जब इलाज बन जाता है व्यापार
पंकज चतुर्वेदी
‘‘एक तरफ मां की लाश पोस्टमार्टम के लिए पड़ी हुई
है और वहीं नवजात शिशु दूध
के लिए तडप रहा है, ना तो बाप की जेब में पैसा है और ना ही होश कि
अभी-अभी धरती पर आई उस नन्हीं सी जान की फिकर कर सके।’’ इतने मार्मिक,
अमानवीय
और अकल्पनीय क्षण मानवता में बहुत कम आते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में आम लोगों को
स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए चल रही कल्याणकरी योजनाओं में इससे भी अधिक बदतर
हालात पहले भी बनते रहे। राजनेता केवल आरोप लगा कर चुप हो गए, लोग
बीते दो तीन सालों के अस्पताल के हादसों को भूल चुके हैं। अस्पताल दुकान बनते रहे
और लोग मरते रहे। ताजा मामला है नसबंदी के आपरेशन के दौरान 18 से
अधिक युवतियों की मौत का, जिसमें यह अब उजागर हो चुका है कि
राज्य में दवा के नाम पर जहर बांट कर मौत की तिजारत करने वालों के हाथ बहुत ही
लंबे हैं और उनके खेल में हर स्तर पर अफसर, नेता शामिल रहे
हैं।
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बिलासपुर में जिस स्थान पर एक ही दिन में 85
नसबंदी आपरेशन कर दिए गए, वह स्थान महीनों से बंद, वीरान
था। वहां धूल और गंदगी का अंबार था, इसके बावजूद भेड़-बकरियों की तरह औरतों
को हां कर वहां लाया गया व नसबंदी कर दी गई। एक दिन में इतने अधिक आपरेशन करना भी
संभव नहीं है, क्योंकि जिस लेप्रोस्कोपिक उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है, उसे
एके आपरेशन के बाद कीटाणुमुक्त बनाने में ही कम से कम आठ मिनट चाहिए। यानि एक आपरेशन
के लिए कम से कम बीस मिनट, लेकिन वहां तो कुछ ही समय में बगैर इन
सर्तकता को बरते इतने आपरेशन कर दिए गए। हालांकि यह भी बात साफ हो रही है कि औरतों
की मौत का कारण जहरीली दवाएं रही है। जिस सिप्रोसिन दवा की अभी तक 33
लाख गोलिया जब्त की गई हैं, उनमें से केवल 13 लाख तो सरकारी
अस्पतालों में ही मिली है और इस दवा में प्रारंभिक जांच में ही जिंक फास्फेट मिला है जोकि चूहा मार के तौर पर
इस्तेमाल किया जाता है। इस दवा को बनाने वाली कंपनी को अभी कुछ ही दिन पहले
गुणवत्तापूर्ण उत्पादन का प्रमाण पत्र ड्रग महकमे ने जारी किया था। गौर करने वाली बात है कि 21
मार्च 2012 को एक विधायक शक्रजीत राय ने विधान सभा में जानकारी मांगी थी कि राज्य
में कितनी दवा कंपनियों का उत्पदन अमानक या स्तरहीन पाया गया है। इसके जवाब में
सरकार द्वारा दिए गए उत्तर में बताया गया था कि ऐसी 44 दवाएं पाई गई
हैं जो स्तरहीन है और इनमें से 12 प्रकरण महावर फार्मा के थे। महावर
फार्मा वही कंपनी है जिसका उत्पाद जानलेवा सिप्रोसिन है और यह राज्य का सबसे बड़ा
सरकारी दवा सप्लायर में से एक है। यह तथ्य काफी है बताने के लिए कि हर व्यक्ति को
स्वस्थ रखने की योजनाएं व दावों के पीछे असल मकसद तो दवा कंपनियों को फायदा
पहुचाना ही होता है।
इससे पहले राज्य में एक और अमानवीय स्वास्थ्य
घोटाला सामने आया था जिसमें 33 से अधिक औरतों के गर्भाशय केवल इस लिए
निकाल दिए गए, ताकि राश्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत
कुछ अस्पताल दो करोड से अधिक का बीमा दावा क्लेम कर सकें। अकेले बिलासपुर में 31 नर्सिंग होम ने
छह महीने में 722 औरतों के गर्भाशय निकाल दिए। इनमें से कई तो 18 से
21 साल उम्र की ही थीं।। कोई भी औरत सामान्य से पेट दर्द की िशकयत ले
कर आती और सरकारी अस्पताल वाले उसे निजी अस्पतालों में भेज देते और वहां कह दिया जाता कि उसके गर्भाशय में
कैंसर है और उसे निकालना जरूरी है। यह मामला भी विधान सभा में उठा और राज्य के
स्वास्थ्य मंत्री ने माना कि राज्य में नौ महीनो के दौरान बिलासपुर में एसे 799,
दुर्ग
में 413, धमतरी में 614, कवर्ध में 183, बलौदाबाजार में 30 और
मंुगेली में 369 आपरेशन हुए, जिनका सरकरी
योजनाओं के तहत कई करोड़ का दावा भी वसूला गया। तब कार्यवाही के बड़े-बड़े वादे
किए गए लेकिन नतीजा डाक के तीन पात ही रहा। कुछ डाक्टरों का लाईसेंस निरस्त किया
गया, लेकिन एक सप्ताह बाद ही यह कह कर निलंबन वापिस ले लिया गया कि ये
डाक्टर भविष्य में गर्भाशय वाले आपरेशन नहीं करेंगे, षेश चिकित्सा
कार्य करेंगे।
वैसे राज्य सरकार आम लोगांे के स्वास्थ्य के
लिए कितना संजीदा है, इसकी बानगी बस्तर अंचल है। यहां बीते दस सालों
के दौरान यहां गरमी षुरू होते ही जल-जनित रोगों से लोग मरने लगते हैं। और जैसे ही
बाषि हुई ,उससे सटे-सटे ही मलेरिया आ जाता है।
बस्तर में गत तीन सालों के दौरान मलेरिया से 200 से ज्यादा लोग
मारे गए हैं। कह सकते हैं कि बीमार होना,
मर
जाना यहां की नियति हो गई है और तभी हल्बी में इस पर कई लोक गीत भी हैं। आदिवासी अपने किसी के जाने की पीड़ा गीत गा कर
कम करते हैं तो सरकार सभी के लिए स्वास्थ्य के गीत कागजों पर लिख कर अपनी
जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाती है। बस्तर
यानी जगदलपुर के छह विकास खंडों के सरकारी अस्पतालों में ना तो कोई स्त्री रोग
विषेशज्ञ है और ना ही बाल रोग विषेशज्ञ। सर्जरी या बेहोश करने वाले या फिर एमडी
डाक्टरों की संख्या भी षून्य है। जिले के
बस्तर, बकावंड, लोहडीगुडा, दरभा, किलेपाल,
तोकापाल
व नानगुर विकासखंड में डाक्टरों के कुल 106 पदों में से 73 खाली हैं। तभी
सन 2012-13 के दौरान जिले में दर्ज
औरतों व लड़कियों की मौत में 60 फीसदी कम खून यानी एनीमिया से हुई
हैं। बडे किलेपाल इलाके में 25 प्रतिशत से ज्यादा किशोरियां व औरतें कम खून से ग्रस्त हैं।
इससे पहले राज्य का आंखफोडवा कांड के नमा से मशहूर
मोतियांबिद आपरेशन की त्रासदी भी हुई थी, जिसमें 44 लोगों के आंखेां
की रोशनी गई व तीन लोगों की मौत हुईं । राज्य सरकार ने तुरत फुरत पचास पचास हजार
का मुआवजा बांट दिया, लेकिन जरा सोचंे कि क्या किसी के ताजिंदगी अंधा
रहने की बख्षीश पचास हजार हो सकती है?
असल में यह सारा खेल सरकारी
योजनाओं के नाम पर लोगों का इलाज करने के खेल में निजी डाक्टरों की धोखाधड़ी व
बेईमानी का है। चूंकि अभी राजय में स्थानीय निकायों के चुनाव होने हैं सो, झंडे,
जुलूस,
वादे,
आरेाप
ज्यादा हैं वरना यह मामला इतना चर्चा में भी नहीं आता। आखिर किसी गरीब की मौत से
लोकतंत्र को फरक ही कितना पड़ता है। गर्भाशय काटने वाले, आंखें फोड़ने
वाले ना तो जेल गए ना ही उनका व्यावसायिक लाईसंेस निरस्त हुआ। लगता है कि अब वक्त
आ गया है कि समूची स्वास्थ्य सेवा को निजीकरण से मुक्त कर, चिकित्सकों की
जिम्मेदारी तय करने के कड़े कानून बनाने होंगें। साथ ही घटिया या नकली दवा बनाने
वाले को सजा-ए-मौत हो।
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