DAINIK JAGRAN 6-10-2014http://epaper.jagran.com/epaper/06-oct-2014-262-edition-National-Page-1.html |
आखिर डीडीए किसके साथ ?
पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली विकास प्राधिकरण(डीडीए) ने हाल ही में 25,034 फ्लेटों की बिक्री की घोषणा की है । हजारों फार्म बिक गए और इसी बीच ड्रा निकलने से पहले ही मकान के दाम खुद डीडीए ने बढा दिए। । कहा जाता है कि डीडीए आम लोगों के लिए मकान बनाता है । लेकिन इन फ्लेटों की कीमतों को देख कर तो नहीं लगता कि इसके हितग्राही आम लोग होंगे । कोई भी दो बेड रूम वाला फ्लेट 41 लाख से कम नहीं है । इसका फार्म जमा करने के लिए नगद एक लाख देने होंगे । जाहिर है कि एक औसत नौकरी करने वाले के लिए ईमानदारी से इतना पैसा जुटाना लगभग मुश्किल ही है । हालांकि मकान आदमी की मूलभूत जरूरत माना जाता है, लेकिन दिल्ली के बाजार में आएं तो पाएंगे कि मकान महज व्यापार बना गया है । एक तरफ षहर में हजारों परिवार सिर पर छत के लिए व्याकुल हैं, दूसरी ओर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि महानगर में साढ़े तीन लाख मकान खाली पडे हैं । यदि करीबी उपनगरों नोएडा, गुडगांव, गाजियाबाद, फरीदाबाद को भी शामिल कर लिया जाए तो ऐसे मकानों की संख्या छह लाख से अधिक होगी, जिसके मालिक अनयंत्र बेहतरीन मकान में रहते हैं और यह बंद पड़ा मकान उनके लिए शेयर बाजार में निवेष की तरह है । आखिर हो भी क्यों नहीं, बैकों ने मकान कर्ज के लिए दरवाजे खोल रखे हैं , लोग कर्जा ले कर मकान खरीदते हैं , फिर कुछ महीनों बाद जब मकान के दाम देा गुना होते हैं तो उसे बेच कर नई प्रापर्टी खरीदने को घूमने लगते हैं । तुरत-फुरत आ रहे इस पैसे ने बाजार में दैनिक उपभोग की वस्तुओं के रेट भी बढ़ाए हैं, जिसका खामियाजा भी वे ही भोग रहे हैं, जिनके लिए सिर पर छत एक सपना बन गया है ।
मकान के जरूरत के बनिस्पत बाजार बनने का सबसे बड़ा खामियाजा समाज का वह तबका उठा रहा है, जिसे मकान की वास्तव में जरूरत है । यदि केंद्र सरकार की नौकरी को आम आदमी का आर्थिक स्थिति का आधार माने तो दिल्ली या उसके आसपास के उपनगरों में आम आदमी का मकान लेनाा एक सपने के मानिंद है । 16500 मूल वेतन और 5400 ग्रेड पे पाने वाला कर्मचारी सरकार में पहले दर्जे का अफसर कहलाता है । यदि वह अपने दफ्तर से मकान के लिए कर्ज लेना चाहे तो उसे उसके मूल वेतन के पचास गुणे के बराबर पैसा मिल सकता है । अन्य बैंक या वित्तीय संस्थाएं भी उसकी ग्राॅस सैलेरी का सौ गुणा देते हैं । दोनों स्थितियों में उसे मकान के लिए मिलने वाली रकम 15 से 16 लाख होती है । इतनी कीमत में दिल्ली के डीडीए या अन्य करीबी राज्यों के सरकारी निर्माण का एक बेडरूम का फ्लेट भी नहीं मिलेगा । गाजियाबाद के इंदिरापुरम में दो बेडरूम फ्लेट 50 लाख से कम नहीं है । गुडगांव और नोएडा के रेट भी इससे दुगने ही है । यदि कोई 20 लाख कर्ज लेता है और उसे दस या पंद्रह साल में चुकाने की योजना बनाता है तो उसे हर महीने न्यूनतम 22 हजार रूपए बतौर ईएमआई चुकाने होंगे । यह आंकड़े गवाह हैं कि इतना पैसे का मकान खरीदना आम आदमी के बस के बाहर है ।
इन दिनों विकसित हो रही कालोनियां किस तरह पूंजीवादी मानसिकता की शिकार है कि इनमें गरीबों के लिए कोई स्थान नहीं रखे गए हैं । हर नवधनाढ्य को अपने घर का काम करने के लिए नौकर चाहिए, लेकिन इन कालोनियों में उनके रहने की कहीं व्यवस्था नहीं है । इसी तरह बिजली, नल जैसे मरम्मत वाले काम ,दैनिक उपयोग की छोटी दुकानें वहां रहने वालों की आवष्यकता तो हैं , लेकिन उन्हें पास बसाने का ध्यान नियेजक ने कतई नहीं रखा । शहर के बीच से झुग्गियां उजाड़ी जा रही है और उन्हें बवाना, नरेला, जैसे सुदूर ग्रामीण अंचलों में भेजा जा रहा है । सरकार यह भी प्रचार कर रही है कि झुगगी वालों के लिए जल्दी ही बहुमंजिला फ्लेट बना दिए जाएंगे । लेकिन यह तो सोच नहीें कि उन्हें घर के पास ही रोजगार कहां से मिलेगा । डीडीए का ईडब्लूएस यानि आर्थिक तौर पर कमजोर श्रेणी के मकानों की संख्या 10 हजार है और इसके लिए एक लाख रूप्ए सालाना की आय सीमा रखी है, लेकिन मकान की कीमत सात लाख से कम नहीं है। जरा सोचें कि एक लाख रूप्ए सालाना आय वाले को कोई बैंक पांच लाख का भी कर्ज क्यों देगा। फिर उसका प्रस्तावित मकान शहर से इतना दूर है कि उसे काम के लिए आने-जाने के लिए चार पांच घंटे व दो सौ रूप्ए रोज खर्च करने होंगे। यह बात किसी से दुपी नहीं है कि इन दिनों डीडीए के फ्लेट के लिए अर्जी लेने व जमा करने वालों में प्रापर्टी डीलर के नौकर, परिचित, रिश्तेदार ही हैं, जिन्हें केवल अपनी पहचान, आय, रहवास का प्रमाण पत्र देना होता है व मकान निकलने पर उसके बदले प्रापर्टी डीलर कुछ हजार उन्हे दे देता है। पांच साल बाद उस फ्लेट की कीमत सरकारी कीमत की दुगनी-तिगुनी होती है और यदि किसी के हिस्से दो फ्लेट भी आ गए तो पांच साल में पैसा दुगना करने से कोई रोक नहीं सकता है।
डीडीए के मकान बेहद औसत दर्जें के होते हैं, जिन्हें वह मिलता है। उसे उसके फर्ष से लेकर षौचालय तक में अपना पैसा लगाना होता है, जिसमें दो लाख ऊपर से लगना लाजिमी हे। इतने ही दाम में निजी बिल्डर एनसीआर में सुसज्जित मकान देता है, जिसे ‘रेडी टु मूव’ कहा जा सकता है। यानि असल में जिसे रहने के लिए लेना है वह तो पहले ही निजी बिल्डर का खरीद चुका होता है, डीडीए का यह ड्रा शायद दस फीसदी लोगों की उम्मीद भी नहीं है, यह तो मकानों के दलालों, दो ंनबर का पैसा बनाने वालों के लिए ही बड़ा अवसर है।
वैसे भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का सपना भर्रा कर गिर चुका है । यह महानगर अब और भीड़ ,मकान, परिवहन झेलने में अक्षम है । एक तरफ मकान बाजार में महंगाई बढ़ाने का पूंजीवादी खेल बन रहे हैं तो दूसरी ओर सिर पर छत के लिए तड़पते लाखों-लाख लोग हैं । कहीं पर दो-तीन एकड़ कोठियों में पसरे लोकतंत्र के नवाब हैं तो पास में ही कीड़ों की तरह बिलबिलाती झोपड़-झुग्गियों में लाखों लोग । जिस तरह हर पेट की भूख रोटी की होती है, उसी तरह एक स्वस्थ्य- सौम्य समाज के लिए एक स्वच्छ, सुरक्षित आवास आवष्यक है । फिर जब मकान रहने के लिए न हो कर बाजार बनाने के लिए हो ! इससे बेहतर होगा कि मकानों का राश्ट्रीयकरण कर व्यक्ति की हैसियत, जरूरत, कार्य-स्थल से दूरी आदि को मानदंड बना कर उन्हें जरूरतमंदों को वितरित कर दिया जाए । साथ में शर्त हो कि जिस दिन उनकी जरूरत दिल्ली में समाप्त हो जाएगी, वे इसे खाली कर अपने पुश्तैनी बिरवों में लौट जाएंगे ।
पंकज चतुर्वेदी
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