ऐसे कैसे
सैनिक हम भर्ती कर रहे हैं ?
पंकज
चतुर्वेदी
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बीते दिनों
ग्वालियर में थल सेना में सिपाही की भर्ती के लिए आयोजित परीक्षा के दौरान बारह
घंटे तक षहर में जो हुआ, वह निहायत अराजकता, गुंडागिर्दी और लफंगई था। कोई
बीस हजार युवा जमा हुए, कुछ नाराजगी हुई, फिर पत्थरबाजी, आगजनी, लूटपाट,
औरतों से छेड़छाड़। पुलिस व फौज को फयरिंग तक करना पड़ी, तब तक कई ट्रेन तोडी जा चुकी थी, 100 से ज्यादा वाहन
आग के हवाले थे, ग्वालियक में सड़कों में अफरातफरी मच चुकी
थी। यह सब करने वाले वे लोग थे जिनमें से कुछ को भारतीय फौज का हिस्सा बनना था। यह
पहली बार नहीं हुआ है कि पिछड़े और बेराजगारी से तंग अल्प षिक्षित हजारों युवाफौज
में भर्ती होने पहुंच जाते हैं और भर्ती स्थल वाले षहर में तोड़-फोड़, हुड़दंग, तो कहीं मारापीटी, अराजकता
होती है। जिस फौज पर आज भी मुल्क को भरोसा
है, जिसके अनुशासन और कर्तव्यनिश्ठता की मिसाल दी जाती है, उसमें
भर्ती के लिए आए युवकों द्वारा इस तरह का कोहराम मचाना, भर्ती
स्थल पर लाठी चार्ज होना, जिस षहर में भर्ती हो रही हो वहां
तक जाने वाली ट्रेन या बस में अराजक भीड़ होना या युवाओं का मर जाना जैसी घटनाओं
का साक्षी पूरा मुल्क हर साल होता है। इसी का परिणाम है कि फौज व अर्ध सैनिक बलों
में आए रोज अपने ही साथी को गोली मारने, ट्रैन में आम
यात्रियों की पिटाई, दुव्र्यवहार, फर्जी
मुठभेड़ करने जैसे अरोप बढ़ रहे हैं।
विडंबना यह
है कि हालात दिनों दिन खराब हो रहे हैं ,इसके बावजूद थल सेना में सिपाही की भर्ती के तौर-तरीकों में
कोई बदलाव नहीं आ रहा है - वही अंग्रेजों की फौज का तरीका चल रहा है - मुफलिस, विपन्न इलाकों में भीड़ जोड़ लेा
वह भी बगैर परिवहन, ठहरने या भोजन की सुविधा के और फिर
हैरान-परेशान युवा जब बेकाबूं हो तो उन पर लाठी या गोली ठोक दो। कंप्यूटर के जमाने
में क्या यह मध्यकालीन बर्बरता की तरह नहीं लगता है? जिस तरह
अंग्रेज देशी अनपढो को मरने के लिए भरती
करते थे, उसी तर्ज पर छंटाई जबकि आज फौज में सिपाही के तौर
पर भर्ती के लिए आने वालों में हजारों ग्रेजुएट व व्यावसायिक षिक्षा वाले होते
हैं।
यह हमारे
आंकड़े बताते हैं कि हायर सैकेंडरी पास करने के बाद ग्रामीण युवाओं , जिनके पास आगे की पढ़ाई के
लिए या तो वित्तीय संसाधन नहीं हैं या फिर गांव से कालेज दूर है ; रोजगार के साधन लगभग ना के बराबर हैं। ऐसे में अपनी जान की कीमत पर पेट
पालने और जान हथेली पर रख कर रोजगार पाने
की चुनौतियों के बावजूद ग्रामीण युवा इस तरह की भर्तियों में जाते हैं। थल सेना
में सिपाही की भर्ती के लिए सार्वजनिक विज्ञापन दे दिया जाता है कि अमुक स्थान पर
पांच या सात दिन की ‘‘भर्ती-रैली’’ होगी।
इसमें तय कर दिया जाता है कि किस दिन किस
जिले के लड़के आएंगे। इसके अलावा देश के प्रत्येक
राज्य में भर्ती के क्षेत्रीय व शाखा केंद्र हैं, जहां
प्रत्येक साढ़े तीन महीने में भर्ती के लिए परीक्षाएं होती रहती हैं। हमारी थल
सेना में प्रत्येक रेजीमेंट में अभी भी जाति, धर्म, क्षेत्र के आधार पर भागीदारी का कोटा तय है,जैसे की
डोगरा रेजीमेंट में कितने फीसदी केवल डोगरा होंगे या महार रेजीमेंट में महरों की
संख्या कितनी होगी। हालांकि अभी 10 दिसंबर,2012 को ही सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका के एवज में सरकार को कहा है कि सेना
में जाति,धर्म, क्षेत्र के आधार पर
सिपाही की भर्ती क्यों ना बंद की जाए। इस पूरी प्रक्रिया में पहले युवाओं का
षारीरिक परीक्षण होता है, जिसमें लंबाई, वजन, छाती का नाप, दौड़ने की
क्षमता आदि होता है। इसके बाद मेडीकल और फिर लिखित परीक्षा। अभी ग्वालियर में जो
झगड़ा हुआ, वह दौड़ का समय छह मिनट से घटा कर अचानक साढ़े
चार मिनट करने पर हुआ था।
भर्ती रैली
का विज्ञापन छपते ही हजारों युवा, अपने दोस्तों के साथ भर्ती-स्थल पहुचने लगते हैं। इसमें
भर्ती बोर्ड यह भी ध्यान नहीं रखता कि छतरपुर या ऐसे ही छोटे षहरों की क्षमता या
वहां इतने संसाधन नही मौजूद नहीं होते हैं कि वे पांच दिन के लिए पचास-साठ हजार
लोगों की अतिरिक्त क्षमता झेल पाएं। भर्ती का स्थल तय करने वाले यह विचारते ही
नहीं है कि उक्त स्थान तक पहुंचने के लिए पर्याप्त सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध भी है
कि नहीं। और फिर यह तो असंभव ही है कि
पचास हजार या उससे ज्यादा लोगों की भीड़ का षारीरिक परीक्षण हर दिन दस घंटे और
पांच या सात दिन में ईमानदारी से किया जा सके। आमतौर पर नाप-जोख में ही सत्तर
फीसदी लोगों की छंटाई हो जाती हे। फिर इनमें से पचास प्रतिशत मेडिकल में और उनमें
से महज बीस प्रतिशत लिखित परीक्षा में उत्तीण हो पाते हैं। यानी पचास हजार में से
पांच सौ को छांटने की प्रक्रिया महज तीस-चालीस घटों में । जाहिर है कि ऐसे में कई
सवाल उठेंगे ही। कहा ता यही जात है कि इस तरह की रैलियां असल में अपने पक्षपात या
गड़बडि़यों को अमली जामा पहनाने के लिए ही होती हैं। यही कारण है कि प्रत्येक
भर्ती केंद्र पर पक्षपात और बेईमानी के आरोप
लगते हैं, हंगामें होते हैं और फिर स्थानीय पुलिस
लाठियां चटका कर ‘‘हरी वर्दी’’ की
लालसा रखने वालों को ‘‘लाल’ कर देती
है। हालांकि अभी तक इस तरह का कोई अध्ययन तो नहीं हीं हुआ है, लेकिन यह तय है कि इस भर्ती प्रक्रिया में पिटे, असंतुश्ट
और परेषान हुए युवाओं के मन में फौज के प्रति वह श्रद्धा का भाव नहीं रह जाता है
जो उनके मन में वहां जाने से पहले होता है।
सेना भी इस
बात से इंकार नहीं कर सकती है कि बीते दो दषकों के दौरान थल सेना अफसरों की कमी तो
झेल ही रही है, नए भर्ती होने वाले सिपाहियों की बड़ी संख्या अनुशासनहीन भी है। फौज में
औसतन हर साल पचास से ज्यादा आत्म हत्या या सिपाही द्वारा अपने साथी या असर को गोली
मार देने की घटनाएं साक्षी हैं कि अब फौज को अपना मिजाज बदलना होगा। फौजियों,
विषेशरूप से एन.सी. ओ. और
उससे नीचे के कर्मचारियों पर बलात्कार, तस्करी, रेलवे स्टेषन पर यात्रियों के भिड़ने, स्थानीय पुलिस
से मारापीटी होने के आरोपों में तेजी से वृद्धि हुई हे। हो ना हो यह सब बदलते समय
के अनुसार सिपाही की चयन प्रक्रिया में बदलाव ना होने का दुश्परिणाम ही है। जो
सिपाही अराजकता, पक्षपात, षोशण की
प्रक्रिया से उभरता है उससे बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती है।
फौज को अपनी
भर्ती प्रक्रिया में कंप्यूटर, एनसीसी, स्थानीय प्रषासन का सहयोग
लोना चाहिए। भर्ती के लिए भीड़ बुलाने के बनिस्पत ऐसी प्रक्रिया अपनानी चाहिए
जिसमें निराष लोगों की संख्या कम की जा सके। शायद पहले लिखित परीक्षा तालुका या जिला स्तर पर
आयोजित करना, फिर मेडिकल टेस्ट प्रत्येक जिला स्तर पर सालभर
स्थानीय सरकारी जिला अस्पताल की मदद से आयोजित करना, स्कूल
स्तर पर कक्षा दसवीं पास करने के बाद ही सिपाही के तौर पर भर्ती होने की इच्छा
रखने वालों के लिए एनसीसी की अनिवार्यता या उनके लिए अलग से बारहवी तक का कोर्स
रखना जैसे कुछ ऐसे सामान्य उपाय हैं जो हमारी सीमाओं के सषक्त प्रहरी थल सेना को
अधिक सक्षम, अनुशासित और गौरवमयी बनाने में महत्वपूर्ण हो
सकते हैं। यह भी किया जा सकता है कि सिपाही स्तर पर भर्ती के लिए कक्षा नौ के बाद
अलग से कोर्स कर दिया जाए, ताकि भर्ती के समय मेडिकल की जटिल
प्रक्रिया की जरूरत ही ना पड़े।
पंकज
चतुर्वेदी
संपर्क 9891928376
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