निराश करता राजनीतिक नेतृत्व
पंकज चतुर्वेदी
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राज एक्सप्रेस, भोपाल 14.3.15 |
देश का लेाकतंत्र जैसे -जैसे बुजुर्ग होता जा
रहा है, आम लोगों को राजनीतिक नेतृत्व से निराशा ही हाथ लग रही है। मुल्क में
बढ़ रही अराजकता, नक्सलवाद व अलगाववाद के हल तलाशने के लिए
सुरक्षा बलों पर खूब पैसा खर्च कर लें, लेकिन जब तक मुल्क के आम लोगों को एक ऐसी आवाज,ऐसी
नीति या ऐसा आंदोलन नहीं लि जाता है जो उनको खुद की आवाज लगे; माहौल
सुधरने से रहा। याद होगा कि दो साल पहले ही अन्ना हजारे व अरविंद केजरीवाल को देशभर
में कितना जबरदस्त समर्थन मिला था , लेकिन केजरीवाल द्वारा राजनीति में आने
और उसके बाद सरकार बनाने के बाद आरोप-प्रत्यारोप, स्टींग, उठा-पटक
का जो दौर चला उससे सबसे ज्यादा निराश उन आम लोगों को हुई है जो सत्ता-संघर्ष
में किसी वैकल्पिक राजनीति की अपेक्षा कर रहे थे।
इससे पहले एक ऐसा व्यक्ति जिसे पूरे देश में
निर्विवाद रूप से एक योग षिक्षक और अच्छे संचारक के रूप में सम्मान मिला था,
जब
उसने काले धन के मुद्दे पर जन आंदोलन शुरू करना चाहा तो दो सप्ताह में ही असली
मसला गौण हो गया और पुलिस ज्यादती, बाबा का निजी जीवन और उनके समर्थकों की
राजनीतिक अभिलाषाएं , ऐसा ही ना जाने क्या-क्या उभरने लगा। हालांकि
बाबा का स्पष्ट नहीं है कि वे सियासत में आ चुके हैं या नहीं, लेकिन
यह स्पष्ट हो गया है कि अब उनकी पहले जैसी पूछ नहीं रह गई। मनमोहन सिंह दिल्ली से
लोकसभा का चुनाव बुरी तरह हारे, लेकिन अब वे मुल्क के सबसे ज्यादा वक्त
तक प्रधानमंत्री बनने का गौरव पा चुके हैं। देवेगोडा जैसे अल्पज्ञात व गुजराल जैसे
क्षेत्रीय नेता प्रधानमंत्री के औहदे तक कैसे पहुंच जाते हैं ? यह
गुत्थी आम लोगों को परेषान करती रहती है और आषंकाओं के बीच उनके मन में लोकतंत्र
की जन-कल्याणकारी होने पर शक होने लगता है।
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JANSANDESH TIMES U.P. 17-3-15 |
क्षेत्रीय नेताओं से जनता की निराशा का रंग असम से शुरू हुआ जब अखिल असम छात्र परिषद
व असम गण परिषद के बैनर तले आंदोलन चला कर सत्ता में आए नेताओं ने अपने निजी
व्यवहार, भ्रष्टाचार, चुनावी वायदे ना निभा कर लोगों को निराश
किया था। पश्चिम बंगाल में लाल दुर्ग ढहाने वाली ममता बनर्जी का रंग एक साल में ही
उतर गया, वे ना तो कोई जनकल्याणकारी कार्य कर पाई और ना ही प्रषासनीक व्यवस्था
में परिवर्तन। उल्टे ऊलजलूल हरकातों व बयानों से बदनाम जरूर हो गईं। और अब शारदा चिटफंड घोटाले की छाया ने उन्हें अन्य
राजनीतिज्ञो की ही कतार में ला दिया है। ठीक यही अखिलेश यादव के साथ हुआ, लोगों
को उम्मीद थी कि युवा व पढ़ा-लिखा मुख्यमंत्री राज्य की तकदीर बदल पायेगा, हुआ
उलटा ही - अराजकता, दंगे, कानूनहीन राज्य, पार्टी नेताओं
की गुंडागिर्दी देख कर प्रदेश के लोग अब मायावती के कुषासन को इस सुषासन से बेहतर
मान रहे हैं। मध्यप्रदेश और बिहार में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने षिवराज सिंह और
नीतिश कुमार के पहले टर्म तो पूर्ववर्ती सरकारों के निकम्मेपन से तुलना में बेहतर
दिखे, लेकिन अब वहां समझ आने लगा है कि जमीनी हालात नारों और विज्ञापन
एजेंसिंयो के चकाचौंध पूर्ण प्रचार से आगे
नहीं सुधर पाए हैं।
भारत में आजादी के बाद ऐसा कई बार हुआ कि कोई
गैरराजनैतिक जन आंदोलन खड़ा हुआ और कुछ ही दिन में वह फुस्स हो कर दिषा भटक
गया। याद करें सन 1973 की,
जब
मोरबी, अमदाबाद के इंजीनियरिंग कालेज के छा़त्रों के होस्टल के मेस के बढ़े
बिल देने पर षुरू हुआ विवाद महंगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा- सुधार और बेरोजगारी के खिलाफ ‘नवनिर्माण
समिति’ के आंदोलन के रूप में देशव्यापी बना। लोकनायक जयप्रकाश के संपूर्ण
क्रांति की नीतिगत दिषा उसी से तय हुई, आपातकाल लगा, इंदिरा गांधी की
बुरी तरह पराजय हुई और उसके बाद संपूर्ण क्रांति के सपने ध्वस्त करने में जनता पार्टी
की सरकार को ढाई साल भी नहीं लगे। ताकत पानी ज्यादा कठिन नहीं होता, मुष्किल
होता है उस ताकत को धारण करना और उसका सकारात्मक इस्तेमाल करना। बाबू जयप्रकाश
उसमें असफल रहे और उसके बाद पूरे देश में कभी भी बदलाव या स्वतःस्फूर्त आंदोलन की
कोई बयार नहीं आई।
इससे पहले सन 1967 में बंगाल के
एक अनजान गांव नक्सलबाडी से शुरू हुआ अन्याय और शोषण के खिलाफ हिंसक आदंालन नक्सलवाद भले ही आज देश
के एक तिहाई हिस्से में फैल गया हो, लेकिन अब वह जन आंदोलन नहीं रह गया।
बंदूक या हिंसा के बल पर कुछ लोगों को डराने-धमकाने या सशस्त्र बलों पर घात लगा कर
हमला कर देने मात्र से सत्ता की नीतियां बदलने से रही। उस जन आंदोलन में अब तक बीस
हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जबकि संगठन आतंकवादी घोशित कर दिए गए
हैं और कुल मिला कर वे अपनी दिषा भी भटक चुके हैं।कश्मीर का पृथकतावादी आंदोलन
पहले भले ही एक राज्य के घाटी वाले हिस्से तक सीमित रहा हो, लेकिन अब तो
पूरी तरह अपने मूल विशय से ही भटक चुका हे। कष्मीर की आजादी या स्वायत्तता से
ज्यादा पाकिस्तान परस्ती या वहां से मिल रहे पैसे पर ऐश करना उस आंदोलन की नियति
बन चुका है। विदेशियों यानी बांग्लादेशियों को अपनी जमीन से खदेड़ने का असम का
छात्र आदंोलन राज्य में सत्ता पाते ही दिग््भ्रमित हो गया, तीन-चैथाई बहुमत
के बावजूद युवा जोश कुछ सकारात्मक कर नहीं पाया,। यह जरूर हुआ
कि राज्य में उनकी छबि भ्रष्ट , निकम्मों की जरूर बन गई। मान्यवर कांशीराम
का बामसेफ आंदोलन सत्ता पाने की ललक में
कई बार पटरियों से नीचे उतरा।
सन 1990 में मंडल आयोग की रिपेार्ट के खिलाफ
आरक्षण-विरोधी आदंालन की यादें भी लोगों के जेहन में धुंधली या विस्तृत हो चुकी
हैं। दिल्ली में राजीव गोस्वामी नामक युवक ने खुद को जलाने का प्रयास किया और वह
रातो-रात पूरे देश का हीरो बन गया। लेाग भूल चुके हैं कि 24 सितंबर 1990 को
दिल्ली के देशबंधु सांध्य कालेज के छात्र सुरेन्द्र सिंह चैहान ने सरेआम खुद को
जला कर मार डाला था और अपने आत्महत्या-नोट में लिखा था कि वह सरकार की आरक्षण नीति
के विरोध में अपनी जान दे रहा है। देश के कई हिस्सों में सेना को बुलाना पड़ा था।
उसके बाद राममंदिर के शंखनाद ने उस जन आंदेालन ही नहीं उसकी यादों को भी गर्त में
डाल दिया। राजीव गोस्वामी गुमनामी की जिंदगी जीते हुए दो साल पहले ही असमय मर
गया। हालांकि रामजन्म भूमि आंदोलन भी
सत्ता षिखर पर पहुच कर ध्वस्त हो गया और लोगों को पता चल गया कि अयोध्या में विवादास्पद ढंाचा गिराना या मंदिर
बनाना तो बस बहाना था, असली मकसद तो सत्ता की मलाई पाना था।
सन 1985 से चल रहे नर्मदा बचाओं आंदोलन,
गुजरात
में दंगों के बाद पीडि़तों को न्याय दिलवाने के लिए जन आंदोलन, सिंगूर
और जंगल महल के विद्रोह; ऐसे अनगिनत आंदोलन गिनाए जा सकते हैं
जिसने जन आकांक्षाओं को उभारा, उनकी उम्मीदें जगाईं लेकिन उनका अंत आम लोगों को ठगने,
दिग्भ्रमित
करने जैसी निराषाओं से ही हुआ। आखिर क्यों जन आंदोलन जनता की आशाओं की कसौटी पर
खरे नहीें उतर पाते हैं ? क्या जन-ज्वार के बीच कतिपय सता लोलुप
राजनीतिक दलों की घुसपैठ होना और धीरे से आंदोलन पर अपना एजेंडा थोप देना, आम
लोगों के सरोकारों के प्रति आंदोलन की दिषा भटका देता है ? क्या अभी तक जन
आंदोलन अपरिपक्व हैं और वे भीड़ को जुटा लेने के बाद अपने होश और जोश खो देते हैं ?
या
फिर जन आंदोलनों के नायक सरकार की दवाब-प्रकिया के आगे डगमगा जाते हैं और ना चाहते
हुए भी एक कदम ऐसा उठा लेते हैं जो उनके लिए अधोगति का मार्ग प्रशस्त कर देता है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि जन आंदोलन महज सत्ता बदलने का जरिया बनते जा रहे हैं, जबकि
उनका काम व्यवस्था को बदलने का होना चाहिए और यह काम जमीनी स्तर का है जबकि
आंदोलनकर्ता उसके लिए उच्च नेतृत्व पर दवाब डालते हैं।
एक स्वस्थ्य, सशक्त और उभरते
हुए लोकतंत्र में यह जरूरी है कि षासन को नियंत्रित करने के लिए कुछ गैर राजनैतिक
और निस्वार्थ शक्तियां जन जागरण करती रहें। प्रतिरोध सामाजिकता का अभिन्न अंग है।
लेकिन लगातार असफल होते आंदोलनों व उनके सत्ता की चैाखट पर दम तोड़ने से सियासत
ताकत का प्र्याय बन कर रह गई है। इसके लिए ना तो हम आने वाली पीढि़यों को तैयार कर
पा रहे हैं और ना ही जन-नेता ऐसी कोई नजीर दे पा रहे हैं जिससे बगैर सत्ता लोलुपता
के लोकतंत्र को मजबूत करने, प्रषासन
में पारदर्षिता और कल्याणकारी योजनाओं को उनके असली हितग्राहियों तक पहुंचाने के
कार्य के लिए आम लोग प्रेरित हो सकें।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376, 0120-4241060
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