खुफिया तत्र की विफलता है सुकमा का हमला
पंकज चतुर्वेदी
पिछले एक साल में यह आठवां हमला है सुरक्षा बलों पर। एक राज्य के एक छोटे से हिस्से में(हालांकि यह हिस्सा केरल राज्य के क्षेत्रफल के बराबर है ) स्थानीय पुलिस, एसटीएफ, सीआरपीएफ और बीएसएफ की कई टुकडि़यां मय हेलीकाॅप्टर के तैनात हैं और हर बार लगभग पिछले ही तरीके
बदले, प्रतिहिंसा और प्रतिषोध की भावना केे चलते ही देष के एक तिहाई इलाके में ‘लाल सलाम‘ की आम लोगों पर पकड़ सुरक्षा बलों से ज्यादा है। बदला लेने के लिए गठित सलवा जुडुम पर सुपी्रम कोर्ट की टिप्पणी भी याद करें। बस्तर केे जिस इलाके में सुरक्षा बलों का खून बहा है, वहां स्थानीय समाज दो पाटों के बीच पिस रहा है और उनके इस घुटनभरे पलायन की ही परिणति है कि वहां की कई लोक बोलियां लुप्त हो रही हैं। धुरबी बोलने वाले हल्बी वालों के इलाकों में बस गए हैं तो उनके संस्कार, लोक-रंग, बोली सबकुछ उनके अनुरूप हो रही है। इंसान की जिंदगी के साथ-साथ जो कुछ भी अकल्पनीय नुकसान हो रहे हैं, इसके लिए स्थानीय प्रषासन की कोताही ही जिम्मेदार है। नक्सलियों का अपना खुफिया तंत्र सटीक है जबकि प्रषासन खबर पा कर भी कार्यवाही नहीं करता। खीजे-हताष सुरक्षा बल जो कार्यवाही करते हैं, उनमें स्थानीय निरीह आदिवासी ही षिकार बनते हैं और यही नक्सलियों के लिए मजबूती का आधार होता है।
बस्तर के संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से सुकमा की ओर जाने वाले खूबसूरत रास्ते का विस्तार आंध्र प्रदेष के विजयवाड़ा तक है। इस पूरे रास्ते में बीच का कोई साठ किलोमीटर का रास्ता है ही नहीं और यहां चलने वाली बसें इस रास्ते को पार करने में कई घंटे ले लेती हैं। सड़क से सट कर उडिसा का मलकानगिरी जिला पड़ता है जहां बेहद घने जंगल हैं। कांगेर घाटी और उससे आगे झीरम घाटी की सड़कों पर कई-कई सौ मीटर गहराई की घाटियों हैं, जहां पारंपरिक षीषम, साल के पेड़ों की घनी छाया है। अभी नवंबर के तीसरे सप्ताह में कई स्थानीय अखबारों व समाचार चैनलों ने खबर दिखाई थी कि सुकमा में चिंतागुफा के बीच नक्सलियों की गतिविधियां दिख रही हैं। उधर राज्य की पुलिस पिछले कुछ महीनों से कथित आत्मसमर्पण करवा कर यह माहौल बनाने में लगी थी कि अब नक्सलियों की ताकत खतम हो गई है। इसके बावजूद पुलिस का खुफिया तंत्र उनकी ठीक स्थिति जानने में असफल रहा।यही नहीं केंद्र सरकार के गृृह विभाग ने भी चेतावनी भेजी थी कि नक्सली कुछ हिंसा कर सकते हैं। इसमें सुरक्षा बलों पर हमला, जेल पर हमला आदि की संभावना जताई गई थी। फिर भी चेतावनियों से बेपरवाह सुरक्षा बल लापरवाही से जंगल में घुस तो गए, लेकिन वापिस आते समय गहरे चक्रव्यू में फंस गए।
इस बार के हमले में कुछ कम नुकसान होने का सबसे बड़ा कारण एसटीएफ की पचास जवानों की टुकड़ीे में अधिकांष स्थानीय होना तथा उनका नक्सलियों द्वारा दंडामी गोंडी में की जा रही बातचीत को समझ लेना भी था। यदि उनकी जगह कोई कें्रदीय बल होता जो गोंडी नहीं समझता है तो नुकसान ज्यादा होता। सुरक्षा बल का यह दल षुक्रवार की षाम को पोलमपल्ली व चिंतागुफा थाने से निकला था। षनिवार की सुबह यह दल जब वापिसी के लिए पोलमपल्ली से निकला और पिठमेल के जंगल में सुबह सोढ़े दस बजे इनकी मुठभेड़ लगभग चार सौ नक्सलियों के गिरोह से हो गई। नक्सली अपने लिए सुरक्षित ठिकाना बनाए बैठे थे। उनकी अगली ंक्ति में कम उम्र के बच्चे व औरतें भी थीं जो अंधाधुंध फायरिंग कर रहे थे। इस बार हमलावर दल मेढ के नीचे ज्यादा था तभी अधिकांष जवानों के पैर व कमर से नीचे गोलियां ज्यादा लगी हैं।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की सात साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाोजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सषस्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि तीन सौ नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्स लगाई जाती है और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख। नक्सल आंदोलन के जवाब में ‘सलवा जुड़ुम’ का स्वरूप कितना बदरंग हुआ था और उसकी परिणति दरभा घाटी में किस नृषंसता से हुई ; सबके सामने है। बंदूकों को अपनों पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देष नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोषिष करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। लेकिन साथ ही उन खुफिया अफसरों, वरिश्ठ अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय की जाए जिनकी लापरवाही के चलते सात सुरक्षाकर्मी के गाल में बेवहज समा गया। सनद रहे उस इलाके में खुफिया तंत्र विकसित करने के लिए पुलिस को बगैर हिसाब-किताब के अफरात पैसा खर्च करने की छूट है और इसी के जरिये कई बार बेकार हो गए या फर्जी लोगों का आत्मसमर्पण दिखा कर पुलिस वाहवाही लूटती हैं। एक बात और, अभी तक बस्तर ुपलिस कहती रही कि नक्सली स्थानीय नहीं हैं और वे सीमायी तेलंगाना के हैं, लेकिन इस बार उनकी गोंडी सुन कर साफ हो जाता है कि विद्रोह की यह नरभक्षाी ज्वाला बस्तर के अंचलों से ही हैं। गौरतलब है कि चार सौ से ज्यादा नक्सली मय हथियार के जमा होते रहे व खुफिया तंत्र बेखबर रहा, जबकि उस इलाके में फोर्स के पास मानवरहित विमान द्रोण तक की सुविधा है।
यह हमला उन कारणों को आंकने का सही अवसर हो सकता है जिनके चलते आम लोगों का सरकार या पुलिस से ज्यादा नक्सलियों पर विष्वास है, यह नर संहार अपनी सुरक्षा व्यवस्था व लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आए झोल को ठीक करने की चेतावनी दे रहा है, दंडकारण्य में फैलती बारूद की गंध नीतिनिर्धारकों के लिए विचारने का अवसर है कि नक्सलवाद को जड से उखाडने के लिए बंदूक का जवाब बंदूक से देना ही एकमात्र विकल्प है या फिर संवाद का रास्ता खोजना होगा या फिर एक तरफ से बल प्रयोग व दूसरे तरफ से संवाद की संभावनाएं खोजना समय की मांग है। आदिवासी इलाकांे की कई करोड अरब की प्राकृतिक संपदा पर अपना कब्जा जताने के लिए पूंुजीवादी घरानों को समर्थन करने वाली सरकार सन 1996 में संसद द्वारा पारित आदिवासी इलाकों के लिए विषेश पंचायत कानून(पेसा अधिनियम) को लागू करना तो दूर उसे भूल ही चुकी है। इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की जमीन के प्रबंधन और रक्षा करने का पूरा अधिकार था। इसी तरह परंपरागत आदिवासी अधिनियम 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया लेकिन उसका लाभ दंडकारण्य तक नहीं गया, कारण वह बड़े धरानों के हितों के विपरीत है। असल में यह समय है उन कानूनों -अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का, लेकिन हम बात कर रहे हैं कि जनजातिय इलाकों में सरकारी बजट कम किया जाए, क्यांेकि उसका बड़ा हिस्सा नक्सली लेव्ही के रूप में वसूल रहे हैं।
पिछले एक साल में यह आठवां हमला है सुरक्षा बलों पर। एक राज्य के एक छोटे से हिस्से में(हालांकि यह हिस्सा केरल राज्य के क्षेत्रफल के बराबर है ) स्थानीय पुलिस, एसटीएफ, सीआरपीएफ और बीएसएफ की कई टुकडि़यां मय हेलीकाॅप्टर के तैनात हैं और हर बार लगभग पिछले ही तरीके
बदले, प्रतिहिंसा और प्रतिषोध की भावना केे चलते ही देष के एक तिहाई इलाके में ‘लाल सलाम‘ की आम लोगों पर पकड़ सुरक्षा बलों से ज्यादा है। बदला लेने के लिए गठित सलवा जुडुम पर सुपी्रम कोर्ट की टिप्पणी भी याद करें। बस्तर केे जिस इलाके में सुरक्षा बलों का खून बहा है, वहां स्थानीय समाज दो पाटों के बीच पिस रहा है और उनके इस घुटनभरे पलायन की ही परिणति है कि वहां की कई लोक बोलियां लुप्त हो रही हैं। धुरबी बोलने वाले हल्बी वालों के इलाकों में बस गए हैं तो उनके संस्कार, लोक-रंग, बोली सबकुछ उनके अनुरूप हो रही है। इंसान की जिंदगी के साथ-साथ जो कुछ भी अकल्पनीय नुकसान हो रहे हैं, इसके लिए स्थानीय प्रषासन की कोताही ही जिम्मेदार है। नक्सलियों का अपना खुफिया तंत्र सटीक है जबकि प्रषासन खबर पा कर भी कार्यवाही नहीं करता। खीजे-हताष सुरक्षा बल जो कार्यवाही करते हैं, उनमें स्थानीय निरीह आदिवासी ही षिकार बनते हैं और यही नक्सलियों के लिए मजबूती का आधार होता है।
बस्तर के संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से सुकमा की ओर जाने वाले खूबसूरत रास्ते का विस्तार आंध्र प्रदेष के विजयवाड़ा तक है। इस पूरे रास्ते में बीच का कोई साठ किलोमीटर का रास्ता है ही नहीं और यहां चलने वाली बसें इस रास्ते को पार करने में कई घंटे ले लेती हैं। सड़क से सट कर उडिसा का मलकानगिरी जिला पड़ता है जहां बेहद घने जंगल हैं। कांगेर घाटी और उससे आगे झीरम घाटी की सड़कों पर कई-कई सौ मीटर गहराई की घाटियों हैं, जहां पारंपरिक षीषम, साल के पेड़ों की घनी छाया है। अभी नवंबर के तीसरे सप्ताह में कई स्थानीय अखबारों व समाचार चैनलों ने खबर दिखाई थी कि सुकमा में चिंतागुफा के बीच नक्सलियों की गतिविधियां दिख रही हैं। उधर राज्य की पुलिस पिछले कुछ महीनों से कथित आत्मसमर्पण करवा कर यह माहौल बनाने में लगी थी कि अब नक्सलियों की ताकत खतम हो गई है। इसके बावजूद पुलिस का खुफिया तंत्र उनकी ठीक स्थिति जानने में असफल रहा।यही नहीं केंद्र सरकार के गृृह विभाग ने भी चेतावनी भेजी थी कि नक्सली कुछ हिंसा कर सकते हैं। इसमें सुरक्षा बलों पर हमला, जेल पर हमला आदि की संभावना जताई गई थी। फिर भी चेतावनियों से बेपरवाह सुरक्षा बल लापरवाही से जंगल में घुस तो गए, लेकिन वापिस आते समय गहरे चक्रव्यू में फंस गए।
इस बार के हमले में कुछ कम नुकसान होने का सबसे बड़ा कारण एसटीएफ की पचास जवानों की टुकड़ीे में अधिकांष स्थानीय होना तथा उनका नक्सलियों द्वारा दंडामी गोंडी में की जा रही बातचीत को समझ लेना भी था। यदि उनकी जगह कोई कें्रदीय बल होता जो गोंडी नहीं समझता है तो नुकसान ज्यादा होता। सुरक्षा बल का यह दल षुक्रवार की षाम को पोलमपल्ली व चिंतागुफा थाने से निकला था। षनिवार की सुबह यह दल जब वापिसी के लिए पोलमपल्ली से निकला और पिठमेल के जंगल में सुबह सोढ़े दस बजे इनकी मुठभेड़ लगभग चार सौ नक्सलियों के गिरोह से हो गई। नक्सली अपने लिए सुरक्षित ठिकाना बनाए बैठे थे। उनकी अगली ंक्ति में कम उम्र के बच्चे व औरतें भी थीं जो अंधाधुंध फायरिंग कर रहे थे। इस बार हमलावर दल मेढ के नीचे ज्यादा था तभी अधिकांष जवानों के पैर व कमर से नीचे गोलियां ज्यादा लगी हैं।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की सात साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाोजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सषस्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि तीन सौ नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्स लगाई जाती है और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख। नक्सल आंदोलन के जवाब में ‘सलवा जुड़ुम’ का स्वरूप कितना बदरंग हुआ था और उसकी परिणति दरभा घाटी में किस नृषंसता से हुई ; सबके सामने है। बंदूकों को अपनों पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देष नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोषिष करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। लेकिन साथ ही उन खुफिया अफसरों, वरिश्ठ अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय की जाए जिनकी लापरवाही के चलते सात सुरक्षाकर्मी के गाल में बेवहज समा गया। सनद रहे उस इलाके में खुफिया तंत्र विकसित करने के लिए पुलिस को बगैर हिसाब-किताब के अफरात पैसा खर्च करने की छूट है और इसी के जरिये कई बार बेकार हो गए या फर्जी लोगों का आत्मसमर्पण दिखा कर पुलिस वाहवाही लूटती हैं। एक बात और, अभी तक बस्तर ुपलिस कहती रही कि नक्सली स्थानीय नहीं हैं और वे सीमायी तेलंगाना के हैं, लेकिन इस बार उनकी गोंडी सुन कर साफ हो जाता है कि विद्रोह की यह नरभक्षाी ज्वाला बस्तर के अंचलों से ही हैं। गौरतलब है कि चार सौ से ज्यादा नक्सली मय हथियार के जमा होते रहे व खुफिया तंत्र बेखबर रहा, जबकि उस इलाके में फोर्स के पास मानवरहित विमान द्रोण तक की सुविधा है।
यह हमला उन कारणों को आंकने का सही अवसर हो सकता है जिनके चलते आम लोगों का सरकार या पुलिस से ज्यादा नक्सलियों पर विष्वास है, यह नर संहार अपनी सुरक्षा व्यवस्था व लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आए झोल को ठीक करने की चेतावनी दे रहा है, दंडकारण्य में फैलती बारूद की गंध नीतिनिर्धारकों के लिए विचारने का अवसर है कि नक्सलवाद को जड से उखाडने के लिए बंदूक का जवाब बंदूक से देना ही एकमात्र विकल्प है या फिर संवाद का रास्ता खोजना होगा या फिर एक तरफ से बल प्रयोग व दूसरे तरफ से संवाद की संभावनाएं खोजना समय की मांग है। आदिवासी इलाकांे की कई करोड अरब की प्राकृतिक संपदा पर अपना कब्जा जताने के लिए पूंुजीवादी घरानों को समर्थन करने वाली सरकार सन 1996 में संसद द्वारा पारित आदिवासी इलाकों के लिए विषेश पंचायत कानून(पेसा अधिनियम) को लागू करना तो दूर उसे भूल ही चुकी है। इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की जमीन के प्रबंधन और रक्षा करने का पूरा अधिकार था। इसी तरह परंपरागत आदिवासी अधिनियम 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया लेकिन उसका लाभ दंडकारण्य तक नहीं गया, कारण वह बड़े धरानों के हितों के विपरीत है। असल में यह समय है उन कानूनों -अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का, लेकिन हम बात कर रहे हैं कि जनजातिय इलाकों में सरकारी बजट कम किया जाए, क्यांेकि उसका बड़ा हिस्सा नक्सली लेव्ही के रूप में वसूल रहे हैं।
![]() |
दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण 14 अप्रेल 15 |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें