बच्चों को स्कूल क्यों पसंद नहीं आता ?़
दैनिक हिंदुस्तान 22.11.14 |
पंकज चतुर्वेदी
वह बामुश्किल तीन साल की बच्ची होगी, पापा की गोदी में जब कार से उतरी तो चहक रही थी। जैसे ही बस्ता उसके कंधे पर गया तो वह सुबकने लगी, रंग बिरंगे पुते, दरवाजे तक पहुंची तो दहाड़ें मारने लगी। वह स्कूल क्या है, खेल-घर है, वहां खिलौने हैं, ढूले हैं, खरगोश व कबूतर हैं, कठपुतलियां हैं। फिर भी बच्ची वहां जाना नहीं चाहती। अब पापा को तो आफिस की देर हो रही है , सो उन्होंने मचलती बच्ची केा चैकीदार को सौंपा और रूदन को अनदेखा कर फुर्र हो गए। मान लिया कि वह बच्ची बहुत छोटी है, उसे मम्मी-पापा की याद आती होगी व उसके माता-पिता नौकरी करते होंगे सो दिन में बच्ची को व्यस्त रखने के लिए उस प्ले स्कूल में दाखिला करवा दिया होगा। लेकिन यह भी सच है कि आम बच्चे के लिए स्कूल एक जबरदस्ती, अनमने मन से जाने वाली जगह और वहां होने वाली गतिविधियों उसकी मन मर्जी की होती नहीं हैं। कई बार तो स्कूल की पढ़ाई पूरा कर लेने तक बच्चे को समझ ही नहीं आता है कि वह अभी 12-14 साल करता क्या रहा है। उसका आकलन तो साल में एक बार कागज के एक टुकड़े पर कुछ अंक या ग्रेड के तौर पर होता है और वह अपनी पहचान, काबिलियत उस अंक सूची के बाहर तलाशने को छटपटाता रहता है।
11वीं पंचवर्षीय योजना में लक्ष्य रखा गया था कि भारत में आठवीं कक्षा तक जाते -जाते स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों के 50 प्रतिशत को 20 प्रतिषत तक नीचे ले आया जाए, लेकिन यह संभव नहीं हो पाया। आज भी कोई 40 प्रतिशत बच्चे आठ से आगे के दर्जे का स्कूल नहीं देख पाते हैं। हां, यह तय है कि ऊपर स्कूल ना जाने के लिए मचल रही जिस बच्ची का जिक्र किया गया है , उस सामाजिक-आर्थिक हालात के बच्चे आमतौर पर कक्षा आठ के बाद के ड्राप आउट की श्रेणी में नहीं आते हैं। सरकारी दस्तावेज कहते हैं कि स्कूल की पढ़ाई बीच में छोड़ने वालों में अधिकांष गरीब, उपेक्षित जाति व समाज के और बच्चियां होती हैं। कई नजीर हैं कि बहुत से उपेक्षित या अछूत जैसी त्रासदी भोग रही जाति के लोगों ने आज से कई दषक पहले स्कूल भी पढ़ा और गरीबी के बावजूद कालेज भी और उससे आगे भी। असल में वे लोग छोटी उम्र में ही जान गए थे कि शिक्षा नौकरी दिलवाने की कुंजी नहीं, बल्कि बदलाव व जागरूकता का माध्यम है। लेकिन ऐसे लोग विरले ही होते हैं और औसत बच्चों के लिए आज भी स्कूल कुछ ऐसी गतिविधि है जो उनकी अपेक्षा के अनुरूप या मन के मुताबिक नहीं है। उसको वहां पढाई जा रही पुस्तकों में वह कुछ ऐसा नहीं पाता जो उसके मौजूदा जीवन में काम आए।
जब बच्चा चाहता है कि वह गाय को करीब से जा कर देखे, तब स्कूल में वह खिडकी बंद कर दी जाती है जिससे बाहर झांक कर वह गाय को साक्षात देखता है। उसे गाय काले बोर्ड पर सफेद लकीरों व शब्दों में पढ़ाई जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी गाय ना तो दूध देती है और ना ही सींग हिला कर अपनी रक्षा करने का मंत्र सिखाती है। जो रामायण की कहानी बच्चे को कई साल में समझ नहीं आती, वह उसे एक रावण दहन के कार्यक्रम में षामिल होने या रामलीला देखने पर रट जाती है। ठेठ गाव के बच्चों को पढाया जाता है कि ‘अ’ ‘अनार’ का, ना तो उनके इलाके में अनार होता है और ना ही उनहोंने उसे देखा होता है, और ना ही उनके परिवार की हैसियत अनार को खरीदने की होती है। सारा गांव जिसे गन्ना कहता है।, उसे ईख के तौर पर पढ़ाया जाता है। यह स्कूल में घुसते ही बच्चे को दिए जाने वाले अव्यावहारिक ज्ञान की बानगी है। असल में रंग-आकृति- अंक-शब्द की दुनिया में बच्चे का प्रवेष ही बेहद नीरस और अनमना सा होता है। और मन और सीखने के बीच की खाई साल दर साल बढती जाती हे। इस बीच उसे डाक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, पायलट जैसी डिगरियां रटा दी जाती हैं और दिमाग में ठोक ठोक कर भर दिया जाता है कि यदि पढ़-लिख कर वह यह सब नहीं बना तो उसकी पढ़ाई बेकार है। विडंबना है कि यही मानसिकता, कस्बाई व षहरी बच्चों को घर से भागने, नशा, झूठ बोलने की ओर प्रेरित करती है, जबकि गांव के बच्चे स्कूल छोड़ कर कोई काम करना श्रेयस्कर समझते हैं। असल में पूरी स्कूली व्यवस्था ब्लेक बोर्ड व एक तरफ से सवाल और दूसरी तरफ से जवाब के बीच प्रष्न के तौर पर बच्चों को विचलित करती रहती है। स्कूल, शिक्षक व कक्षा उसके लिए यातना घर की तरह होते हैं। परिवार में भी उसे डराया जाता है कि बदमाशी मत करो, वरना स्कूल भेज देंगे। बात मान लो, वरना टीचर से कह देंगे। कहीं भी बच्चे के मन में स्कूल जाने की उत्कंठा नहीं रह जाती है और वह षिक्षक को एक भयावह स्वप्न की तरह याद करता है।
बच्चे अपने परिवेश को नहीं पहचानते- अपने आसपास मिलने वाले पेड़, पौधे, पक्षी-जानवर, मिट्टी, कंकड़, सबकुछ से अनभिज्ञ यह बाल-वर्ग किस तरह देश-समाज को अपना समझ सकता है? समय आ गया है कि कक्षा व पाठ्यक्रम को पुस्तको व कमरों से बाहर निकाल कर प्रकृति व समाज की मदद से पढ़ा-समझा जाए। थामस अल्वा एडीसन या मेडम क्यूरी के साथ-साथ सफाई करने वाले, पंचर जोड़ने वाले, खेत में काम करने वाले को भी पाठ में षामिल किया जाए। जब कूल से भाग जाने को आतुर बच्चा यह देखेगा कि उसकी किताब में वह पाठ भी है जो उसके पिताजी करते हैं तो उसे यह सबकुछ अपना सा लगेगा।
मध्यमवर्गीय परिवारों के प्री नर्सरी हो या गांव का सरकारी स्कूल, पांच साल की आयु तक हर तरह की पुस्तक, होमवर्क, परीक्षा से मुक्त रखा जाए। कभी सोचा है कि तीन साल के बच्चे को जब बताया जाता है कि अमुक क्लास में अव्वल आया व अमुक फिसड्डी रहा तो उसके दिल व दिमाग में अजीब किस्म की डर, अहंकार या षिक्षा से पलायन की प्रवृति विकसित होती है जो ताजिंदगी उसके साथ-साथ चलती है। तभी शिक्षा व्यवस्था में सफल से ज्यादा असफल लोगों की संख्या बढती जा रही है। हालांकि परीक्षा में उत्तीर्ण करने की अनिवार्यता ने भी शिक्षा के स्तर को लेकर सवाल खड़े कर दिए है। दिल्ली में ही कई सरकारी स्कूल के षिक्षक बच्चों की परीक्षा काॅपी में उलटे हाथ से खुद लिखते है। और सीधे हाथ से नंबर देते हैं। एक क्लास में 100 से ज्यादा बच्चे, बैठने-पानी-शौचालय की व्यवस्था ना होना और टीचर के पास पठन-पाठन के अलावा बहुत से काम होना, जैसे कई कारण हैं जिससे बच्चा स्कूल में कुछ अपना सा महसूस नहीं नहीं करता है, वह वहां उबासी लेता है और यही सोचता हता है कि उसे यहां भेजा क्यों गया है। जैसे ही अवसर मिलता है वह बस्ता, किताब, कक्षा से दूर भाग जाता है।
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