह बात सरकार व समाज तक पहुंचाने के लिए बेहतरीन फिल्में, रेडियो कार्यक्रम आदि गांव-गांव तक पहुंचाना चाहिए।
जन-कवि गौरख पाण्डेय के एक गीत की पंक्ति हैं -
‘‘बस कीजिये आकाष में नारे उछालना,
यह जंग है इस जंग में ताकत लगाईये।’’
गाय को बचाने के लिए नरों या जुमलों की नहीं, सषक्त कदमों की जरूरत है। असल में गांव, गाय व उसके कुनबे को बचाने की मंषा है तो इसे धर्म- वेद-पुराण की बातों से ऊपर उठा कर तकनीक, वैज्ञानिक, प्रबंधन के कोण से प्रस्तुत करना होगा।
पंकज चतुर्वेदी
3/186 सेक्टर-2
राजेन्द्र नगर, साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
पंकज चतुर्वेदी
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‘गाय हमारी माता है, गाय को बचाना है, ‘गाय देष की पहचान है ...... जैसे नारे समय समय पर हवा में तिरते हैं, कुछ गोश्ठी, सेमीनार-जुलूस, और उसके बाद वही ढाक के तीन पात। सउ़क पर ट्रकों में लदी गायों को पुलिस के पकड़वा कर, उन गाडियों में आग लगा कर व कुछ लोगों को पीट कर लोग मान लेते हैं कि उन्होंने बड़ा धर्म-रक्षा का काम कर दिया। ऐसी हरकतों में लिप्त कुछ चेहरे चुनावों में चमकते हैं और फिर सत्ता-सुख में भारत माता के साथ ही गौ माता को भी भ्ूाल जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि हमारे गांवों में खेती के रकबे कम हो रहे हैं, बैल पर आधारित खेती की जोत तेजी से घट रही है। यही नहीं हमारी गाय का दूध दुनिया में सबसे कम है ,इसके साथ ही गांवों के षहर की और दौड़ने या फिर षहरों के गांवेां की ओर संकुचित होने के चलते ग्रामीण अंचलों में घर के आकार छोटे हो रहे हैं और ऐसे में गाय-बैल को रखने की जगह निकालना कठिन होता जा रहा है। जब तक ऐसी व्याहवारिक बातों को सामने रख कर गौ-धन संरक्षण की बात नहीं होगी, तब तक यह कार्य किसी प्रख्यात कथा-वाचक की भागवत वाचन की ही तरह होगा, जहां कथरा सुनने के समय तो भक्तगण भावविभोर होते हैं, लेकिन वहां से बाहर निकल कर उन्हीं काम-क्रोध-लोभ-मद-मोह में डुब जाते हैं जिनके नाष के लिए कथा हो रही थी।
गाय को बचाने की बात करने में जरा भी ईमानदारी हो तो सबसे पहले देष के लगभग सभी हाईवे पर बारिष के मौसम की रातों में जा कर देखना होगा कि आखिर हजारों-हजार गायें सड़क पर क्यों बैठी होती हैं। जरा ध्यान से देखें इस झुंड में एक भी भैंस नहीं मिलती। जाहिर है कि गाय को पालने का खर्च इतना है कि उसके दूध को बेच कर पषु-पालक की भरपाई होती नहीं है। भारत की गाय का दुग्ध उत्पादन दुनिया में सबसे कम है। डेनमार्क में दूध देने वाली प्रत्येक गाय का वार्शिक उत्पादन औसत 4101 लीटर है,स्विटजरलैंड में 4156 लीटर, अमेरिका में 5386 और इंग्लैंड में 4773 लीटर है। वहीं भारत की गाय सालाना 500 लीटर से भी कम दूध देती है। जाहिर है कि भारत में गाय पालना बेहद घाटे का सौदा है। तभी जब गाय दूध देती है तब तो पालक उसे घर रखता है और जब वह सूख जाती है तो सडक पर छोड़ देता है। बारिष के दिनों में गाय को कहीं सूखी जगह बैठने को नही मिलती, वह मक्खियों व अन्य कीट से तंग रहती है, सो हाईवे पर कुनबे सहित बैठी होती हैं। विडंबना है कि हर दिन इस तरह मुख्य सडक पर बैठी या टहलती गायों की असामयिक मौत होती है और उनके चपेट में आ कर इंसान भी चुटैल होते हैं और इस तरह आवारा गाय आम लोगों की संवेदना भी खो देती है।
गाय की रक्षा के लिए धार्मिक उद्धरण देना या इसे भावुक जुमलों में उलझाना कतई सफल नहीं रहा है, अतएव जरूरी है कि इसके लिए कुछ प्रभावी सुझााव या कदम उठाए जाएं। सबसे पहले तो भारतीय गाय की नस्लें सुधारने, उसकी दूध -क्षमता बढ़ाने के वैज्ञानिक प्रयास किए जाने जरूरी हैं । कुछ हद तक गायों की विदेषी नस्लों पर पाबंदी लगे व देषी नस्ल को विकसित किया जाए। कुछ कार्यों जैसे - पूजा, बच्चों के मिल्क पाउडर आदि में गाय के दूध, घी आदि की अनिवार्यता करने पर गाय के दूध की मांग बढ़ेगी व इससे गौ पालक भी उत्साहित हांेगे। गौ मूत्र व गोबर को अलग से संरक्षित करने व उसे निर्मित खाद व कीट नाषकों का व्यावसायिक उत्पादन हो, ताकि पषु पालक को इस मद में भी कुछ आय हो और वह उसे आवारा ना छोड़ें। भारत की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था में कभी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले बैल अब मषीनों के चलते गांव से बाहर हो रहे हैं। छोटे रकबे में बैल से हल चलाने की अनिवार्यता, पटेला फेरने, पानी खींचने जैसे कुछ कार्यों के लिए बैल की अनिवार्यता का कानून बनना चाहिए। इससे डीजल की मांग घटेगी, और उसके दहन से ग्रामीण अंचल में बढ़ रहे प्रदूशण पर भी नियंत्रण होगा। सबसे बड़ी बात किसानेंा को यह समझााना होगा कि बैल की तुलना में ट्रैक्टर के इस्तेमाल से फसल में बेकारी ज्यादा होती है, दाना ज्यादा टूटता है।
कुछ गांवों में गौ पालन के सामुदायिक प्रयोग कियो जा सकते हैं । इसमें पूरे गांव की गायों का एक साथ पालन, उससे मिलने वाले उत्पाद का एकसाथ विपणन और उससे होने वाली आय का सभी गौ पालकों में समान वितरण जैसे प्रयोग करने जरूरी हैं। विडंबना है कि देषभर के अधिकांष गावों में सार्वजनिक गौचर की भूमि अवैध कब्जों में है। सामुदायिक पषु पालन से ऐसी चरती की जमीनों की मुक्ति का रास्ता निकलेगा। ग्रामीण सड़क परिवहन में बैल का इस्तेमाल करने के कुछ कानून बनें, गाय की खुराक, उसको रखने के स्थान की साफ-सफाई आदि का मानकीकरण जरूरी हो। पषु चिकित्सक के पाठ्यक्रम में भारतीय नस्ल के गाय-बैल के रोगों पर विषेश सामग्री हो। भारवाहक या खेत में काम करने वाले बैल के भाजन, स्वास्थ्य और काम करने के घंटों पर स्पश्ट व कठोर मार्गदर्षन हों। ये कुछ छोटे छोटे प्रयोग ग्रामीण अर्थ व्यवस्था और सामकि ताने-बाने को मजबूत करेंगे ही, गाय का भी संरक्षण करेंगे।
गाय व बैल का ग्रामीण विकास व खेती में इस्तेमाल हमारे देष को डीजल खरीदने में व्यय होने वाली विदेषी मुद्रा के भार से भी बचाता है, साथ ही डीजल से संचालित ट्रैक्टर, पंप व अन्य उपकरणों से होने वाले घातक प्रदूशण से भी निजात दिलवाता है। यह बात सरकार व समाज तक पहुंचाने के लिए बेहतरीन फिल्में, रेडियो कार्यक्रम आदि गांव-गांव तक पहुंचाना चाहिए।
जन-कवि गौरख पाण्डेय के एक गीत की पंक्ति हैं -
‘‘बस कीजिये आकाष में नारे उछालना,
यह जंग है इस जंग में ताकत लगाईये।’’
गाय को बचाने के लिए नरों या जुमलों की नहीं, सषक्त कदमों की जरूरत है। असल में गांव, गाय व उसके कुनबे को बचाने की मंषा है तो इसे धर्म- वेद-पुराण की बातों से ऊपर उठा कर तकनीक, वैज्ञानिक, प्रबंधन के कोण से प्रस्तुत करना होगा।
पंकज चतुर्वेदी
3/186 सेक्टर-2
राजेन्द्र नगर, साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
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