प्रतिबंधित दवाओं की खुली मंडी बनता भारत
Daily News Activist, Lucknow 2-2-15http://dailynewsactivist.com/Details.aspx?id=811&boxid=51935876&eddate=2/2/2015 |
इन दिनों बड़ा हल्ला है कि आक्सीटोसीन नामक इंजेक्षन से सब्जियां और दूध को जहरीला बना कर बेचा जा रहा है। संसद के पावस सत्र में इस पर चर्चा भी हुई। लेकिन यह कोई नहीं बता रहा है कि इस कथित जहरीले इंजेक्षन का उत्पादन करने, बेचने की मंजूरी इसी सरकार में बैठे लोग दे रहे हैं। क्या इंजेक्षन के कारखाने अवैध चल रहे हैं ? हकीकत तो यह है कि बाजार में बेची जा रही दवाओं के विपरीत प्रभावों के अध्ययन के लिए किसी संगठित व्यवस्था के अभाव में भारत का बाजार प्रतिबंधित दवाओं की मंडी बनता जा रहा है । यह दुर्भाग्य है कि कौन सी दवा उपयोगी है और कौन सी षरीर पर गलत असर डालती है, यह जानने के लिए भारत पूरी तरह पष्चिमी देषों पर निर्भर है । इसके बावजूद हम ऐसी कई दवाओं की धड़ल्ले से बिक्री कर रहे हैं, जिनके इस्तेमाल पर पष्चिमी देषों ने कड़ी पाबंदी लगा रखी है ।
नोवाल्जीन के नाम से बिकने वाले दर्दनिवारक का मूल तत्व एनाल्जीन है । इसकेा खाने से ‘‘अस्थि-मज्जा अवसाद ’’ की बीमारी होने की संभावना होती है । इस खतरे के कारण इसकी बिक्री पष्चिमी देषों में प्रतिबंधित है , लेकिन हमारे देष में तो इसे खरीदने के लिए डाक्टर के पर्चे की भी जरूरत नहीं है । इसी तरह एसीडीटी और कब्ज के लिए बाजार में बिक रही दवा सीजा व सिस्प्राईड(साईजाप्राईड), अवसाद-निरोधी दवा ड्रोपेराल(ड्रोपेराइडाल), भी प्रतिबंधित श्रेणी की दवाए हैं , जिनसे दिल की धड़कन अनियमित होने की संभावना होती है । पष्चिमी देषों के वैज्ञानिकों के षोध बताते हैं कि दस्त के लिए दी जाने वाली दवाएं फ्यूरोक्सन व लोमोफेन ; वेक्टेरिया से बचने के लिए लगाई जाने वाली क्रीम फ्यूरासीन(नाईट्रोफ्यूरोजोन) ; षिथिलता की बीमारी से बचने की दवाई एगारोल(फेनोल्फ्थेलीन) के इसत्ेमाल से कैंसर होने की संभावना प्रबल हो जाती है । इसी कारण समूचे विकसित देषों ने इन दवाओं की खरीद-बिक्री पर रोक लगा रखी है । लेकिन भारत में यह सभी दवाएं खुलेआम बेखौफ बिक रही है ।
निम्यूलीड व नाईस के नाम से बिकने वाली दर्दनिवारक व बुखार की दवा हमारे देष की सबसे अधिक बिकने वाली औशधियों में से एक है । इसमें मौजूद निमेस्यूलाईड लीवर खराब कर सकता है । पेट में कीड़े होने पर बच्चों को दी जाने वाली दवा पिपराजीन स्नायु-तंत्र को छिन्न-भिन्न कर देती है । इसके बावजूद हमारे देष में यह दूरस्थ अंचलों तक सुलभ है ।
दिमागी कमजोरी के इलाज में प्रयुक्त एरलाईडिन, क्लेंडल, कप्लेमाईना, साईक्लोपेस मोल, फ्लेक्साईटल, फ्लोपेंट, काईनेटाल 400, आर.बी.फ्लेक्स, सुपरोक्स, ट्रेंटल जैसी दवाओं के दिमागी इलाज में उपयोगी होने को आज तक किसी भी अधिकृत संस्था ने प्रमाणित नहीं किया है । इसी तरह सेरेसेटम, सेरेलोईंड, इनसेफेबाल, हाईडरजीन, गिंकोसर, नुट्रोपील 800, पाईरेटम, वेसोटोप आदि में कोई ऐसा तत्व नहीं हैं जो मानसिक रोगों में कुछ फायदा दे ।
बाजार में इन दिनों भूख बढ़ाने वाली दवाओं का बोलबाला है, जिनमें विशेष रूप से साईप्रोहेप्डीन तथा ब्यूसीजीन मुरव्य अवयव होता है । ऐसी 30 से अधिक दवाएं प्रचलित है, जो नवजात शिशुओं या समय से पूर्व पैदा बच्चों के लिए जानलेवा हो सकती हैं । इन दवाओं के इस्तेमाल से मतिभ्रम, ऐंठन और मौत तक संभव है । इससे मानसिक सक्रियता में कमी आने के भी असंख्य उदाहरण उपलब्ध हैं ।
अमेरिकी सरकार ने मोटापा घटाने वाली दो सर्वाधिक लोकप्रिय दवाओं पर पाबंदी लगा दी है । ‘रीडक्स’ एक ऐसी दवा है जिसका सेवन दुनिया भर में 50 लाख से अधिक लोग अपनी काया सुडोल बनाने के लिए करते हैं । इस दवा के कारगर होने की प्रक्रिया शरीर के ‘मूल आचार व्यवहार में परिवर्तन’ के माध्यम से संचालित होती है । मोटापा घटाने की एक और प्रचलित दवा ‘पांडीमीन’ के कारण जानलेवा ह्नदय रोग हो सकते हैं । इन दवाओं के कुप्रभावों पर जब हल्ला मचा तो ‘रीडक्स’ और ‘पांडीमीन’ को बाजार से हटा लिया गया । गौरतलब है कि ये दोनों दवाएं एफडीए (फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन) से मंजूरी प्राप्त हैं । वास्तव में इन दवाओं को एफडीए की मंजूरी केवल ‘अतिस्थूल मरीजों’ के इलाज के लिए थी , जबकि डाक्टरों और सुडौल बनाने की दुकान चलाने वालों ने इसका इस्तेमाल थोड़ी सी चर्बी बढ़ने पर ही करना शुरू कर दिया था । यही नहीं इस ‘मेजिक मेडीसीन’ की अंधाधुंध खुराकें भी दी गईं, जिसके चलते फायदे के बनिस्पत नुकसान अधिक हुआ । सनद रहे पांडीमीन के दुष्प्रभाव की जानकारी उसकी खोज के 24 साल बाद हो पाई थी ।
1995 में ‘रीडक्स’ को मंजूरी के लिए एफडीए के पास भेजते समय ही पता चल गया था कि इस दवा के परीक्षण के दौरान जानवरों के दिमाग पर विपरित प्रभाव डाला था । पैसा कमाने की हवस में कंपनी ने इस तथ्य को छुपाए रखा । आज अकेले अमेरिका में सौ से अधिक ऐसे मामले प्रकाश में आए हैं, जिसमें इस दवा का सेवन करने वालों के ह्नदय वाल्व क्षतिग्रस्त हो गए हैं । साथ ही दवा खाने वाले 30 फीसदी लोगों में बगैर किसी पूर्व लक्षण के दिल का वाल्व खराब होने की संभावना देखी गई ।
सजीव इंद्रियों में क्रोमोजोस की संरचना में परिवर्तन कर खेती, औषधि आदि क्षेत्रों में क्रांतिकारी शोध करना आनुवांशिकी इंजीनियरिंग का उद्देश्य रहा हैं । लेकिन अमेरिका में ही पांच हजार से अधिक ऐसे लोग, जो ईएमएस (इस्नोफीलिया मायलजिया सिंड्राम) से पीडि़त हैं , आनुवांशिकी इंजीनियरिंग से लोक कल्याणकारी इरादों के सामने सवालिया निशान बने हुए हैं । इस बीमारी का मुरव्य कारण वैकल्पिक आहार के रूप में प्रयुक्त ‘एल ट्रायप्टफेन’ नामक दवा का इस्तेमाल बताया जा रहा है । आनुवांशिकी इंजीनियरिंग के तहत पुन संयोजित डी.एन.ए. तकनीकी से इंटरफेरोन, इंसुलिन, हार्मांेंस आदि चिकित्सीय प्रोटिनों का उत्पाद होता है । इंटरफेरोन का निर्माण मानव शरीर के ऊतकों और रक्त कोशिकाओं से किया जाता है । इसका प्रयोग शक्तिशाली प्रति-विषाणु कारक एजेंट के रूप में होता है । चूंकि इसे मानव शरीर से प्रप्त करने की प्रक्रिया खासी जटिल और महंगी है, सो इसके उत्पादन के लिए वेक्टेरिया प्रणाली अपनाने के प्रयोग हो रहे हैं । यहां जानना जरूरी है कि जिस मानव शरीर से इंटरफेरोन का संश्लेषण किया जाता है, उसके आनुवांशिकी जटिल रोगों का उससे निर्मित दवा खाने वाले पर गंभीर असर होता है । इसी प्रकार इंसुलिन का निष्कर्षण गाय और सुअर के अग्नाशय से किया जाता है । कई मामलों में पशु-इंसुलिन से एलर्जी हो जाने की शिकायत सामने आई है ।
अमेरिका ओर यूरोपीय देशों में जब ऐसी घातक दवाओं के उपयोग पर पाबंदी लगी तो पेंटेंटधारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत जैसे विकासशील देशों को अपना बाजार बना लिया है । आज भारत के बाजार में सैंकड़ो ऐसे दवाएं धड़ल्ले से बिक रही हैं, जिनकी रोग निरोधक क्षमता संदिग्ध है । कई दवाओं पर सरकार ने पाबंदी लगा रखी है, और कई एक के घातक असर को देखते हुए उन पर रोक लगाना जरूरी है । कुछ ऐसी दवाएं भी बाजार में बिक रही हैं, जिनके माकूल होने की जांच आज तक किसी अधिकृत संस्था से नहीं हुई है ।
से मखौल करते विकसित देश है । वहीं दूसरी ओर लापरवाह भारत सरकार है जो आने वाली पीढि़यों को पंगु बनाने वाली तथाकथित औषधियों की बिक्री के प्रति लापरवाह है ।
पंकज चतुर्वेदी
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