18 नवंबर
पंकज चतुर्वेदी
चार साल पहले लखनउ के पुराना किला स्थित दुर्गाभाभी द्वारा स्थापित लखनउ मांटेंसरी के सभागार में एक आयोजन हुआ था- बटुकेश्वर दत्त के श
ताब्दी वर्श के प्रारंभ में उसके बाद देश में कुछ जगहों पर कुछ लोगों ने अपने स्तर पर ऐसे आयोजन किए। लेकिन बहरी सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी, विपक्षी दलों को इसमें वोट बैंक का मसाला नहीं मिला- साल बीत गया। ऐसी बेरूखी हुई उस क्रांतिकारी के साथ जिसे बहरी गोरों की सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए शहीदेआजम भगत सिंह ने अपना साथी चुना था था। सांडर्स हत्याकांड, लाहैार षडयंत्र, दिल्ली असेंबली बम कांड की सुनवाईयों के दौरान जेल में अनवरत आमरण अनशन करने वाला और हर बार अदालत लाते समय भगत सिंह पर पड़ने वाली चोटों को अपने शरीर पर लेने वाले बटुकदा। किसी को याद नहीं है उसका नाम, यह क्या याद रहेगा कि पिछले साल 18 नवंबर 2010 को उस महान सेनानी की जन्म शताब्दी था- ना कोई जलसा, ना कोई प्रतिमा, ना कोई डाक टिकट और ना कोई नामलेवा बचा है बटुकेश्वर दत्त का। शताब्दी वर्श के पूरे 4 साल भी ऐसे ही गुमनामी में खो गए, ठीक उसी तरह जैसे कि आजाद भारत में यह महान सेनानी जीवित रहते हुए विस्मृत रहा था।
उन्होंने 12 साल जेल में काटे- कई साल तक कालापानी की अमानवीय यातनाएं झेलीं। भगत सिंह की माताजी उन्हें अपना बेटा मानती थीें, जेल के दिनों में वे एक हाथ से भगत सिंह को तो दूसरे हाथ से उसे निवाले खिलाती थीें। यही नहीं आजाद हिंदुस्तान में जब उन्हें कैंसर जैसी बीमारी ने घेर लिया तो उनके गृह राज्य ने नहीं, भगत सिंह के कारण पंजाब सरकार ने उनकी देखभाल की। उनकी अंतिम इच्छा के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार भी हुसैनीवाला,फिरोजपुर, पंजाब में भगत सिंह की समाधि के बगल में ही किया गया। महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली की सेंट्रल असेम्बली में अपने साथी भगत सिंह के साथ बम बिस्फोट कर ब्रिटिश साम्राज्य को समूल हिला कर रख दिया था और वास्तव में उसी घटना के बाद से भारत में ब्रितानी हुकुमत के पैर उखड़ना शुरू हो गए थे। सनद रहे कि उस घटना के समय भगत सिंह की आयु 21 साल थी, जबकि बटुकेश्वर दत्त् महज 18 साल के ही थे । उनके साथी चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, महावीर सिंह आदि एक-एक करके वतन के लिए शहीद होते चले गये। जब भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई, तब उन्होंने सेंट्रल जेल, लाहौर से बटुकेश्वर दत्त को भेजे गए अपने आखिरी खत में लिखा था- ‘‘तुम्हें आजीवन कारावास मिला है, तुम्हें जीवित रह कर दुनिया को यह दिखाना है कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए ना केवल मर सकता है, बल्कि जीवित रह कर भी दुनिया की हर मुष्किलों का जीवटता से सामना कर सकता है। बटुकेष्वर दत्त ने अपने प्रिय साथी भगत सिंह के इस अटल विश्वास को ताजिदंगी कायम रखा। उन्होंने पहले तो जीवटतापूर्वक 10 वर्ष अंडमान की नारकीय जेल में कालापानी की सजा भोगी और फिर उसके बाद उन्होंने सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। एक बार फिर वे काल-कोठरी में कैद रहे। सन् 1947 में अंग्रेज भारत छोड़ कर चले गए। यह विडंबना ही है कि स्वाधीन भारत में इस महान क्रांतिकारी को असहाय, निर्धनता, गुमनामी और जिल्लत भरी जिदंगी ही नसीब हुई । आजादी की लड़ाई में हथियार उठाने के कारण उनके सगे भाई ने उन्हें घर से निकाल दिया था और मृत्युपर्यन्त उनका आपस में कोई संपर्क नहीं रहा। लेकिन जिस देश के लिए उन्हानें अपना सब कुछ कुर्बान किया उसने भी उपेक्षा एवं तिरस्कार के ऐसे तीक्ष्ण दंश उन्हें दिए जो गैरो (अंग्रेजों) की यातनाओं के निर्मम प्रहारों से भी अधिक मर्मभेदी थे। वह महान् क्रांतिवीर जिसके भगतसिंह के साथ फोटो असेम्बली बमकांड के बाद देश के हर घर, दुकानों तक में शीशों से मढे़ होते थे, स्वाधीनता उपरांत पेट पालने के लिए उन्हें सिगरेट कंपनी के मामूली एजेंट के रूप में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं। उन्होंने बिस्कुट डबलरोटी का एक छोटा सा कारखाना खोला, लेकिन उसमें काफी घाटा हो गया और जल्द ही बंद हो गया। कुछ समय तक टूरिस्ट एजेंट एवं बस परिवहन का काम भी किया, परंतु एक के बाद एक अनेक कामों में असफलता ही उनके हाथ लगी।
किसी ने उन्हें बताया कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को बस के परमिट दिए जा रहे हैं। वे अपनी अर्जी ले कर आरटीओ अफसर के पास गए। उनसे पूछा गया कि आपके पास क्या प्रमाण है कि आप स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हो। इतना सब कुछ होने के बाद भी वे बिना किसी शिकवा शिकायत के खामोशी से अपनों की बेरूखी एवं उपेक्षा सहते रहे। इतने महान सेनानी के साथ यह सब उस राज्य में हुआ, जो अपनी सभ्यता, संस्कृति और अतीत की बड़ी-बड़ी नजीरें पेश करता है। उस राज्य की राजधानी पटना में जहां मटुकनाथ के सैंकड़ों अनुयायी हैं, बटुक दा को पूछने वाला कोई नहीं है।
बटुकेश्वर दत्त आगरा और ग्वालियर भी रहे। उन्हें देवघर में भी नजरबंद रखा गया। आजादी के बाद 18 नवम्बर 1947 को जिस दिन दत्त बाबू का जन्मदिन था, उसी दिन उनका विवाह अंजलि देवी से हो गया । विवाह के बाद वे स्थाई रूप से पटना में ही बस गए थे । उन्होंने पटना के मध्यमवर्गीय इलाके न्यू जक्कनपुर में श्री श्यामलचंद्र घोष का मकान किराये पर लिया था । दत्त बाबू ने किराये के इस मकान के बाद पटना के इसी क्षेत्र में एक अन्य मकान किराये से लिया था,जहां कुछ दिनों तक सपरिवार रहे थे । इस विवरण को देने का उद्देश्य है कि बटुकदा का जन्म, कार्य क्षेत्र, संघर्ष, जीवन यापन कई राज्यों - बंगाल, बिहार, उ.प्र., म.प्र.,झारखंड में हुआ; लेकिन किसी भी राज्य सरकार को यह सुध नहीं है कि यह उनका शताब्दी वर्ष था ा एक सरकारी विभाग नेशनल बुक ट्रस्ट ने जरूर इस अवसर पर श्री दत्त पर केंद्रित एक पुस्तक का प्रकाशन किया है जो शायद उन पर पहली पुस्तक है।
दत्त बाबू ने अपने जीवनकाल में एक डायरी में अपने क्र्रांतिकारी जीवन के महत्वपूर्ण संस्मरण लिखे थे, पर एक बार कोई महाशय उनसे पुस्तक लेखन के नाम पर वह डायरी मांग कर ले गए और कभी वापस नहीं की । दत्त बाबू आत्मकथा लिखना चाहते थे ,दुर्भाग्यवष उन्हें अपना यह ख्वाब साकार करने का मौका ना मिला और महज 55 वर्ष की आयु में ही दुनिया को अलविदा कर गए।
सन् 1963 में बटुकेष्वर दत्त ने भगत सिंह की माता विद्यावती के दर्शन उपरांत जीवन को संपूर्णता को आत्मसात कर लिया था । सन् 1964 में दत्त बाबू अचानक गंभीर रूप से बीमार हो गए। उन्हें 10 अगस्त को पटना के एक सरकारी अस्पताल में भर्ती किया गया, पर वहां उचित उपचार एवं देखरेख के उत्तम प्रबंधों का नितांत अभाव था । एक पत्रकार चमनलाल आजाद की प्रखर लेखनी से सत्ता के गलियारों में खलबली मच गयी । पंजाब के मुख्यमंत्री श्री रामकिशन एवं गृहमंत्री दरबारासिंह ने पंजाब सरकार की ओर से तुरंत एक हजार रूपये चैक बिहार के मुख्यमंत्री के.बी.सहाय को भेजकर यह लिखा कि यदि बिहार सरकार श्री दत्त का इलाज कराने में सक्षम नहीं है तो पंजाब सरकार उनका दिल्ली या चंडीगढ़ में इलाज कराने का संपूर्ण व्यय वहन करने के लिए तैयार है।
भगतसिंह की माता विद्यावती तो दत्त बाबू की बीमारी और उन्हें खो देने की कल्पना मात्र से ही काफी व्यथित हो गयी थी, वह दत्त में भगतसिंह की अनुकृति पाती थी । वह स्वयं काफी लंबी बीमारी भुगत चुकी थीं, 85 वर्ष की आयु में चलने फिरने में मजबूर थीं,फिर भी कभी वे दिल्ली पहुंच जाती,कभी गाॅंव लौट जाती । 20 जुलाई 1965 की रात 1 बज कर 50 मिनट पर बटुकेश्वर दत्त इस नश्वर दुनिया से अलविदा हो गए । भारतीय क्रांति का एक दैदिव्यवान नक्षत्र सदैव के लिए अस्त हो गया । जैसी की दत्त बाबू की इच्छा थी, उनका अंतिम संस्कार भगत सिंह की समाधि के करीब ही किया गया। उनकी पत्नी अंजली देवी का देहावसान सन 2001 में हुआ। उनकी इकलोती बेटी भारती बागची पटना में ही रहती हैं और एक कालेज में प्रोफेसर हैं। उनके परिवार से कोई ना तो सियासत में है और ना ही सत्ता के गलियारों में उनका कोई दखल है, शायद तभी इतने महान सेनानी की यादों को संरक्षित करने और आज की पीढ़ी को उनके महान अवदान की जानकारी देने के लिए कोई सरकारी प्रयास नहीं हुए।
श्री बटुकेश्वर दत्त की एकमात्र संतान, उनकी बेटी, जो पटना में एक कालेज में प्रोफेसर हैं; का कहना है कि बटकुजी के शताब्दी वर्ष के अवसर पर सरकार को दिल्ली में उसी असेंबली हाल में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की एक प्रतिमा साथ में लगाना चाहिए। इसके अलावा उन पर एक डाक टिकट और दिल्ली में भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों की स्मृति में एक स्मारक बनवाना चाहिए। शहीदेआजम भगत सिंह के भांजे तथा उनके विचारों के प्रचार-प्रसार में सक्रिय प्रो जगमोहन सिंह का कहना है कि बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह का मूल्यांकन अलग-अलग करना ही बेमानी है। वे एक जान, एक विचार और एक लक्ष्य के दो अलग जिस्म मात्र थे।
आजादी की लड़ाई का एक विस्मृत नायक: बटुकेश्वर दत्त
पंकज चतुर्वेदी
चार साल पहले लखनउ के पुराना किला स्थित दुर्गाभाभी द्वारा स्थापित लखनउ मांटेंसरी के सभागार में एक आयोजन हुआ था- बटुकेश्वर दत्त के श
द सी एक्सप्रेस आगरा, 7.12.14 |
उन्होंने 12 साल जेल में काटे- कई साल तक कालापानी की अमानवीय यातनाएं झेलीं। भगत सिंह की माताजी उन्हें अपना बेटा मानती थीें, जेल के दिनों में वे एक हाथ से भगत सिंह को तो दूसरे हाथ से उसे निवाले खिलाती थीें। यही नहीं आजाद हिंदुस्तान में जब उन्हें कैंसर जैसी बीमारी ने घेर लिया तो उनके गृह राज्य ने नहीं, भगत सिंह के कारण पंजाब सरकार ने उनकी देखभाल की। उनकी अंतिम इच्छा के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार भी हुसैनीवाला,फिरोजपुर, पंजाब में भगत सिंह की समाधि के बगल में ही किया गया। महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली की सेंट्रल असेम्बली में अपने साथी भगत सिंह के साथ बम बिस्फोट कर ब्रिटिश साम्राज्य को समूल हिला कर रख दिया था और वास्तव में उसी घटना के बाद से भारत में ब्रितानी हुकुमत के पैर उखड़ना शुरू हो गए थे। सनद रहे कि उस घटना के समय भगत सिंह की आयु 21 साल थी, जबकि बटुकेश्वर दत्त् महज 18 साल के ही थे । उनके साथी चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, महावीर सिंह आदि एक-एक करके वतन के लिए शहीद होते चले गये। जब भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई, तब उन्होंने सेंट्रल जेल, लाहौर से बटुकेश्वर दत्त को भेजे गए अपने आखिरी खत में लिखा था- ‘‘तुम्हें आजीवन कारावास मिला है, तुम्हें जीवित रह कर दुनिया को यह दिखाना है कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए ना केवल मर सकता है, बल्कि जीवित रह कर भी दुनिया की हर मुष्किलों का जीवटता से सामना कर सकता है। बटुकेष्वर दत्त ने अपने प्रिय साथी भगत सिंह के इस अटल विश्वास को ताजिदंगी कायम रखा। उन्होंने पहले तो जीवटतापूर्वक 10 वर्ष अंडमान की नारकीय जेल में कालापानी की सजा भोगी और फिर उसके बाद उन्होंने सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। एक बार फिर वे काल-कोठरी में कैद रहे। सन् 1947 में अंग्रेज भारत छोड़ कर चले गए। यह विडंबना ही है कि स्वाधीन भारत में इस महान क्रांतिकारी को असहाय, निर्धनता, गुमनामी और जिल्लत भरी जिदंगी ही नसीब हुई । आजादी की लड़ाई में हथियार उठाने के कारण उनके सगे भाई ने उन्हें घर से निकाल दिया था और मृत्युपर्यन्त उनका आपस में कोई संपर्क नहीं रहा। लेकिन जिस देश के लिए उन्हानें अपना सब कुछ कुर्बान किया उसने भी उपेक्षा एवं तिरस्कार के ऐसे तीक्ष्ण दंश उन्हें दिए जो गैरो (अंग्रेजों) की यातनाओं के निर्मम प्रहारों से भी अधिक मर्मभेदी थे। वह महान् क्रांतिवीर जिसके भगतसिंह के साथ फोटो असेम्बली बमकांड के बाद देश के हर घर, दुकानों तक में शीशों से मढे़ होते थे, स्वाधीनता उपरांत पेट पालने के लिए उन्हें सिगरेट कंपनी के मामूली एजेंट के रूप में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं। उन्होंने बिस्कुट डबलरोटी का एक छोटा सा कारखाना खोला, लेकिन उसमें काफी घाटा हो गया और जल्द ही बंद हो गया। कुछ समय तक टूरिस्ट एजेंट एवं बस परिवहन का काम भी किया, परंतु एक के बाद एक अनेक कामों में असफलता ही उनके हाथ लगी।
किसी ने उन्हें बताया कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को बस के परमिट दिए जा रहे हैं। वे अपनी अर्जी ले कर आरटीओ अफसर के पास गए। उनसे पूछा गया कि आपके पास क्या प्रमाण है कि आप स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हो। इतना सब कुछ होने के बाद भी वे बिना किसी शिकवा शिकायत के खामोशी से अपनों की बेरूखी एवं उपेक्षा सहते रहे। इतने महान सेनानी के साथ यह सब उस राज्य में हुआ, जो अपनी सभ्यता, संस्कृति और अतीत की बड़ी-बड़ी नजीरें पेश करता है। उस राज्य की राजधानी पटना में जहां मटुकनाथ के सैंकड़ों अनुयायी हैं, बटुक दा को पूछने वाला कोई नहीं है।
बटुकेश्वर दत्त आगरा और ग्वालियर भी रहे। उन्हें देवघर में भी नजरबंद रखा गया। आजादी के बाद 18 नवम्बर 1947 को जिस दिन दत्त बाबू का जन्मदिन था, उसी दिन उनका विवाह अंजलि देवी से हो गया । विवाह के बाद वे स्थाई रूप से पटना में ही बस गए थे । उन्होंने पटना के मध्यमवर्गीय इलाके न्यू जक्कनपुर में श्री श्यामलचंद्र घोष का मकान किराये पर लिया था । दत्त बाबू ने किराये के इस मकान के बाद पटना के इसी क्षेत्र में एक अन्य मकान किराये से लिया था,जहां कुछ दिनों तक सपरिवार रहे थे । इस विवरण को देने का उद्देश्य है कि बटुकदा का जन्म, कार्य क्षेत्र, संघर्ष, जीवन यापन कई राज्यों - बंगाल, बिहार, उ.प्र., म.प्र.,झारखंड में हुआ; लेकिन किसी भी राज्य सरकार को यह सुध नहीं है कि यह उनका शताब्दी वर्ष था ा एक सरकारी विभाग नेशनल बुक ट्रस्ट ने जरूर इस अवसर पर श्री दत्त पर केंद्रित एक पुस्तक का प्रकाशन किया है जो शायद उन पर पहली पुस्तक है।
दत्त बाबू ने अपने जीवनकाल में एक डायरी में अपने क्र्रांतिकारी जीवन के महत्वपूर्ण संस्मरण लिखे थे, पर एक बार कोई महाशय उनसे पुस्तक लेखन के नाम पर वह डायरी मांग कर ले गए और कभी वापस नहीं की । दत्त बाबू आत्मकथा लिखना चाहते थे ,दुर्भाग्यवष उन्हें अपना यह ख्वाब साकार करने का मौका ना मिला और महज 55 वर्ष की आयु में ही दुनिया को अलविदा कर गए।
सन् 1963 में बटुकेष्वर दत्त ने भगत सिंह की माता विद्यावती के दर्शन उपरांत जीवन को संपूर्णता को आत्मसात कर लिया था । सन् 1964 में दत्त बाबू अचानक गंभीर रूप से बीमार हो गए। उन्हें 10 अगस्त को पटना के एक सरकारी अस्पताल में भर्ती किया गया, पर वहां उचित उपचार एवं देखरेख के उत्तम प्रबंधों का नितांत अभाव था । एक पत्रकार चमनलाल आजाद की प्रखर लेखनी से सत्ता के गलियारों में खलबली मच गयी । पंजाब के मुख्यमंत्री श्री रामकिशन एवं गृहमंत्री दरबारासिंह ने पंजाब सरकार की ओर से तुरंत एक हजार रूपये चैक बिहार के मुख्यमंत्री के.बी.सहाय को भेजकर यह लिखा कि यदि बिहार सरकार श्री दत्त का इलाज कराने में सक्षम नहीं है तो पंजाब सरकार उनका दिल्ली या चंडीगढ़ में इलाज कराने का संपूर्ण व्यय वहन करने के लिए तैयार है।
भगतसिंह की माता विद्यावती तो दत्त बाबू की बीमारी और उन्हें खो देने की कल्पना मात्र से ही काफी व्यथित हो गयी थी, वह दत्त में भगतसिंह की अनुकृति पाती थी । वह स्वयं काफी लंबी बीमारी भुगत चुकी थीं, 85 वर्ष की आयु में चलने फिरने में मजबूर थीं,फिर भी कभी वे दिल्ली पहुंच जाती,कभी गाॅंव लौट जाती । 20 जुलाई 1965 की रात 1 बज कर 50 मिनट पर बटुकेश्वर दत्त इस नश्वर दुनिया से अलविदा हो गए । भारतीय क्रांति का एक दैदिव्यवान नक्षत्र सदैव के लिए अस्त हो गया । जैसी की दत्त बाबू की इच्छा थी, उनका अंतिम संस्कार भगत सिंह की समाधि के करीब ही किया गया। उनकी पत्नी अंजली देवी का देहावसान सन 2001 में हुआ। उनकी इकलोती बेटी भारती बागची पटना में ही रहती हैं और एक कालेज में प्रोफेसर हैं। उनके परिवार से कोई ना तो सियासत में है और ना ही सत्ता के गलियारों में उनका कोई दखल है, शायद तभी इतने महान सेनानी की यादों को संरक्षित करने और आज की पीढ़ी को उनके महान अवदान की जानकारी देने के लिए कोई सरकारी प्रयास नहीं हुए।
श्री बटुकेश्वर दत्त की एकमात्र संतान, उनकी बेटी, जो पटना में एक कालेज में प्रोफेसर हैं; का कहना है कि बटकुजी के शताब्दी वर्ष के अवसर पर सरकार को दिल्ली में उसी असेंबली हाल में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की एक प्रतिमा साथ में लगाना चाहिए। इसके अलावा उन पर एक डाक टिकट और दिल्ली में भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों की स्मृति में एक स्मारक बनवाना चाहिए। शहीदेआजम भगत सिंह के भांजे तथा उनके विचारों के प्रचार-प्रसार में सक्रिय प्रो जगमोहन सिंह का कहना है कि बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह का मूल्यांकन अलग-अलग करना ही बेमानी है। वे एक जान, एक विचार और एक लक्ष्य के दो अलग जिस्म मात्र थे।
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