किसे सुध है बस्ते के बढ़ते बोझ की
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
HINDUSTAN 9 SEPTEMBER 2014 http://paper.hindustantimes.com/epaper/viewer.aspx |
उम्र साढ़े आठ साल, कक्षा तीन में पढ़ती है। चूंकि स्कूल सुबह पौने
आठ से है, सो साढ़े छह बजे सोकर उठती है। स्कूल से घर आने में दो बज जाता
है। फिर वह खाना खाती है और कुछ देर आराम करती है। पांच बजते-बजते किताबों,
कॉपियों और होमवर्क से जूझने लगती है। यह काम कम से कम तीन घंटे का होता
है। उसके बाद अंधेरा हो जाता है। यह अंधेरा बचपन की मधुर यादें कहे जाने
वाले खेल, शरारतें, उधम, सब पर छा जाता है। अब वह कुछ देर टीवी देखेगी और
सो जाएगी। लेकिन उससे बड़ी नींद उस शिक्षा व्यवस्था की है, जिसे याद भी
नहीं कि दस साल पहले प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने
बस्ते का बोझ कम करने की सिफारिश की थी, समिति की इस रिपोर्ट की काफी तारीफ
भी हुई थी। छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने
और बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में
मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी,
जिसकी अगुआई प्रोफेसर यशपाल कर रहे थे।
इसकी रिपोर्ट में साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है, न समझ पाने का बोझ। सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और फिर कुछ नहीं हुआ। जमीनी हकीकत जानने के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में चिनहट के पास गणेशपुर गांव के बच्चों का उदाहरण काफी है। कक्षा पांच की विज्ञान की किताब के पहले पाठ के दूसरे पेज पर दर्ज था कि पेड़ कैसे श्वसन क्रिया करते हैं। बच्चों से पूछा गया कि आप में से कौन-कौन श्वसन क्रिया करता है? सभी बच्चों ने मना कर दिया कि वे ऐसी कोई हरकत करते भी हैं। हां, जब उनसे सांस लेने के बारे में पूछा गया, तो वे उसका मतलब जानते थे। आंगनबाड़ी केंद्र में चार्ट के सामने ककहरा रट रहे बच्चों ने न कभी अनार देखा था और न ही उन्हें ईंख, ऐनक, एड़ी के मतलब मालूम थे।
आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के आतंक तले दबे पड़े हैं, जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी क्लास में बच्चों को गृहकार्य सिर्फ इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हें समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठ्य-पुस्तक से न हो। पर आज होमवर्क का मतलब ही पाठ्य पुस्तक के सवाल-जवाबों को कॉपी पर उतारना या उसे रटना है। उम्मीद यही की जाती है कि बच्चे अपने माहौल और अपने अध्यापकों से सीखेंगे, और किताबें इस काम में उनकी सहायक होंगी। लेकिन पूरी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी बना दी गई है कि बच्चे किताबों से रटकर सीख सकते हैं तो सीखें, अध्यापक सिर्फ इसी काम में छात्रों की मदद करते हैं और अक्सर इस पढ़ाई का आस-पास के माहौल से कोई लेना-देना नहीं होता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
इसकी रिपोर्ट में साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है, न समझ पाने का बोझ। सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और फिर कुछ नहीं हुआ। जमीनी हकीकत जानने के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में चिनहट के पास गणेशपुर गांव के बच्चों का उदाहरण काफी है। कक्षा पांच की विज्ञान की किताब के पहले पाठ के दूसरे पेज पर दर्ज था कि पेड़ कैसे श्वसन क्रिया करते हैं। बच्चों से पूछा गया कि आप में से कौन-कौन श्वसन क्रिया करता है? सभी बच्चों ने मना कर दिया कि वे ऐसी कोई हरकत करते भी हैं। हां, जब उनसे सांस लेने के बारे में पूछा गया, तो वे उसका मतलब जानते थे। आंगनबाड़ी केंद्र में चार्ट के सामने ककहरा रट रहे बच्चों ने न कभी अनार देखा था और न ही उन्हें ईंख, ऐनक, एड़ी के मतलब मालूम थे।
आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के आतंक तले दबे पड़े हैं, जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी क्लास में बच्चों को गृहकार्य सिर्फ इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हें समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठ्य-पुस्तक से न हो। पर आज होमवर्क का मतलब ही पाठ्य पुस्तक के सवाल-जवाबों को कॉपी पर उतारना या उसे रटना है। उम्मीद यही की जाती है कि बच्चे अपने माहौल और अपने अध्यापकों से सीखेंगे, और किताबें इस काम में उनकी सहायक होंगी। लेकिन पूरी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी बना दी गई है कि बच्चे किताबों से रटकर सीख सकते हैं तो सीखें, अध्यापक सिर्फ इसी काम में छात्रों की मदद करते हैं और अक्सर इस पढ़ाई का आस-पास के माहौल से कोई लेना-देना नहीं होता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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