किसान को हर दाने की कीमत चाहिए
पंकज चतुर्वेदी
Raj Express M.P.1-04-2015 |
पंद्रह फरवरी से जो बेमौसम बारिश , ओले और आंधी का
सिलसिला शुरू हुआ कि मार्च के अंत तक चला।
अभी मौसम विभाग कह रहा है कि बारिश का यह
कहर अप्रेल के तीसरे सप्ताह तक भी चल सकता है। जब खेत में फसल सूखने को तैयार होती
है तो किसान के सपने हरे हो जाते हैं। किसान के ही नहीं देश भी खुश हाली, भोजन पर आत्मनिर्भरता, महंगाई जैसे मसलों पर निष्चिंत हो जाता है। लेकिन इस बार प्रकृति जो खेल कर रही है, वह देश के सबसे बड़े रोजगार के साधन, हमारी सांस्कृति
पहचान व अथ की रीढ़ को चकनाचूर करने वाला है। बीते डेढ़ महीने में देश भर में कम
से कम 300 किसान इस सदमें
से खुदकुशी कर चुके हैं कि उसकी महीनों की
दिन रात की मेहनत के बाद भी अब वह कर्जा उतार नहीं पाएगा, उसे कहीं से कोई
भरोसा नहीं मिला कि इस विपदा की घड़ी में समाज या सरकार उसके साथ है। अलग-अलग
राज्यों व सरकारों ने कई हजार करोड़ की राहत की घोषणाएं , नेताओं के वायदे, अखबारों में छप
रहे बड़े-बड़े इष्तेहार किसान को यह आष्वस्त नहीं कर पा रहे हैं कि वह अगली फसल
उगाने लायक अपने पैरों पर खड़ा हो पाएगा।
यह देश के हर गांव के हर किसान की शिकायत है कि
गिरदावरी यानि नुकसान के जायजे का गणित ही गलत है। और यही कारण है कि किसान जब
कहता है कि उसकी पूरी फसल चैपट हो गई तो सरकारी रिकार्ड में उसकी हानि 16 से 20 फीसदी दर्ज होती
है और कुछ दिनों बाद उसे बीस रूपए से लेकर दौ सौ रूप्ए तक के चैक बतौर मुआवजे
मिलते हैं। सरकार प्रति हैक्टर दस हजार मुआवजा देने के विज्ञापन छपवा रही है, जबकि यह तभी
मिलता है जब नुकसान सौ टका हो और गांव के पटवारी को ऐसा नुकसान दिखता नहीं
है। यही नहीं मुआवजा मिलने की गति इतनी
सुस्त होती है कि राशि आते-आते वह खुदकुशी
के लिए मजबूर हो जाता हे। हाल की ही बानगी
है कि असामयिक बारिश का पहला कहर 15 फरवरी का था
लेकिन पूरे देश में डेढ़ महीने बाद भी
किसी को फूटी छदाम का मुआवजा नहीं मिला है।
jansandesh times UP 2-4-15 |
अपने दिन-रात, जमा पूंजी लगा कर देश का पेट भरने के लिए खटने वाला किसान की त्रासदी
है कि ना तो उसकी कोई आर्थिक सुरक्षा है और ना ही
सामाजिक प्रतिश्ठा, तो भी वह अपने श्रम-कणों से मुल्क को सींचने पर तत्पर
रहता है। किसान के साथ तो यह होता ही रहता है - कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़, कहीं खेत में
हाथी-नील गाय या सुअर ही घुस गया, कभी बीज-खाद-दवा नकली, तो कभी फसल अच्छी आ गई तो मंडी में अंधाधुंध आवक के चलते
माकूल दाम नहीं। प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का बस नहीं है, लेकिन ऐसी आपदाएं
तो किसान के लिए मौत से बदतर होती हैं। किसानी महंगी होती जा रही है तिस पर जमकर
बंटते कर्ज से उस पर दवाब बढ़ रहा है। ऐसे में आपदा के समय महज कुछ सौ रूपए की
राहत राशि उसके लिए ‘जले पर नमक’ की मांनिंद होती
है। सरकार में बैठे लोग किसान को कर्ज बांट कर सोच रहे हैं कि इससे खेती-किसानी का
दषा बदल जाएगी, जबकि किसान चाहता है कि उसे उसकी फसल की कीमत की गारंटी
मिल जाए। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के
पसीने से पैदा होता है । यह विडंबना ही है कि देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहलाने
वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया
जाता रहा है । कहने को सरकारी स्तर पर फसल के बीमा की कई लुभावनी योजनाएं सरकारी
दस्तावेजों में मिल जाएंगी, लेकिन अनपढ़, सुदूर इलाकों में रहने वाले किसान इनसे अनभिज्ञा होते
हैं। सबसे बड़ी बात कि योजनाओं के लिए इतने कागज-पत्तर भरने होते हैं कि किसान
उनसे मुंह मोड लेता हैै।
एक बात जान लेना जरूरी है कि किसान को
ना तो कर्ज चाहिए और ना ही बगैर मेहनत के कोई छूट या सबसिडी। इससे बेहतर है कि
उसके उत्पाद को उसके गांव में ही विपणन करने की व्यवस्था और सुरक्षित भंडारण की
स्थानीय व्यवस्था की जाए। किसान को सबसिडी से ज्यादा जरूरी है कि उसके खाद-बीज-
दवा के असली होने की गारंटी हो तथा किसानी के सामानों को नकली बचने वाले को फंासी
जैसी सख्त सजा का प्रावधान हो। अफरात फसल के हालात में किसान को बिचैलियों से बचा
कर सही दाम दिलवाने के लिए जरूरी है कि सरकारी एजंेसिया खुद गांव-गांव जाकर खरीदारी करे। सब्जी-फल-फूल जैसे उत्पाद की
खरीद-बिक्री स्वयं सहायता समूह या सहकारी के माध्यम से करना कोई कठिन काम नहीं है। एक बात और इस पूरे काम में हाने वाला व्यय, किसी नुकसान के
आकलन की सरकारी प्रक्रिया, मुआवजा वितरण, उसके हिसाब-किताब में होने वाले व्यय से कम ही होगा। कुल
मिला कर किसान के उत्पाद के विपणन या कीमतों को बाजार नहीं, बल्कि सरकार तय
करे।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देश के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण
जोड़ भी इसके बावजूद उसका शोषण हो रहा है
। किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम
हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेश पर प्रतिबंध -जैसे कदम देश का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं ।
विडंबना है कि हमारे आर्थिक आधार की मजबूत कड़ी के प्रति ना ही समाज और ना ही
सियासती दल संवेदनषील दिख रहे हैं। काश कोई किसान को फसल की गारंटेड कीमत का आष्वासन दे
पाता तो किसी भी किसान कोे कभी जान ना
देनी पड़ती।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005
9891928376
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