The Sea Express 5-10-2014http://theseaexpress.com/epapermain.aspx |
पंकज चतुर्वेदी
देश में में हर साल हजार से ज्यादा लोग जाम सीवर की मरम्मत करने के दौरान दम घुटने से मारे जाते हैं । हर मौत का कारण सीवर की जहरीली गैस बताया जाता है । पुलिस ठेकेदार के खिलाफ लापरवाही का मामला दर्ज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। शायद यह पुलिस को भी नहीं मालूम है कि सीवर सफाई का ठेका देना हाईकोर्ट के आदेष के विपरीत है। समाज के जिम्मेदार लोगों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि नरक-कुंड की सफाई के लिए बगैर तकनीकी ज्ञान व उपकरणों के निरीह मजदूरों को सीवर में उतारना अमानवीय है।
जब गरमी अपना रंग दिखाती है, तो गहरे सीवरों में पानी कुछ कम हो जाता है। सरकारी फाईलें भी बारिश की तैयारी के नाम पर सीवरों की सफाई की चिंता में तेजी से दौड़ने लगती हैं । लेकिन इस बात को भूला आदेश दिया जाता है कि 40-45 तापमान में सीवर की गहराई निरीह मजदूरों के लिए मौतघर बन जाती है। यह विडंबना है कि सरकार व सफाईकर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढ़ोन की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने के नारों से आगे इस तरह से हो रही मौतों पर ध्यान ही नहीं देता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मुंबई हाईकोर्ट ने पांच साल पहले सीवर की सफाई के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे, जिनकी परवाह और जानकारी किसी को नहीं है। वैसे तो लाखों रूपए बजट वाला यह काम कागजों पर ही अधिक होता है । जहां हकीकत में सीवर की सफाई होती भी है तो कई सरकारी कागजों कोे रद्दी का कागज मान कर होती है । नरक कुंड की सफाई का जोखिम उठाने वाले लेागों की सुरक्षा-व्यवस्था के कई कानून हैं और मानव अधिकार आयोग के निर्देष भी । चूंकि इस अमानवीय त्रासदी में मरने वाले अधिकांश लोग असंगठित दैनिक मजदूर होते हैं,, अतः ना तो इस पर विरोध दर्ज होता है और ना ही भविष्य में ऐसी दुघटनाएं रोकने के उपाय ।
कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजंसी के पास सीवर लाईन के नक्शे, उसकी गहराई से संबंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई का दैनिक रिकार्ड, काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य की जांच, आवश्यक सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना, काम में लगे कर्मचारियों का नियमित प्रशिक्षण, सीवर में गिरने वाले कचरे की नियमित जांच कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं गिर रहे हैं; जैसे निर्देशों का पालन होता कहीं नहीं दिखता है।
भूमिगत सीवरों ने भले ही शहरी जीवन में कुछ सहूलियतें दी हों, लेकिन इसकी सफाई करने वालों के जीवन में इस अंधेरे नाले में और भी अंधेरा कर दिया है । अनुमान है कि हर साल देश भर के सीवरों में औसतन 1000 से 1300 लोग दम घुटने से मरते हैं । जो दम घुटने से बच जाते हैं उनका जीवन सीवर की विषैली गंदगी के कारण नरक से भी बदतर हो जाता है । देश में दो लाख से अधिक लोग जाम हो गए सीवरों को खोलने , मेनहोल में घुस कर वहां जमा हो गई गाद, पत्थर को हटाने के काम में लगे हैं । कई-कई महीनों से बंद पड़े इन गहरे नरक कुंडों में कार्बन मोनो आक्साईड, हाईड्रोजन सल्फाईड, मीथेन जैसी दमघोटू गैसें होती हैं ।
यह एक शर्मनाक पहलू है कि यह जानते हुए भी कि भीतर जानलेवा गैसें और रसायन हैं, एक इंसान दूसरे इंसान को बगैर किसी बचाव या सुरक्षा-साधनों के भीतर ढकेल देता है । सनद रहे कि महानगरों के सीवरों में महज घरेलू निस्तार ही नहीं होता है, उसमें ढ़ेर सारे कारखानों की गंदगी भी होती है । और आज घर भी विभिन्न रसायनों के प्रयोग का स्थल बन चुके हैं । इस पानी में ग्रीस-चिकनाई, कई किस्म के क्लोराईड व सल्फेट, पारा, सीसा के यौगिक, अमोनिया गैस और ना जाने क्या-क्या होता है । सीवरेज के पानी के संपर्क में आने पर सफाईकर्मी के शरीर पर छाले या घाव पड़ना आम बात है । नाईट्रेट और नाईट्राईड के कारण दमा और फैंफड़े के संक्रमण होने की प्रबल संभावना होती है । सीवर में मिलने वाले क्रोमियम से शरीर पर घाव होने, नाक की झिल्ली फटने और फैंफड़े का कैंसर होने के आसार होते हैं । भीतर का अधिक तापमान इन घातक प्रभावों को कई गुना बढ़ा देता है । यह वे स्वयं जानते हैं कि सीवर की सफाई करने वाला 10-12 साल से अधिक काम नहीं कर पाता है, क्योंकि उनका शरीर काम करने लायक ही नहीं रह जाता है । ऐसी बदबू ,गंदगी और रोजगार की अनिष्चितता में जीने वाले इन लोगों का शराब व अन्य नशे की गिरफ्त में आना लाजिमी ही है और नशे की यह लत उन्हें कई गंभीर बीमारियों का शिकार बना देती है । आमतौर पर ये लोग मेनहोल में उतरने से पहले ही शराब चढ़ा लेते हैं, क्योंकि नशे के सरूर में वे भूल पाते हैं कि काम करते समय उन्हें किन-किन गंदगियों से गुजरना है । गौरतलब है कि शराब के बाद शरीर में आक्सीजन की कमी हो जाती है, फिर गहरे सीवरों में तो यह प्राण वायु होती ही नहीं है । तभी सीवर में उतरते ही इनका दम घुटने लगता है । यही नहीं सीवर के काम में लगे लोगों को सामाजिक उपेक्षा का भी सामना करना होता है ।, इन लोगों के यहां रोटी-बेटी का रिश्ता करने में उनके ही समाज वाले परहेज करते हैं ।
दिल्ली में सीवर सफाई में लगे कुछ श्रमिकों के बीच किए गए सर्वे से मालूम चलता है कि उनमें से 49 फीसदी लोग सांस की बीमारियों, खांसी व सीने में दर्द के रोगी हैं । 11 प्रतिशत को डरमैटाइसिस, एक्जिमा और ऐसे ही चर्म रोग हैं । लगातार गंदे पानी में डुबकी लगाने के कारण कान बहने व कान में संक्रमण, आंखों में जलन व कम दिखने की षिकायत करने वालों का संख्या 32 फीसदी थी । भूख ना लगना उनका एक आम रोग है । इतना होने पर भी सीवरकर्मियों को उनके जीवन की जटिलताओं की जानकारी देने के लिए ना तो सरकारी स्तर पर कोई प्रयास हुए हैं और ना ही किसी स्वयंसेवी संस्था ने इसका बीड़ा उठाया है । अहमदाबाद की एक संस्था कामगार स्वास्थ्य सुरक्षा मंडल ने कुछ वर्ष पहले इस दिशा में मामूली पहल अवश्य की थी ।
वैसे यह सभी सरकारी दिशा-निर्देशों में दर्ज हैं कि सीवर सफाई करने वालों को गैस -टेस्टर(विशैली गैस की जांच का उपकरण), गंदी हवा को बाहर फैंकने के लिए ब्लोअर, टार्च, दस्ताने, चश्मा और कान को ढंकने का कैप, हैलमेट मुहैया करवाना आवष्यक है । मुंबई हाईकोर्ट का निर्देश था कि सीवर सफाई का काम ठेकेदारों के माध्यम से कतई नहीं करवाना चाहिए। यहां जान लेना होगा कि अब दिल्ली व अन्य महानगरों में सीवर सफाई का अधिकांश काम ठेकेदारें द्वारा करवाया जला रहा है, जिनके यहां दैनिक वेतन पर कर्मचारी रखे जाते हैं ।
सफाई का काम करने के बाद उन्हें पीने का स्वच्छ पानी, नहाने के लिए साबुन व पानी तथा स्थान उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी भी कार्यकारी एजेंसी की है । राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी इस बारे में कड़े आदेश जारी कर चुका है । इसके बावजूद ये उपकरण और सुविधाएं गायब है ।
आज के अर्थ-प्रधान और मशीनी युग में सफाईकर्मियों के राजनीतिक व सामाजिक मूल्यों के आकलन का नजरिया बदलना जरूरी है । सीवरकर्मियों को देखें तो महसूस होता है कि उनकी असली समस्याओं के बनिस्पत भावनात्मक मुद्दों को अधिक उछाला जाता रहा है । केवल छुआछूत या अत्याचार जैसे विषयों पर टिका चिंतन-मंथन उनकी व्यावहारिक दिक्कतों से बेहद दूर है ।सीवर में काम करने वालों को आर्थिक संबल और स्वास्थ्य की सुरक्षा मिल जाए जो उनके बीच नया विश्वास पैदा किया जा सकता है ।
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