खेत को उजाड़ने पर लगे पूर्ण पाबंदी
PRABHAT, MEERUT, 28-3-2015 |
पंकज चतुर्वेदी
तमिलनाडु से श्रीलंका की दूरी कम कर सालाना हजारों करोड़ की बचत करने वाले सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट की घेाषण 10 साल पहले हुई थी। हालांकि वैज्ञानिकों की इस बात से सहमति नहीं है कि यह रामायण में उल्लिखित नल-नील द्वारा निर्मित वह पुल है जिसे पारकर रामचंद्रजी रावण को हराने लंका गए थे । चूंकि मामला आस्था का है सो किसी ने परवाह नहीं की कि इस परियोजना के लटकने से हर साल पांच हजार करोड़ से अधिक का संभावित लाभ थम गया है। लेकिन विकास के लिए सड़क, औद्योगिक क्षेत्र, बांध, पुल बनाने जैसे कामों के लिए लहलहाती फसल वाले खेत को अधिसूचना जारी कर कब्जा करने पर ना तो किसी की श्रद्धा आहत हो रही है और ना ही संवेदना। केंद्र सरकार के भूमि अधिग्रहण संशोधन पर घमासान मचा है, लेकिन सभी उचित मुआवजे व जमीन पर कब्जे की शर्तों पर उलझें हैं, जबकि होना तो यह चाहिए कि फसल देने वाली किसी भी जमीन का भू-उपयोग बदलने या खेत को उजाड़ने पर ही पूरी तरह पाबंदी लगना चाहिए। खेत , किसान, फसल हमारे लोक व सामाजिक जीवन में कई पर्व, त्योहार, उत्सव का केंद्र हैं, लेकिन विडंबना है कि किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बन गई है। अब जमीन की कीमत देकर खेत उजाड़ने की गहरी साजिश को हम समझ नहीं पा रहे हैं। यह जान लें कि कार, भवन, जैसे उत्पादों की तरह पेट भरने के लिए अनिवार्य अन्न किसी कारखाने में नहीं उगाया जा सकता है और जब तक खेत है तभी तक हम खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर हैं । एक तरफ देष की आबादी बढ़ रही है, लोगों की आय बढ़ने से भोजन की मात्रा बढ़ रही है, दूसरी ओर ताजातरीन आंकड़ा बताता है कि बीते साल की तुलना में इस बार गेहुं की पैदावार ही 10 फीसदी कम हुई है।
भारत में कारें बढ़ रही हैं, मोटर साईकिल की बिक्री किसी भी विकासषील देष में सबसे अधिक है, मोबाईल क्रांति हो गई है, षापिंग माॅल कस्बों-गांवों की ओर जा रहे हैं । कुल मिला कर लगता है कि देष प्रगति कर रहा है। सरकार मकान, सड़के बना कर आधारभूत सुविधाएं विकसित करने का दावा कर रही है। देष प्रगति कर रहा है तो जाहिर है कि आम आदमी की न्यूनतम जरूरतों का पूर्ति सहजता से हो रही है । तस्वीर का दूसरा पहलू भारत के बारे में चला आ रहा पारंपरिक वक्तव्य है - भारत एक कृशि-प्रधान देष है । देष की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृशि है । आंकड़े भी यही कुछ कहते हैं। देष की 67 फीसदी आबादी और काम करने वालों का 55 प्रतिषत परोक्ष-अपरोक्ष रूप से खेती से जुड़ा हुआ है। एक अनुमान है कि चाूल वित्त वर्ष में पिछले साल की तुलना में कोई तीन प्रतिशत कम, लगभग 85 लाख टन अनाज कम पैदा होगा। पिछले दो दशक के दौरन तीन लाख से ज्यादा किसान इस लिए खुदकुशी कर चुके है क्योंकि देश का पेट भरने के चक्कर में उन पर कर्जा चए़ गया या फिर मौसम दगा दे गया या फिर मेहनत की फसल जब ले कर मंडी गया तो वाजिब दाम नहीं मिला। सनद रहे किसान का खेत केवल अपना पेट भरने के लिए नहीं होता है, वह आधुानिक अर्थषास्त्र के सिद्धांतों से पूरे देष तकदीर लिखता है । हमारे भाग्यविधाता अपने अनुभवों से सीख नहीं ले रहे हैं कि किसान को कर्ज नहीं बेहतर बाजार चाहिए। उसे अच्छे बीज, खाद और दवाएं चाहिए। कृशि में सुधार के लिए पूंजी से कहीं ज्यादा जरूरत गांव-खेत तक संवेदनषल नीति की है। यह क्यों नहीं हो सकता कि एक एकड़ ख्ेात बचाने के लिए कोई सड़क पांच किलोमीटर घुमा कर बनाई जाए या वहां पुल बना दिया जाए। यह क्यों नहीं हो सकता कि कल-कारखाने बंजर पड़ी जमीन पर बनाए जाएं।
नकली खाद, पारंपरिक बीजों की जगह बीटी बीजों की खरीद की मजबूरी, फसल आने पर बाजार में उचित दाम नहीं मिलना, बिचैलियों की भूमिका, किसान के रिस्क-फैक्टर के प्रति प्रषासन की बेरूखी- कुछ ऐसे कारण हैं जिसके चलते आज देष के किसान खेती से विमुख हो रहे हैं यदि हालात ऐसे ही रहे तो आने वाले कुछ ही सालों में हमें पेट भरने के लिए जरूरी अन्न जुटाने के लिए भी विदेषों पर आश्रित होना पड़ेगा । देष के सबसे बड़े खेतों वाले राज्य उत्तर प्रदेष का यह आंकड़ा अणु बम से ज्यादा खतरनाक है कि राज्य में विकास के नाम पर हर साल 48 हजार हैक्टर खेती की जमीन को उजाड़ा जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के चष्में से यदि उप्र को देखें तो प्रदेष में 24202000 हेक्टेयर भूमि है जिसमें से षुद्ध बुवाई वाला(यानी जहां खेती होती है) रकवा 16812000 हेक्टेयर है जो कुल जमीन का 69.5 फीसदी है। जाहिर है कि राज्य के निवासियों की चूल्हा-चैका का सबसे बड़ा जरिया खेती ही है। राज्य में कोई ढाई फीसदी जमीन उसर या खेती के अयोग्य भी है। प्रदेष के 53 प्रतिषत लोग किसान हैं और कोई 20 प्रतिषत खेतिहर मजदूर। यानी लगभग तीन-चैथाई आबादी इसी जमीन से अपना अन्न जुटाती है। एक बात और गौर करने लायक है कि 1970-1990 के दो दषकों के दौरान राज्य में नेट बोया गया क्षेत्रफल 173 लाख हेक्टेयर स्थिर रहने के पष्चात अब लगातार कम हो रहा है। सन 2001-02 की गणना में यह 268.50 लाख हेक्टेयर पर आ गया। एक राज्य जिसकी पूरी अर्थ व्यवस्था खेती पर निर्भर हो, वहां खेत घट रहे हैं और किसी को चिंता नहीं है ? अब खेत कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि कहीं कोई चुरा कर ले जाए ! विकास के नाम पर सोना उगलने वाली जमीन की दुर्दषा इस आंकड़े से आंसू बहाती दिखती है कि उत्तर प्रदेष में सालाना कोई 48 हजार हेक्टेयर खेती की जमीन कंक्रीट द्वारा निगली जा रही है।
उत्तरप्रदेष की सालाना राज्य आय का 31.8 प्रतिषत खेती से आता है। हालांकि यह प्रतिषत सन 1971 में 57, सन 1981 में 50 और 1991 में 41 हुआ करता था। साफ नजर आ रहा है कि लोगों से खेती दूर हो रही है - या तो खेती ज्यादा फायदे का पेषा नहीं रहा या फिर दीगर कारणों से लोगों का इससे मोहभ्ंाग हो रहा है। एक और आंकड़ा चैंकाने वाला है कि राज्य में एक हैक्टेयर से कम जोत वाले किसानों का प्रतिषत 75.4 है, जबकि यह आंकड़ा पूरे देष के स्तर पर 61.6 ही है। यही नहीं प्रति व्यक्ति षुद्ध बोया क्षेत्र का आंकड़ा राज्य में राश्ट्रीय आंकड़े से बेहद दूर है। ये सभी आकंड़े गवाह हैं कि उप्र में खेती किस तरह उपेक्षा व षोशण की षिकार है। दिल्ली से सटे जिलों- गाजियाबाद, बागपत, गौतम बु़द्ध नगर जिले से बीते तीन दषकों से खेत उजड़ने का जो सिलसिला षुरू हुआ , उससे भले ही कुछ लोगों के पास पैसा आ गया हो , लेकिन वह अपने साथ कई ऐसी बुराईयां व अपराध लाया कि गांवों की संस्कृति, संस्कार और सभ्यता सभी कुछ नश्ट हो गई। जिनके खेत थे, उन्हें तो कार, मकान और मौज-मस्ती के लिए पैसे मिल गए, लेकिन उनके खेतों में काम करने वाले तो बेरोजगार हो गए। उनके लिए करीबी महानगर दिल्ली में आ कर रिक्षा चलाने या छोटी-मोटी नौकरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। जिनके पास बंदूकों के लाइसेंस थे वो गार्ड की नौकरी कर रहे हैं। जो गांव में आधा पेट रह कर भी ख्ुाष थे, वे आज दिल्ली या लखनउ में ना तो खुद खुष है और ना ही दूसरों की खुषी के लिए कुछ कर पा रहे हैं। देष के अन्न भंडार भरने वाले खेतों पर जो आवासीय परिसर खड़े हो रहे हैं, वे बगैर घर वाले लोगों की जरूरत पूरा करने के बनिस्पत निवेष का कम ज्यादा कर रहे हैं। वहीं अधिगृहित भूमि पर लगने वाले कारखानों में स्थानीय लोगों के लिए मजदूर या फिर चैकीदार से ज्यादा रोजगार के अवसर नहीं । इन कारखानों में बाहर से मोटे वेतन पर आए लोग स्थानीय बाजार को महंगा कर रहे है।, जोकि स्थानीय लोगों के लिए नए तरीके की दिक्कतें पैदा कर रहा है।
मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांष अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इजाफा करते हैं। यही नहीं मनरेगा भी खेत विरेाधी है। नरेगा में काम बढ़ने से खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे है और मजदूर ना मिलने से हैरान-परेषान किसान खेत को तिलांजली दे रहे हैं।
गंभीरता से देखें तो इस साजिष के पीछे कतिपय वित्त संस्थाएं हैं जोकि ग्रामीण भारत में अपना बाजार तलाष रही हैं । खेती की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिए कर्जे का बाजार खोल दिया गया है और सरकार इसे किसानों के प्रति कल्याणकारी कदम के रूप में प्रचारित कर रही है । हकीकत में किसान कर्ज से बेहाल है । नेषनल सैंपल सर्वें के आंकड़े बताते हैं कि आंध्रप्रदेष के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं । पंजाब और महाराश्ट्र जैसे कृशि प्रधान राज्यों में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिषत है । यह भी तथ्य है कि इन राज्यों में ही किसानों की खुदकुषी की सबसे अधिक घटनाएं प्रकाष में आई हैं । यह आंकड़े जाहिर करते हंै कि कर्ज किसान की चिंता का निराकरण नहीं हैं । परेषान किसान खेती से मुंह मोड़ता है, फिर उसकी जमीन को जमीन के व्यापारी खरीद लेते हैं।। मामला केवल इतना सा नहीं है, इसका दूरगामी परिणाम होगा अन्न पर हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त होना तथा, जमीन-विहीन बेराजगारों की संख्या बढ़ना।
किसान को सम्मान चाहिए और यह दर्जा चाहिए कि देष के चहुंमुखी विकास में वह महत्वपूर्ण अंग है।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देष के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका षोशण हर स्तर पर है। किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेष पर प्रतिबंध -जैसे कदम देष का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं । चीन में खेती की विकास की सालाना दर 7 से 9 प्रतिषत है ,जबकि भारत में यह गत 20 सालों से दो को पार नहीं कर पाई है। अब तो विकास के नाम पर खेत उजाड़ने के खिलाफ पूरे देष में हिंसक आंदोलन भी हो रहे हैं। यह वक्त है कि हम खेती का रकबा बढ़ाने पर काम करें, इसे लिए जरूरी है कि उत्पादक जमीन पर हर तरह के निर्माण पर पाबंदी हो। किसान को फसल के सुनिश्चित दाम, उसके परिवार के लिए शिक्षा व स्वास्थय की गारंटी हो और खेत व खेती को पावन कार्य घोषित किया जाए।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005
9891928376
तमिलनाडु से श्रीलंका की दूरी कम कर सालाना हजारों करोड़ की बचत करने वाले सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट की घेाषण 10 साल पहले हुई थी। हालांकि वैज्ञानिकों की इस बात से सहमति नहीं है कि यह रामायण में उल्लिखित नल-नील द्वारा निर्मित वह पुल है जिसे पारकर रामचंद्रजी रावण को हराने लंका गए थे । चूंकि मामला आस्था का है सो किसी ने परवाह नहीं की कि इस परियोजना के लटकने से हर साल पांच हजार करोड़ से अधिक का संभावित लाभ थम गया है। लेकिन विकास के लिए सड़क, औद्योगिक क्षेत्र, बांध, पुल बनाने जैसे कामों के लिए लहलहाती फसल वाले खेत को अधिसूचना जारी कर कब्जा करने पर ना तो किसी की श्रद्धा आहत हो रही है और ना ही संवेदना। केंद्र सरकार के भूमि अधिग्रहण संशोधन पर घमासान मचा है, लेकिन सभी उचित मुआवजे व जमीन पर कब्जे की शर्तों पर उलझें हैं, जबकि होना तो यह चाहिए कि फसल देने वाली किसी भी जमीन का भू-उपयोग बदलने या खेत को उजाड़ने पर ही पूरी तरह पाबंदी लगना चाहिए। खेत , किसान, फसल हमारे लोक व सामाजिक जीवन में कई पर्व, त्योहार, उत्सव का केंद्र हैं, लेकिन विडंबना है कि किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बन गई है। अब जमीन की कीमत देकर खेत उजाड़ने की गहरी साजिश को हम समझ नहीं पा रहे हैं। यह जान लें कि कार, भवन, जैसे उत्पादों की तरह पेट भरने के लिए अनिवार्य अन्न किसी कारखाने में नहीं उगाया जा सकता है और जब तक खेत है तभी तक हम खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर हैं । एक तरफ देष की आबादी बढ़ रही है, लोगों की आय बढ़ने से भोजन की मात्रा बढ़ रही है, दूसरी ओर ताजातरीन आंकड़ा बताता है कि बीते साल की तुलना में इस बार गेहुं की पैदावार ही 10 फीसदी कम हुई है।
भारत में कारें बढ़ रही हैं, मोटर साईकिल की बिक्री किसी भी विकासषील देष में सबसे अधिक है, मोबाईल क्रांति हो गई है, षापिंग माॅल कस्बों-गांवों की ओर जा रहे हैं । कुल मिला कर लगता है कि देष प्रगति कर रहा है। सरकार मकान, सड़के बना कर आधारभूत सुविधाएं विकसित करने का दावा कर रही है। देष प्रगति कर रहा है तो जाहिर है कि आम आदमी की न्यूनतम जरूरतों का पूर्ति सहजता से हो रही है । तस्वीर का दूसरा पहलू भारत के बारे में चला आ रहा पारंपरिक वक्तव्य है - भारत एक कृशि-प्रधान देष है । देष की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृशि है । आंकड़े भी यही कुछ कहते हैं। देष की 67 फीसदी आबादी और काम करने वालों का 55 प्रतिषत परोक्ष-अपरोक्ष रूप से खेती से जुड़ा हुआ है। एक अनुमान है कि चाूल वित्त वर्ष में पिछले साल की तुलना में कोई तीन प्रतिशत कम, लगभग 85 लाख टन अनाज कम पैदा होगा। पिछले दो दशक के दौरन तीन लाख से ज्यादा किसान इस लिए खुदकुशी कर चुके है क्योंकि देश का पेट भरने के चक्कर में उन पर कर्जा चए़ गया या फिर मौसम दगा दे गया या फिर मेहनत की फसल जब ले कर मंडी गया तो वाजिब दाम नहीं मिला। सनद रहे किसान का खेत केवल अपना पेट भरने के लिए नहीं होता है, वह आधुानिक अर्थषास्त्र के सिद्धांतों से पूरे देष तकदीर लिखता है । हमारे भाग्यविधाता अपने अनुभवों से सीख नहीं ले रहे हैं कि किसान को कर्ज नहीं बेहतर बाजार चाहिए। उसे अच्छे बीज, खाद और दवाएं चाहिए। कृशि में सुधार के लिए पूंजी से कहीं ज्यादा जरूरत गांव-खेत तक संवेदनषल नीति की है। यह क्यों नहीं हो सकता कि एक एकड़ ख्ेात बचाने के लिए कोई सड़क पांच किलोमीटर घुमा कर बनाई जाए या वहां पुल बना दिया जाए। यह क्यों नहीं हो सकता कि कल-कारखाने बंजर पड़ी जमीन पर बनाए जाएं।
नकली खाद, पारंपरिक बीजों की जगह बीटी बीजों की खरीद की मजबूरी, फसल आने पर बाजार में उचित दाम नहीं मिलना, बिचैलियों की भूमिका, किसान के रिस्क-फैक्टर के प्रति प्रषासन की बेरूखी- कुछ ऐसे कारण हैं जिसके चलते आज देष के किसान खेती से विमुख हो रहे हैं यदि हालात ऐसे ही रहे तो आने वाले कुछ ही सालों में हमें पेट भरने के लिए जरूरी अन्न जुटाने के लिए भी विदेषों पर आश्रित होना पड़ेगा । देष के सबसे बड़े खेतों वाले राज्य उत्तर प्रदेष का यह आंकड़ा अणु बम से ज्यादा खतरनाक है कि राज्य में विकास के नाम पर हर साल 48 हजार हैक्टर खेती की जमीन को उजाड़ा जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के चष्में से यदि उप्र को देखें तो प्रदेष में 24202000 हेक्टेयर भूमि है जिसमें से षुद्ध बुवाई वाला(यानी जहां खेती होती है) रकवा 16812000 हेक्टेयर है जो कुल जमीन का 69.5 फीसदी है। जाहिर है कि राज्य के निवासियों की चूल्हा-चैका का सबसे बड़ा जरिया खेती ही है। राज्य में कोई ढाई फीसदी जमीन उसर या खेती के अयोग्य भी है। प्रदेष के 53 प्रतिषत लोग किसान हैं और कोई 20 प्रतिषत खेतिहर मजदूर। यानी लगभग तीन-चैथाई आबादी इसी जमीन से अपना अन्न जुटाती है। एक बात और गौर करने लायक है कि 1970-1990 के दो दषकों के दौरान राज्य में नेट बोया गया क्षेत्रफल 173 लाख हेक्टेयर स्थिर रहने के पष्चात अब लगातार कम हो रहा है। सन 2001-02 की गणना में यह 268.50 लाख हेक्टेयर पर आ गया। एक राज्य जिसकी पूरी अर्थ व्यवस्था खेती पर निर्भर हो, वहां खेत घट रहे हैं और किसी को चिंता नहीं है ? अब खेत कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि कहीं कोई चुरा कर ले जाए ! विकास के नाम पर सोना उगलने वाली जमीन की दुर्दषा इस आंकड़े से आंसू बहाती दिखती है कि उत्तर प्रदेष में सालाना कोई 48 हजार हेक्टेयर खेती की जमीन कंक्रीट द्वारा निगली जा रही है।
उत्तरप्रदेष की सालाना राज्य आय का 31.8 प्रतिषत खेती से आता है। हालांकि यह प्रतिषत सन 1971 में 57, सन 1981 में 50 और 1991 में 41 हुआ करता था। साफ नजर आ रहा है कि लोगों से खेती दूर हो रही है - या तो खेती ज्यादा फायदे का पेषा नहीं रहा या फिर दीगर कारणों से लोगों का इससे मोहभ्ंाग हो रहा है। एक और आंकड़ा चैंकाने वाला है कि राज्य में एक हैक्टेयर से कम जोत वाले किसानों का प्रतिषत 75.4 है, जबकि यह आंकड़ा पूरे देष के स्तर पर 61.6 ही है। यही नहीं प्रति व्यक्ति षुद्ध बोया क्षेत्र का आंकड़ा राज्य में राश्ट्रीय आंकड़े से बेहद दूर है। ये सभी आकंड़े गवाह हैं कि उप्र में खेती किस तरह उपेक्षा व षोशण की षिकार है। दिल्ली से सटे जिलों- गाजियाबाद, बागपत, गौतम बु़द्ध नगर जिले से बीते तीन दषकों से खेत उजड़ने का जो सिलसिला षुरू हुआ , उससे भले ही कुछ लोगों के पास पैसा आ गया हो , लेकिन वह अपने साथ कई ऐसी बुराईयां व अपराध लाया कि गांवों की संस्कृति, संस्कार और सभ्यता सभी कुछ नश्ट हो गई। जिनके खेत थे, उन्हें तो कार, मकान और मौज-मस्ती के लिए पैसे मिल गए, लेकिन उनके खेतों में काम करने वाले तो बेरोजगार हो गए। उनके लिए करीबी महानगर दिल्ली में आ कर रिक्षा चलाने या छोटी-मोटी नौकरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। जिनके पास बंदूकों के लाइसेंस थे वो गार्ड की नौकरी कर रहे हैं। जो गांव में आधा पेट रह कर भी ख्ुाष थे, वे आज दिल्ली या लखनउ में ना तो खुद खुष है और ना ही दूसरों की खुषी के लिए कुछ कर पा रहे हैं। देष के अन्न भंडार भरने वाले खेतों पर जो आवासीय परिसर खड़े हो रहे हैं, वे बगैर घर वाले लोगों की जरूरत पूरा करने के बनिस्पत निवेष का कम ज्यादा कर रहे हैं। वहीं अधिगृहित भूमि पर लगने वाले कारखानों में स्थानीय लोगों के लिए मजदूर या फिर चैकीदार से ज्यादा रोजगार के अवसर नहीं । इन कारखानों में बाहर से मोटे वेतन पर आए लोग स्थानीय बाजार को महंगा कर रहे है।, जोकि स्थानीय लोगों के लिए नए तरीके की दिक्कतें पैदा कर रहा है।
मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांष अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इजाफा करते हैं। यही नहीं मनरेगा भी खेत विरेाधी है। नरेगा में काम बढ़ने से खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे है और मजदूर ना मिलने से हैरान-परेषान किसान खेत को तिलांजली दे रहे हैं।
गंभीरता से देखें तो इस साजिष के पीछे कतिपय वित्त संस्थाएं हैं जोकि ग्रामीण भारत में अपना बाजार तलाष रही हैं । खेती की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिए कर्जे का बाजार खोल दिया गया है और सरकार इसे किसानों के प्रति कल्याणकारी कदम के रूप में प्रचारित कर रही है । हकीकत में किसान कर्ज से बेहाल है । नेषनल सैंपल सर्वें के आंकड़े बताते हैं कि आंध्रप्रदेष के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं । पंजाब और महाराश्ट्र जैसे कृशि प्रधान राज्यों में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिषत है । यह भी तथ्य है कि इन राज्यों में ही किसानों की खुदकुषी की सबसे अधिक घटनाएं प्रकाष में आई हैं । यह आंकड़े जाहिर करते हंै कि कर्ज किसान की चिंता का निराकरण नहीं हैं । परेषान किसान खेती से मुंह मोड़ता है, फिर उसकी जमीन को जमीन के व्यापारी खरीद लेते हैं।। मामला केवल इतना सा नहीं है, इसका दूरगामी परिणाम होगा अन्न पर हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त होना तथा, जमीन-विहीन बेराजगारों की संख्या बढ़ना।
किसान को सम्मान चाहिए और यह दर्जा चाहिए कि देष के चहुंमुखी विकास में वह महत्वपूर्ण अंग है।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देष के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका षोशण हर स्तर पर है। किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेष पर प्रतिबंध -जैसे कदम देष का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं । चीन में खेती की विकास की सालाना दर 7 से 9 प्रतिषत है ,जबकि भारत में यह गत 20 सालों से दो को पार नहीं कर पाई है। अब तो विकास के नाम पर खेत उजाड़ने के खिलाफ पूरे देष में हिंसक आंदोलन भी हो रहे हैं। यह वक्त है कि हम खेती का रकबा बढ़ाने पर काम करें, इसे लिए जरूरी है कि उत्पादक जमीन पर हर तरह के निर्माण पर पाबंदी हो। किसान को फसल के सुनिश्चित दाम, उसके परिवार के लिए शिक्षा व स्वास्थय की गारंटी हो और खेत व खेती को पावन कार्य घोषित किया जाए।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005
9891928376
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