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मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

Calamity, rumors and insensitivity

राष्ट्रीय सहारा २९-४-२०१५ 

आपदा का समय और अफवाहें

                                                   पंकज चतुर्वेदी 

नेपाल और भारत के कुछ हिस्सों में जब भूकंप से आई तबाही की दिल दहला देने वाली तस्वीरें सामने आ रही थीं, जब संवेदनशील लोग व सरकारें इस आपदा से पीड़ित लोगों तक त्वरित राहत पहुंचाने के लिए चिंतित थे, कुछ लोग ऐसे भी थे जो एसएमएस, व्हाट्सएप और अन्य संचार माध्यमों से चांद का मुंह टेढ़ा होने, नासा के हवाले से अगले भूकंप का समय बताने जैसी अफवाहें उड़ाकर जनमानस में दहशत पैदा कर रहे थे। हद तो तब हो गई जब उल्टा चांद निकलने, कयामत की घड़ी पास आने व अगले भूकंप का समय बताने के संदेशों ने लेगों में घबराहट, बैचेनी, फैला दी। इस मामले में खुद नासा को दखल देते हुए बताना पड़ा कि न तो उसकी संस्था ने कोई भविष्यवाणी की है और न वह यह काम करते हैं लेकिन तब तक लंपट किस्म के लोग अपनी हरकतों में कामयाब हो चुके थे। ऐसी स्थिति में दो महीने पहले तक जो लोग नये आईटी एक्ट की धारा 66 ए को समाप्त करने के लिए प्राणपण से जुटे थे, उन्हें पहली बार लगा कि काश कोई कानून होता जो इन अफवाहबाजों पर रोक लगा सकता।
राज एक्‍सप्रेस, भोपाल 30 अप्रेल 15
 मौजूदा दौर में सोशल मीडिया व व्हाट्सएप जैसे औजारों ने अफवाहों की धार को बेहद तीखा व त्वरित कर दिया है। सेकेंड्स और मिनटों में अफवाहें अब बेहद खतरनाक होती जा रही हैं। कभी बिहार में नमक की कमी का हल्ला तो कभी किसी बाबा की भविष्यवाणी पर खजाने मिलने की उत्तेजना। जबकि असल में इसके छुपे हुए मकसद कुछ और ही होते हैं। बीते साल घटित दुर्भाग्यपूर्ण मुजफ्फरनगर दंगे में सोशल मीडिया के जरिये फैली अफवाहों की भी बड़ी भूमिका थी। इससे पहले इंदौर के चंदन नगर में भी बेसिर-पैर की झूठी खबरों ने दंगा करवा दिया था। जिन राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं, उनके गली-कस्बे तक ऐसी-ऐसी अफवाहें हर रोज हवा में तैरती हैं कि मारा-मारी की नौबत आ जाती है। अफवाहें कितनी विध्वंसकारी होती है, इसकी एक बानगी करीब दो साल पहले दक्षिण के राज्यों में भी देखने को मिली थी, जब बंगलूरू का रेलवे प्लेटफार्म उन लोगों से पट गया जो सुदूर उत्तर-पूर्वी राज्यों से वहां रोजगार या शिक्षा के लिए आए थे। चौबीस घंटे में ही ऐसी अफवाहें हैदराबाद और पुणो में भी फैल गईं और पूर्वोत्तर के लोगों का वहां से पलायन शुरू हो गया। यह बात सभी स्वीकार रहे हैं कि आज फेस बुक-ट्वीटर जैसे व्यापक असर वाले सोशल मीडिया माध्यम अफवाह फैलाने वालों के पसंदीदा अस्त्र बनते जा रहे हैं। एक तो इसमें फर्जी पहचान के साथ पंजीकृत लोगों को खोजना मुश्किल होता है, और खोज भी लिया तो इनके सर्वर अमेरिका में होने के कारण मुकदमें को अंजाम तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त सबूत जुटाना नामुमकिन सा होता है। अब तो आईटी एक्ट की धारा 66 ए का भय भी नहीं है जिसमें इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों के माध्यम से अफवाह, फर्जी एकांउट बना गलत सूचना देने पर कड़ी सजा का प्रावधान था। उस धारा को सुप्रीम कोर्ट ने समाप्त क्या किया, अफवाही व उपद्रवी लोगों की बन आयी है। अब फेसबुक और ट्वीटर पर नकली चित्रों के साथ भड़काऊ और आग उगलने वाली हजारों पोस्ट लगाई जा रही हैं। लगता है कि संचार के आधुनिक साधन लोगों को भड़काने के ज्यादा काम आ रहे हैं। अफवाहें फैला माहौल बिगाड़ने के लिए संचार माध्यमों के दुरुपयोग का चलन बीते पांच-छह सालों से पंजाब में भी बखूबी हुआ है। आर्थिक समृद्धि के मार्ग पर तेजी से बढ़ते इस राज्य में अफवाहों का बाजार भी उतनी ही तेजी से विकसित हो रहा है। ये अफवाहें लोगों के बीच भ्रम पैदा करते हुए आम जन-जीवन प्रभावित कर रही हैं और कई बार भगदड़ तक के हालात निर्मित होते रहे हैं। विडंबना है कि बेसिर-पैर की इन लफ्फाजियों पर अंकुश लगाने में सरकार व समाज दोनों असफल रहे हैं। यह जीवट, लगन व कर्मठता पंजाब की ही हो सकती है, जहां लोगों ने खून-खराबे के दौर से बाहर निकल राज्य को ताकतवर बनाया। बीते एक दशक के दौरान पंजाब के गांवों-गांवों तक विकास की धारा बही है। वहां संचार तकनीक के अत्याधुनिक साधन जन-जन तक पहुंचे हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से यही माध्यम अफवाहों के वाहक भी बने हैं। पिछले साल एक बार फिर गणोश भगवान को दूध पिलाने की अफवाह की शुरुआत पंजाब से ही हुई थी और जरा देर के लिए खबर का सीधा प्रसारण भी होने लगा। इसी साल के शुरू में रोटी-प्याज मांगने वाली औरत, दरवाजे पर हल्दी के छापे लगाने की बात और ऐसी ही कई अफवाहें मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में फैली थीं। मुंह नोचवा बंदर की अफवाहें भी हर तीन-चार साल में देश के अलग-अलग हिस्सों में फैलती रहती हैं।बेसिर पैर की तमाम तरह की अफवाहें कहां से शुरू होती हैं, कौन इन्हें फैलाता है और कौन इस झूठ को सच बनाने के कुतर्क देता है, यह सब खोजने की परवाह किसी को नहीं होती है। बची-खुची कसर चौबीसों घंटे कुछ
PRABHAT,MEERUT, 3-5-15
तीखा परोसने के लिए लालायित टीवी चैनल पूरी कर देते हैं। एक बात गौर करने की है कि मोबाइल या इंटरनेट से अफवाहें फैलाने में पंजाब या ऐसे इलाके ज्यादा अव्वल हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होती जा रही है और जो विकास के पथ पर तेज दौड़ रहे हैं। इन अफवाहों को फैलाने की मंशा तो अब तक साफ नहीं हो पाई है लेकिन एक बड़े वर्ग का मानना है कि इसके पीछे संचार क्रांति की तिजारत में लगे लोग हो सकते हैं। ऐसे सनसनीखेज मैसेज प्राइवेट मोबाइल कंपनियों के दिमाग की उपज भी हो सकते हैं जिनके जरिये वे रातों-रात लाखों-करोड़ों का ध्ांधा कर लेती हैं। सनद रहे कि पंजाब, कर्नाटक, पुणो जैसे इलाकों के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों तक मोबाइल ग्राहकों की संख्या देश के शीर्ष आंकड़ों में हैं। इसी तरह इन राज्यों में गांव-गांव तक केबल टीवी का संजाल है। ऐसी खबरें ग्रामीण दर्शकों की संख्या और इसके बल पर टीवी कंपनियों की रेटिंग बढ़ाने का माध्यम बन गई हैं । कहा जाता है कि किसी खबर के फैलने व उसके समाज पर असर को आंकने के सव्रें के तहत ऐसी लप्पेबाजियों को उड़ाया जा रहा है। वैसे आज तकनीक इतनी एडवांस है कि किसी एसएमएस की शुरुआत या सोशल साइट पर भड़काऊ संदेश देने वाले का पता लगाना कठिन नहीं है, फिर भी इतने संवेदनशील मसले पर पुलिस व प्रशासन का टालू रवैया अलग तरह की आशंका खड़ी करता है। बहरहाल अफवाहों की परिणति संकटकाल में चल रहे राहत कायरें में व्यवधान के तौर पर भी होती है। अफवाहें अनैतिक व गैरकानूनी भी हैं। ऐसे में संवेदनशील इलाकों की सरकारों में बैठे लोगों का आंखें मूंदे रखना गंभीर परिणाम भी दे सकता है 

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