My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

BETTER CROP ALSO TEARS FARMERS

prabhat, meerut 26-4-15
आफत का आलू

पंकज चतुर्वेदी
वह था तो मेकेनिकल इंजीनियर, लेकिन नौकरी नहीं मिली तो पिता के साथ खेती करने लगा था। पांच बीघा में आलू बोए थे और जब बंपर फसल तैयार हुई तो मंडी में दाम इतने कम हो गए कि आलू खेत से उखाड़ने का खर्चा भी निकलना मुष्किल था। कर्जा था, आगे की जिंदगी भी थी, हताषा इतनी बढ़ी कि 24 साल के प्रोबीन कुमार लाहा ने मौत को गले लगा लिया। पष्चिम बंगाल के  वर्द्धमान जिले में यह बीते दो महीने में 12वीं खुदकुषी है। पष्चिमी उत्तर प्रदेष में किसानों ने जब आलू बोए थे तो प्रति बीघा की लागत ही 16 हजार रूपए आई। फसल बहुत बढि़ष हुई और जब माल मंडी आया तो दाम 400 रूपए कुंटल से ज्यादा नहीं मिल रहे हैं। यदि किसान चाहे कि माल कोल्ड स्टोरजे में रख दे तो वह भी लबालब हैं। जहां थोड़ी सी जगह भी है तो 240 रूपए कुंटल से कम पर  कोई राजी नहीं हो रहा है। सनद रहे कि पिछले साल मार्च-अप्रैल में मंडी में आलू का भाव हजार रूपए कंुटल था।
jansandesh times up 27-4-15
इन दिनों दिल्ली  और उसके आसपास सब्जी मंडी में आलू 20 रूपए के सवा किलो बिक रहा है, यानि कम से कम 12 रूपए किलो। वहीं किसान से खरीदी चार रूपए किलो ही है। जरा सोचें कि खेत से रसोई के बीच तीन गुने का अंतर है और इसे वह हजम कर रहे हैं जिन्होंने ना तो बीज, खाद डाला है, ना ही अपनी रातें खेत में बिताई हैं, जिसने ना तो मजदूरी की है और ना ही जिसकी अपनी जमीन है। कैसी विडंबना है कि जिस आलू, के लिए अभी एक महीने पहले तक मारा-मारी मची थी ,वह अब मारा-मारा घूम रहा है। यह पहली बार नहीं हुआ है कि जब किसान की हताषा आम आदमी पर भारी पड़ी है। पूरे देष की खेती-किसानी अनियोजित ,षोशण की षिकार व किसान विरोधी है। तभी हर साल देष के कई हिस्सों में अफरात फसल को सड़क पर फैंकने और कुछ ही महीनों बाद उसी फसल की त्राहि-त्राहि होने की घटनाएं होती रहती हैं। किसान मेहनत कर सकता है, अच्छी फसल दे सकता है, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को भी उसके परिश्रम के माकूल दाम , अधिक माल के सुरक्षित भंडारण के बारे में सोचना चाहिए। षायद इस छोटी सी जरूरत को मुनाफाखोरों और बिचैलियों के हितों के लिए दरकिनार किया जाता है।
एक मोटा अनुमान है कि हमारे देष में हर साल कोई 75 हजार करोड के फल-सब्जी, माकूल भंडारण के अभाव में नश्ट हो जाते हैं।  आज हमारे देष में कोई 6300 कोल्ड स्टोरजे हैं जिनकी क्षमता 3011 लाख मेट्रीक टन की है।  जबकि हमारी जरूरत 6100 मोट्रीक टन क्षमता के कोल्ड स्टोरेज की है। मोटा अनुमान है कि इसके लिए लगभग 55 हजार करोड रूप्ए की जरूरत है। जबकि इससे एक करोड़ 20 लाख किसानों को अपने उत्पाद के ठीक दाम मिलने की गारंटी मिलेगी। वैसे जरूरत के मुताबिक कोल्ड स्आरेज बनाने का व्यय सालाना हो रहे नुकसान से भी कम है। चाहे आलू हो या मिर्च या ऐसेी ही फसल, इनकी खासियत है कि इन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। टमाटर, अंगूर आदि का प्रसस्करण कर वह प्र्याप्त लाभ देती हैं। सरकार मंडियों से कर वूसलने, वहां राजनीति करने में तो आगे रहती है, लेकिन वेयर हाउस या कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने की उनकी जिम्मेदारिया पर चुप रहती हे। यही तो उनके द्वारा किसान के षोशण का हथियार भी बनता हे। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है । दुखद कि देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है । पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया । फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा- कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों । किसान जब ‘‘केष क्राप’’ यानी फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचैलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है। पिछले साल उत्तर प्रदेष में 88 लाख मीट्रिक टन आलू हुआ था तो आधे साल में ही मध्यभारत में आलू के दाम बढ़ गए थे। इस बार किसानों ने उत्पादन बढ़ा दिया, अनुमान है कि इस बार 125 मीट्रिक टन आलू पैदा हो रहा है। कोल्ड स्टोरेज की क्षमता बामुष्किल 97 लाख मीट्रिक टन की है। जाहिर है कि आलू या तो सस्ते- मंदे दामों में बिकेगा या फिर फिर किसान उसे खेत में ही सड़ा देगा- आखिर आलू उखाड़ने, मंडी तक ले जाने के दाम भी तो निकलने चाहिए।
हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक कंे कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मषहूर हरी मिर्चों को सड़क पर लावारिस फैंक कर अपनी हताषा का प्रदर्षन करते हैंे। तीन महीने तक दिन-रात खेत में खटने के बाद लहलहाती फसल को देख कर उपजी खुषी किसान के ओठों पर ज्यादा देर ना रह पाती है। बाजार में मिर्ची की इतनी अधिक आवक होती है कि खरीदार ही नहीं होते। उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है- घर की नई छप्पर, बहन की षादी, माता-पिता की तीर्थ-यात्रा; ना जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर मिर्चियों के साथ फैंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता-- मिर्ची की खेती के लिए बीज,खाद के लिए लिए गए कर्जे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां हजारेंा किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं, दुख की बात यह नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक में ऐसा लगभग हर साल किसी ना किसी फसल के साथ होता है। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी ना निकले।
देष के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताष करती है। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। दिल्ली से सटे पष्चिमी उत्तर प्रदेष के कई जिलों में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े, मवेषियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं। आष्चर्य इस बात का होता है कि जब हताष किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चैपट करता होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा, या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेष, महाराश्ट्र, और उप्र के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनांए हर दूसरे-तीसरे साल होती रहती है। जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तो तब षुगर मिलें या तो गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत नीचा देती हैं, वह भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काट कर खरदी केंद्र तक ढो कर ले जाना, फिर घूस दे कर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना; किसान को घाटे का सौदा दिखता है। अतः वह खड़ी फसल जला कर अपने
कृशि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देष में कृशि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचैलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है। सब्जी, फल और दूसरी कैष-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुश्परिणाम दाल, तेल-बीजों(तिलहनों) और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फॅसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे; इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो, साथ ही प्रसंस्करण के कारखाने छोटी-छोटी जगहों पर लगें। यदि किसान रूठ गया तो ध्यान रहे, कारें तो विदेष से मंगवाई जा सकती हैं, एक अरब की आबादी का पेट भरना संभव नहीं होगा।

पंकज चतुवैदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
9891928376

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