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मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

only bullet can not change the bastar

सिर्फ बदला लेने से नहीं बदलेगा बस्तर

पंकज चतुव्रेदी विश्लेषण
पिछले सालों में ठीक इसी तरह नक्सली छुप कर सुरक्षाबलों को फंसाते रहे हैं और उन पर हमला करते रहे हैं। हर बार पिछली घटनाओं से सबक लेने की बात होती है, लेकिन कुछ ही दिनों में सुरक्षाबल पुराने हमलों को भूल जाते हैं व फिर से नक्सलियों के फंदे में फंस जाते हैं जब कोई हमला होता है तो सशस्त्र बलों को जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात की जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि तीन सौ नक्सली घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंडमाइंस लगाई जाती है, लेकिन इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को क्यों नहीं लगती है

RASHTRIYA SAHARA 3-12-14

http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9

अड़तालीस घंटे से ज्यादा समय तक सुरक्षाबल छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के चिंतागुफा इलाके में एलमागुंडा और एरागोंडा के बीच फंसे रहे और सरकार राजधानियों में बैठ कर ललकारती रही। जंगल में बीते 16 नवम्बर से राज्य की स्पेशल कोबरा फोर्स, जिला बल और सीआरपीएफ के जवान गांव-गांव घूम रहे थे और तभी घात लगाए नक्सलियों ने उन पर हमला कर दिया। विडंबना यह है कि पिछले सात सालों में ठीक इसी तरह नक्सली छुप कर सुरक्षाबलों को फंसाते रहे हैं और ऊंचे स्थानों पर जगह बनाकर उन पर हमला करते रहे हैं। हर बार पिछली घटनाओं से सबक लेने की बात होती है, लेकिन कुछ ही दिनों में सुरक्षाबल पुराने हमलों को भूल जाते हैं और फिर से नक्सलियों के फंदे में फंस जाते हैं। बदले, प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की भावना के चलते ही देश के एक तिहाई इलाके में ‘लाल सलाम’ की आम लोगों पर पकड़ सुरक्षाबलों से ज्यादा है। बदला लेने के लिए गठित सलवा जुडूम पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी भी याद करें। बस्तर के जिस इलाके में सुरक्षाबलों का खून बहा है, वहां स्थानीय समाज दो पाटों के बीच पिस रहा है और उसके इस घुटनभरे पलायन की ही परिणति है कि वहां की कई लोक बोलियां लुप्त हो रही हैं। धुरबी बोलने वाले हल्बी वालों के इलाकों में बस गए हैं तो उनके संस्कार, लोक- रंग, बोली सब कुछ उनके अनुरूप हो रही है। इंसान की जिंदगी के साथ-साथ जो कुछ भी अकल्पनीय नुकसान हो रहे हैं, इसके लिए स्थानीय प्रशासन की कोताही ही जिम्मेदार है। नक्सलियों का अपना खुफिया तंत्र सटीक है, जबकि प्रशासन खबर पाकर भी कार्रवाई नहीं करता। खीजे-हताश सुरक्षाबल जो कार्रवाई करते हैं, उनमें कई बार स्थानीय निरीह आदिवासी शिकार बनते हैं और यही नक्सलियों के लिए मजबूती का आधार होता है। बस्तर के संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से सुकमा की ओर जाने वाले खूबसूरत रास्ते का विस्तार आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा तक है। इस पूरे रास्ते में बीच का कोई साठ किमी का रास्ता है ही नहीं और यहां चलने वाली बसें इस रास्ते को पार करने में कई घंटे ले लेती हैं। सड़क से सट कर ओडिशा का मलकानगिरी जिला पड़ता है जहां बेहद घने जंगल हैं। कांगेर घाटी और उससे आगे झीरम घाटी की सड़कों पर कई-कई सौ मीटर गहरी घाटियां हैं, जहां शीशम, साल के पेड़ों की घनी छाया है। अभी नवम्बर के तीसरे सप्ताह में कई स्थानीय अखबारों व समाचार चैनलों ने खबर दिखाई थी कि सुकमा में चिंतागुफा के बीच नक्सलियों की गतिविधियां दिख रही हैं। उधर राज्य की पुलिस पिछले कुछ महीनों से कथित आत्मसमर्पण करवा कर यह माहौल बनाने में लगी थी कि अब नक्सलियों की ताकत खत्म हो गई है। इसके बावजूद पुलिस का खुफिया तंत्र उनकी ठीक स्थिति जानने में असफल रहा। यही नहीं, केंद्रीय गृह विभाग ने भी चेतावनी भेजी थी कि नक्सली हिंसा कर सकते हैं। इसमें सुरक्षाबलों पर हमला, जेल पर हमला आदि की संभावना जताई गई थी। फिर भी चेतावनियों से बेपरवाह सुरक्षाबल जंगल में घुस तो गए, लेकिन वापस आते समय चक्रव्यूह में फंस गए। जिस तरह पहाड़ी पर नक्सलियों ने कब्जा किया था और नीचे स्थित पुलिया पर डायनामाइट लगाया था तथा पीछे आ रही पार्टी को भी रोक लिया था, उससे साफ है कि नक्सलियों को सीआरपीएफ की टुकड़ी के थाने से निकलने के पल-पल की खबर मिल रही थी।
RAJ EXPRESS BHOPAL 4-12-14 http://epaper.rajexpress.in/epapermain.aspx?edcode=19&eddate=12%2f4%2f2014  



वर्ष 2009 में राजनांदगांव के एसपी विनोद चौबे व उनकी टीम पर हुए हमले के बाद नक्सलियों का छत्तीसगढ़ में इस तरह का यह 14वां हमला है। वे छोटी टुकड़ी पर हमला करते हैं और जब बड़ी टुकड़ी बचाव या अपने शहीद साथियों के शव लेने आती है तो उस पर घात लगाकर चारों तरफ से हमला कर देते हैं। इस दौरान उनका मूल उद्देश्य हथियार लूटना होता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। अब भारत सरकार के गृह मंत्रालय की सात साल पुरानी एक रपट की धूल झाड़ें तो पता चलेगा कि वर्ष 2006 की ‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों- ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणो-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययोजना का कहीं अता-पता नहीं है। बस जब कोई हमला होता है तो सशस्त्र बलों को जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात की कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि तीन सौ नक्सली हथियार लेकर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंडमाइंस लगाई जाती है और मुख्य मार्ग पर इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को क्यों नहीं लगती है। एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है, तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भ्रम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति और लोकतंत्र की साख। बंदूकों को अपनों पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देश नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्ते निकालें, समस्या की जड़ में जाकर उसके निरापद हल की कोशिश करें; अन्यथा सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। लेकिन साथ ही उन खुफिया अफसरों, वरिष्ठ अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय की जाए जिनकी लापरवाही के चलते 15 सुरक्षाकर्मी व एक ग्रामीण काल के गाल में बेवजह समा गए। यह हमला उन कारणों को आंकने का सही अवसर हो सकता है जिनके चलते आम लोगों का सरकार या पुलिस से ज्यादा नक्सलियों पर विास है। यह नरसंहार अपनी सुरक्षा व्यवस्था व लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आए झोल को ठीक करने की चेतावनी दे रहा है। दंडकारण्य में फैलती बारूद की गंध नीति-निर्धारकों के लिए विचारने का अवसर है कि नक्सलवाद को जड़ से उखाड़ने के लिए बंदूक का जवाब बंदूक से देना ही एकमात्र विकल्प है या फिर संवाद का रास्ता खोजना होगा या फिर एक तरफ से बल प्रयोग व दूसरी तरफ से संवाद की संभावनाएं खोजना समय की मांग है। आदिवासी इलाकों की कई बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा पर अपना कब्जा जताने के लिए पूंजीवादी घरानों का समर्थन करने वाली सरकार वर्ष 1996 में संसद द्वारा पारित आदिवासी इलाकों के लिए विशेष पंचायत कानून (पेसा अधिनियम) लागू करना तो दूर, उसे भूल ही चुकी है। इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की जमीन के प्रबंधन और रक्षा करने का पूरा अधिकार था। इसी तरह परंपरागत आदिवासी अधिनियम 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया लेकिन उसका लाभ दंडकारण्य तक नहीं गया। कारण वह बड़े घरानों के हितों के विपरीत है। असल में यह समय है उन कानूनों- अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का, लेकिन हम बात कर रहे हैं कि जनजातीय इलाकों में सरकारी बजट कम किया जाए, क्योंकि उसका बड़ा हिस्सा नक्सली लेवी के रूप में वसूल रहे हैं।

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