My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

DISPLACEMENT : THE BIGGEST TRAGEDY OF INDEPENDENT INDIA

विस्थापन से बड़ी कोई त्रासदी नहीं

                                          पंकज चतुर्वेदी

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विचित्र विडंबना है, कोई अपने घर-गांव से बेदखल किया जाता है तो आज का अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र को पैताने पर रख कर उसमें विकास के प्रतिमान तलाश  रहा है। हकीकत तो यह है कि आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी किसको कहा जा सकता है ?’ यदि इस सवाल का जवाब ईमानदारी से खोजा जाए तो वह होगा -कोई पचास करोड़ लोगों का अपने पुष्तैनी घर, गांव, रोजगार से पलायन। और आने वाले दिनों की सबसे भीषण  त्रासदी क्या होगी ?’ आर्थिक-सामाजिक ढ़ांचे में बदलाव का अध्ययन करें तो जवाब होगा- पलायन से उपजे शहरों का --अरबन-स्लममें बदलना सामजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और विकास की परिभाशाओं में केवल पूंजी की जयजयकार होना। पलायन विकास के नाम पर उजाड़े गए लेागों का, पलायन आतंकवाद के भय से उपजा, पलायन अपने पुष्तैनी घर पर माकूल रोजगार ना मिलने के कारण बेहतर भविश्य की कामना में श हरों का, पलायन पारंपरिक दक्षता या वृृत्ति के बाजारवाद की भेट चढ़कर अप्रासंगिक हो जाने का।
जब से मुल्क में विकास का कंक्रीट माॅडल’’ परवान चढ़ा, तभी से पलायन सुरसामुख की तरह विस्तारित हुआ। सौ साल पहले बनी राजधानी दिल्ली को उगाने के लिए पहली बार इतने हजार लोगों को बुंदेलखड, राजस्थान से हाॅंक कर दिल्ली लाया गया था। उसके बाद देश  की आजादी की पहली घटना ही रक्तरंजित विस्थापन की थी। इसी का परिणाम है कि देश  की लगभग एक तिहाई आबादी  31.16 प्रतिश त अब श हरों में रह रही हैं। भारत में इस समय कोई 3600 बांध हैं, इनमें से 3300 आजादी के बाद ही बांधे गए। अनुमान है कि प्रत्येक बांध की चपेट में औसतन बीस हजार लोगों को घर-गांव, रोटी-रोजगार से उजाड़े गए।  यानी कोई पौने सात करोड़ लोग तो श हरों  के लिए बिजली या खेतों के लिए पानी उगाहने के नाम पर विस्थापित हुए। यह भी साजिश  है या  अनायास कि बांधों के अििधकांश  प्रोजक्ट अनुसचित कही जाने वाली जातियां के इलाकों में ही रहे, तभी विस्थापित लोगों में 40 प्रतिश त आदिवासी और 20 प्रतिश त अनुसचित जाति के लोग हैं। जबरिया उजाड़े गए 36 फीसदी लोग ग्रामीण अंचल के गरीब परिवार के रहे हैं।  कहा जा सकता है कि देश  की लगभग दस फीसदी आबदी महज बांध के नाम पर उजाड़ी जा चुकी है। अन्य कारणों से उजाड़ने के आंकड़े जोडे जाएं तो मुल्क की 35 फीसदी आबादी किसी ना किसी कारण से बीते साठ सालों में पलायित हुई हे। इनमें बांध, सड़क, कारखाने, संरक्षित वन , प्राकृतिक अपदाएं जैसे सहित ना जाने कितने कारक हैं। चलो पलयान को विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया के आधुनिक सिद्धांत को एक बारगी मान भी लिया जाए तो पुनर्वास भी तो उसी नीति का दूसरा समान पहलु होना चाहिए ना ? यह सरकार स्वीकारती है कि उजाड़े गए लोगों का फिर से बसाने में संतुश्टि बामुष्किल पच्चीस फीसदी है, यानी तीन चैथाई उजाड़े गए लोग पुनर्वास नीति से हताश  हैं। पष्चिम बंगाल की फरक्का थर्मल पावर प्लांट  के कारण 63,325 लोगों को घर-बार से उजाड़ने का आंकड़ा सन 1994 में विष्व बैंक ने दिया था और उनके पुनर्वास का आंकड़ा षून्य रहा। जाहिर है कि राज्य सरकार ने लोगों को अपने हाल पर छोड दिया था। तीन साल पहले का बंगाल का सिंगूर या उडीसा का पास्को विवाद जमीन से उजउ़ने से ज्यादा सही तरीके से तत्काल पुनर्वास को ले कर ही था और सरकार के पास इसकी कोई स्पष्ट नीति नहीं है। कर्नाटक के बागलकोट जिले में कृश्णा नदी पर बीते चालीस सालों से बन रहे अलमाटी बांध में सन 1969 की जनगणना के आधार पर  136 गांवों के एक लाख अस्सी हजार लोगों के विस्थापन का अंदाज था।  मामला कभी अदालत में तो कभी सियासत में उलझा रहा। सरकार का दावा था कि इस परियोजना का पुनर्वास देश  के सामने मिसाल होगा, लेकिन समय के साथ बए़ती परियोजना व उसके साथ ही बढ़ती आबादी के चलते सब सपने हवा हो गए। अलमाटी बांध वहां के लोगों के लिए मुफिलिसी, सामाजिक बिखराव व बीमारियों की सौगात ले कर आया हे। नर्मदा बांध की कहानी भी इससे अलग नहीं है।
घर-गांव छोड़ कर अधर में लटकने का दर्द देखना हो तो बस्तर में देखें- सरकारी मिलिश य सलवा जुड़ुममें फंस कर कई हजार लोग राहत शिविरों में आ गए। कई हजार करीबी आंध्र प्रदेश   या उड़ीसा में चले गए। अब वे ना तो घर के रहे ना घाट के। हर तरफ मौत है, गरीबी है और सबसे बड़ी विडंबना इन शिविरों में वे अपनी बोली, संस्कृति, नाच, भोजन,नाम, नाच सबकुछ बिसरा रहे हैं। एक तरफ नक्सली हैं तो दूसरी ओर खाकी वाले। ठीक इसी तरह का विस्थापन व पलायन आतंकवाद ग्रस्त कष्मीर का है। वहां के कष्मीरी पंडित जम्मू के राहत शिविरों में नारकीय जीवन जी रहे हैं। इसी तरह आतंकवाद के कारण पलायन के किस्से उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी सामने आते हैं।  कर्नाटक का नागरहाले हो या फिर म.प्र. का पन्ना संरक्षित वन क्षेत्र, हर जगह कई हजार आदिवासियों को जंगल के नाम पर खदेड़ दिया गया। यही नहीं 19 राज्यों में 237 स्पेश ल एकोनोमिक जोन यानी सेज के नाम पर एक लाख 14 हजार लोगों को जमीन से बेदखल करने का आंकड़ा सरकारी है। इन लोगों के खेतों में काम करने वाले 84 हजार लोगों के बेराजगार होने का दर्द तो मुआवजे के लायक भी नहीं माना गया।
मजदूरी या रोजगार के लिए घर छोड़ने के हर साल पांच लाख से ज्यादा मामले बंुदेलखंड, राजस्थान, बिहार और पूर्वी उ.्रप से आते हैं। इनके यहां या तो पर्याप्त खेती की जमीन नहीं है, या खेती लाभ का धंधा रह नहीें गई, या फिर सामंती तत्व पूरी मजदूरी नहीं देते या फिर मेहनत-मजदूरी करने से सामाजिक-षान को चोट पहुंचती हे। कई हजार पढ़े-लिखे लोग अपने इलाके-राज्य में ठीक-ठाक रोजगार का अवसर ना मिलने के कारण महानगरों की ओर आते हैं और इनमें से आधे कभी लौटते नहीं हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़े गवाह हैं कि गांव छोड़ कर श हर की ओर जाने वालों की संख्या बढ़ रही है और अब 37 करोड 70 लाख लोग श हरों के बाषिंदे हैं । सन 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना करें तो पाएंगे कि इस अवधि में श हरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ जबकि गावंो की आबादी नौ करोड़ पांच लाख ही बढ़ी।
देश  के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 60 फीसदी पहंुच गया है जबकि खेती की भूमिका दिनो-दिन घटते हुए 15 प्रतिश त रह गई है। जबकि गांवोे की आबादी अभी भी कोई 68.84 करोड़ है यानी देश  की कुल आबादी का दो-तिहाई। यदि आंकड़ों को गौर से देखें तो पाएंगे कि देश  की अधिकांश  आबादी अभी भी उस क्षेत्र में रह रही है जहां का जीडीपी श हरों की तुलना में छठा हिस्सा भी नहीं है। यही कारण है कि गांवों में जीवन-स्तर में गिरावटशिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, रोजगार की कमी  है और लोगों बेहतर जीवन की तलाश  में श हरों की ओर आ रहे हैं।
वैसे तो अगस्त-2013 में संसद ने भूमि अधिाग्रहण का पुनद्र्वार व पुनर्वास विधेयक को पास किया है जिसमें विकास के लिए जमीन अधिग्रहण के कानून को बेहद सख्त बनाया गया था, लेकिन हाल के अध्यादेश से वह पकड़ फिर ढीली हो गई है। । गौर इस बात पर भी करना होगा कि आमतौर पर विकास या अन्य कारणों से जो लगा अपना पुष्तैनी बिरवा छोड़ते हैं वे जमीन के मालिक होते ही नहीं हे। मालिक को तो जमीन का मुआवजा मिला, लेकिन जमीन पर मजदूरी कर पेट पालने वाले के पल्ले तो कुछ पड़ा नहीं और उसे तो भूखे पेट ही पलायन करना पड़ता है। वैसे तो अंततराश्अªीय मानवाधिकर संधिक की धारा 11.0 में कहा गया है कि दुनिया के प्रत्येक नागरिक को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का अधिकार है। दुखद है कि इतनी बड़ी संख्या में पलायन हो रही आबादी के पुनर्वास की भारत  में कोई योजना नहीं है, साथ ही पलायन रोकने, विस्थापित लोगों को न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध करवाने व उन्हें शोषण  से बचाने के ना तो कोई कानून हें और ना ही इसके प्रति संवेदनषीलता।

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