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मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

Why not ban on loudspeakers ?

आफत बनते भोंपू और चुप्पी साधते लोग
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

hindustan hindi 10-12-14
आफत बनते भोंपू और चुप्पी साधते लोग
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
First Published: 09-12-14 08:48 PM
Last Updated: 09-12-14 08:48 PM
भले ही कानून कुछ कहता हो,  अदालतें कड़े आदेश देती हों,  लेकिन धर्म के कंधे पर सवार होकर शोर मचाने वाले लाउडस्पीकर हैं कि मानते ही नहीं। पिछले दो साल के दौरान अकेले उत्तर प्रदेश में हुए 20 से ज्यादा दंगों का मुख्य अभियुक्त यही लाउडस्पीकर रहा है। ये न केवल कानून-व्यवस्था के लिए चुनौती बने हैं,  बल्कि आम लोगों की सेहत और पर्यावरण के भी दुश्मन बने हुए हैं। सभी लोग इनसे तंग हैं,  लेकिन चुनौती यही है कि इन पर कानून सम्मत कार्रवाई कौन व कैसे करे? बीते जून-जुलाई में मुरादाबाद के कांठ कस्बे में एक मंदिर पर लाउड स्पीकर लगाने का बवाल इतना बढ़ा था कि वहां कई दिन कर्फ्यू लगाना पड़ा था। उस मामले में इलाहबाद हाई कोर्ट ने साफ कर दिया था कि मंदिर पर भोंपू नहीं लगेगा,  इसके बावजूद वहां हंगामा हुआ। मेरठ के मुंडाली क्षेत्र के नंगलामल गांव में रोजा इफ्तार के दौरान करीबी मंदिर पर भोंपू बजाने के कारण हुए झगड़े में दो लोग मारे गए थे। बरेली में तो लाउड स्पीकर बजाने को ले कर दो बार दंगे हो चुके हैं।

दिल्ली में त्रिलोकपुरी में दिवाली के पहले जागरण के लिए लाउड स्पीकर बजाने पर हुआ बवाल 15 दिनों तक चला। देश भर में 21 लाख से ज्यादा गैर-कानूनी धार्मिक स्थलों का आंकड़ा सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत किया गया है और ये सभी पूजा-स्थलों के लिए जमीन कब्जा करने और लोगों को बरगलाने में लाउडस्पीकर बड़ा अस्त्र हैं। अभी कुछ दशक पहले तक सुबह आंखें खुलने पर पक्षियों का कलरव हमारे कानों में मधु घोलता था,  आज देश की बड़ी आबादी अनमने मन से धार्मिक स्थलों के बेतरतीब शोर के साथ अपना दिन शुरू करता है। यह शोर पक्षियों,  प्रकृति प्रेमी कीट-पतंगों,  पालतू जीवों के लिए भी खतरा है। बुजुर्गों, बीमार लोगों व बच्चों के लिए यह असहनीय शोर बड़ा संकट बन कर उभरा है। पूरी रात जागरण या शादी,  जन्मदिन के लिए डीजे की तेज आवाज कई के लिए जानलेवा बन चुकी है। दुखद तो यह है कि अब यह बेकाबू रोग पूरी तरह निरंकुश हो चुका है।

ऐसा नहीं है कि इस बवाली भोंपू पर कानून नहीं है,  लेकिन उन कानूनों-आदेशों का पालन कौन करवाए? अस्सी डेसीबिल से ज्यादा आवाज न करने,  रात दस बजे से सुबह छह बजे तक ध्वनि-विस्तारक यंत्र का इस्तेमाल किसी भी हालत में न करने,  धार्मिक स्थलों पर एक निश्चित से ज्यादा ऊंचाई पर भोंपू न लगाने,  अस्पताल-शैक्षिक संस्थाओं, अदालत व पूजा स्थल के 100 मीटर के आसपास दिन हो या रात,  लाउड स्पीकर का इस्तेमाल न करने, जैसे ढेर सारे नियम किताबों में दर्ज हैं,  लेकिन लोग इनका इस्तेमाल अपना अधिकार मानकर करते हैं। शिकायत मिलने पर भी पुलिस अक्सर कुछ नहीं कर पाती। एक तो यह उनकी प्राथमिकताओं में नहीं आता,  दूसरा कि जिन्हें इनसे शिकायत है,  वे सामने नहीं आते। उनकी चुप्पी इस शोर को लगातार बढ़ा रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)





भले ही कानून कुछ कहता हो,  अदालतें कड़े आदेश देती हों,  लेकिन धर्म के कंधे पर सवार होकर शोर मचाने वाले लाउडस्पीकर हैं कि मानते ही नहीं। पिछले दो साल के दौरान अकेले उत्तर प्रदेश में हुए 20 से ज्यादा दंगों का मुख्य अभियुक्त यही लाउडस्पीकर रहा है। ये न केवल कानून-व्यवस्था के लिए चुनौती बने हैं,  बल्कि आम लोगों की सेहत और पर्यावरण के भी दुश्मन बने हुए हैं। सभी लोग इनसे तंग हैं,  लेकिन चुनौती यही है कि इन पर कानून सम्मत कार्रवाई कौन व कैसे करे? बीते जून-जुलाई में मुरादाबाद के कांठ कस्बे में एक मंदिर पर लाउड स्पीकर लगाने का बवाल इतना बढ़ा था कि वहां कई दिन कर्फ्यू लगाना पड़ा था। उस मामले में इलाहबाद हाई कोर्ट ने साफ कर दिया था कि मंदिर पर भोंपू नहीं लगेगा,  इसके बावजूद वहां हंगामा हुआ। मेरठ के मुंडाली क्षेत्र के नंगलामल गांव में रोजा इफ्तार के दौरान करीबी मंदिर पर भोंपू बजाने के कारण हुए झगड़े में दो लोग मारे गए थे। बरेली में तो लाउड स्पीकर बजाने को ले कर दो बार दंगे हो चुके हैं।

दिल्ली में त्रिलोकपुरी में दिवाली के पहले जागरण के लिए लाउड स्पीकर बजाने पर हुआ बवाल 15 दिनों तक चला। देश भर में 21 लाख से ज्यादा गैर-कानूनी धार्मिक स्थलों का आंकड़ा सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत किया गया है और ये सभी पूजा-स्थलों के लिए जमीन कब्जा करने और लोगों को बरगलाने में लाउडस्पीकर बड़ा अस्त्र हैं। अभी कुछ दशक पहले तक सुबह आंखें खुलने पर पक्षियों का कलरव हमारे कानों में मधु घोलता था,  आज देश की बड़ी आबादी अनमने मन से धार्मिक स्थलों के बेतरतीब शोर के साथ अपना दिन शुरू करता है। यह शोर पक्षियों,  प्रकृति प्रेमी कीट-पतंगों,  पालतू जीवों के लिए भी खतरा है। बुजुर्गों, बीमार लोगों व बच्चों के लिए यह असहनीय शोर बड़ा संकट बन कर उभरा है। पूरी रात जागरण या शादी,  जन्मदिन के लिए डीजे की तेज आवाज कई के लिए जानलेवा बन चुकी है। दुखद तो यह है कि अब यह बेकाबू रोग पूरी तरह निरंकुश हो चुका है।

ऐसा नहीं है कि इस बवाली भोंपू पर कानून नहीं है,  लेकिन उन कानूनों-आदेशों का पालन कौन करवाए? अस्सी डेसीबिल से ज्यादा आवाज न करने,  रात दस बजे से सुबह छह बजे तक ध्वनि-विस्तारक यंत्र का इस्तेमाल किसी भी हालत में न करने,  धार्मिक स्थलों पर एक निश्चित से ज्यादा ऊंचाई पर भोंपू न लगाने,  अस्पताल-शैक्षिक संस्थाओं, अदालत व पूजा स्थल के 100 मीटर के आसपास दिन हो या रात,  लाउड स्पीकर का इस्तेमाल न करने, जैसे ढेर सारे नियम किताबों में दर्ज हैं,  लेकिन लोग इनका इस्तेमाल अपना अधिकार मानकर करते हैं। शिकायत मिलने पर भी पुलिस अक्सर कुछ नहीं कर पाती। एक तो यह उनकी प्राथमिकताओं में नहीं आता,  दूसरा कि जिन्हें इनसे शिकायत है,  वे सामने नहीं आते। उनकी चुप्पी इस शोर को लगातार बढ़ा रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
THE SEA EXPRESS AGRA 14-12-14http://theseaexpress.com/epapermain.aspx


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