प्याज उगाने वाले के आंखों में आंसू
पंकज चतुर्वेदी
daily news jaipur 25-11-14 http://dailynewsnetwork.epapr.in/382059/Daily-news/25-11-2014#page/6/1 |
दिल्ली
और उसके आसपास प्याज बाजार में तीस रूप्ए किलो बिक रहा है, यदि
मंडी चले जाएं तो शा यद पच्चीस मिल जाए। यहां से कुछ सौ किलोमीटर दूर मंदसौर,
नीमच
की मंडियों में आज प्याज की कीमत चार रूप्ए किलो है। वहां आए रोज झगड़े हो रहे हैं
क्योंकि एक कुंटल प्याज खोदने के लिए मजदूर तीन सौ से कम नहीं ले रहा है, वहीं
माल को मंडी तक लाने का खर्चा सौ रूपए से कम नहीं है । किसान हताश है और फसल इस मजूबरी में काट कर फैंक रहा है कि
उसे इसी जमीन पर अगली फसल भी उगानी है।
पिछले साल भी मध्यप्रदेश के मालवा
अंचल की शा जापुर में पचास किलो प्याज की बोरी का दाम था महज बीस रूपए, यानी
40 पैसे किलो। यह देश भर की फल-सब्जी मंडियों का हाल है कि किसान अपनी
खून-पसीने से कमाई-उगाई फसल ले कर पहुंचता है तो
उसके ढेर सारे सपने और उम्मीदें अचानक की ढह जाते हैं। कहां तो सपने देखे
थे समृद्धि के , यहां तो खेत से मंडी तक की ढुलाई निकालना भी
मुष्किल दिख रहा था। असल में यह किसान के शो शण, सरकारी
कुप्रबंधन और दूरस्थ अंचलों में गोडाउन की सुविधा या सूचना ना होने की मिली-जुली
साजिश है, जिसे जानबूझ कर
नजरअंदाज किया जाता है।
अब कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में आलू की इतनी अधिक पैदावार हो गई है कि
बामुष्किल तीन सौ रूपए कुंटल का रेट किसान को मिल पा रहा है। राज्य के सभी कोल्ड
स्टोरेज ठसा-ठस भर गए हैं। जाहिर है कि आपे वाले दिनों में आलू मिट्टी के मोल
मिलेगा। कैसी विडंबना है कि जिस आलू, प्याज के लिए अभी एक महीने पहले तक
मारा-मारी मची थी ,वह अब मारा-मारा घूम रहा है। यह पहली बार नहीं
हुआ है कि जब किसान की हताशा आम आदमी पर
भारी पड़ी है। पूरे देश की खेती-किसानी
अनियोजित ,शोषण की शिकार व किसान विरोधी है। तभी हर साल देश के कई हिस्सों में अफरात फसल को सड़क पर फैंकने
और कुछ ही महीनों बाद उसी फसल की त्राहि-त्राहि होने की घटनाएं होती रहती हैं।
किसान मेहनत कर सकता है, अच्छी फसल दे सकता है, लेकिन
सरकार में बैठे लोगों को भी उसके परिश्रम के माकूल दाम , अधिक माल के
सुरक्षित भंडारण के बारे में सोचना चाहिए। शा यद इस छोटी सी जरूरत को मुनाफाखोरों
और बिचैलियों के हितों के लिए दरकिनार किया जाता है।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8
प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है
। यह विडंबना ही है कि देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के
नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है । पूरी तरह
प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही
नहीं गया । फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर
हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा- कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम
के हाथों । किसान जब ‘‘केश क्राप’’ यानी फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो
आढ़तियों और बिचैलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है। पिछले साल उत्तर प्रदेश में 88 लाख मीट्रिक टन आलू हुआ था तो आधे साल
में ही मध्यभारत में आलू के दाम बढ़ गए थे। इस बार किसानों ने उत्पादन बढ़ा दिया,
अनुमान
है कि इस बार 125 मीट्रिक टन आलू पैदा हो रहा है। कोल्ड स्टोरेज
की क्षमता बामुष्किल 97 लाख मीट्रिक टन की है। जाहिर है कि आलू या तो
सस्ते- मंदे दामों में बिकेगा या फिर फिर किसान उसे खेत में ही सड़ा देगा- आखिर
आलू उखाड़ने, मंडी तक ले जाने के दाम भी तो निकलने चाहिए।
हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक कंे कई जिलों के
किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मश हूर हरी मिर्चों को सड़क पर लावारिस फैंक कर अपनी
हताशा का प्रदर्षन करते हैंे। तीन महीने
तक दिन-रात खेत में खटने के बाद लहलहाती फसल को देख कर उपजी खुषी किसान के ओठों पर
ज्यादा देर ना रह पाती है। बाजार में मिर्ची की इतनी अधिक आवक होती है कि खरीदार
ही नहीं होते। उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है-
घर की नई छप्पर, बहन की शा दी, माता-पिता की
तीर्थ-यात्रा; ना जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर
मिर्चियों के साथ फैंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता-- मिर्ची की खेती के
लिए बीज,खाद के लिए लिए गए कर्जे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां
हजारेंा किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं, दुख की बात यह
नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक में ऐसा लगभग
हर साल किसी ना किसी फसल के साथ होता है। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर
ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम
मिलते हैं कि लागत भी ना निकले।
देश के
अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो
कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताश करती है।
राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ
किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। दिल्ली
से सटे पष्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों
में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े, मवेषियों को चराने की घटनाएं सुनाई
देती हैं। आष्चर्य इस बात का होता है कि जब हताश किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चैपट करता
होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा, या दिल्ली में
आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश ,
महाराश्ट्र,
और
उप्र के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनांए हर दूसरे-तीसरे
साल होती रहती है। जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तो तब षुगर मिलें या तो
गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत नीचा देती हैं, वह
भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काट कर खरदी केंद्र तक ढो कर ले जाना, फिर
घूस दे कर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना;
किसान
को घाटे का सौदा दिखता है। अतः वह खड़ी फसल जला कर अपने अरमानों की दुनिया खुद ही
फूंक लेता है। आज उसी गन्ने की कमी के कारण देश में चीनी के दाम आम लोगों के मुंह का स्वाद
कड़वा कर रहे हैं।
कृशि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृशि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद
खरीदी, बिचैलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन
जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी
के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है। सब्जी, फल और दूसरी कैश
-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुश्परिणाम दाल, तेल-बीजों(तिलहनों)
और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ
रहे हैं। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फॅसल और कितनी उगाई जाए, पैदा
फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे; इसकी नीतियां
तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो,
साथ
ही प्रसंस्करण के कारखाने छोटी-छोटी जगहों पर लगें। यदि किसान रूठ गया तो ध्यान
रहे, कारें तो विदेश से मंगवाई जा
सकती हैं, एक अरब की आबादी का पेट भरना संभव नहीं होगा।
पंकज चतुवैदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
9891928376
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