शहरों के लिए आफत बनते भोंपू
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Daily News Activist, Lucknow 11-4-15 |
हाल ही में जबलपुर हाईकोर्ट ने जीवन में शोर के दखल पर गंभीर फैसला सुनाया है, जिसके तहत अब त्यौहारों पर सार्वजनिक मार्ग पर लाउडस्पीकरों को प्रतिबंधित कर दिया गया है। यही नहीं कोर्ट ने अब ट्रैफिक बाधित करने वाले पंडालों पर भी अंकुश लगाने के आदेश दिए हैं। इस आदेश के बाद प्रशासन भी लाउडस्पीकर और पंडालों की अनुमति नहीं दे सकेगा। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अजय माणिकराव खानविलकर व जस्टिस शांतनु केमकर की डिवीजन बेंच ने समाजसेवी राजेंद्र कुमार वर्मा की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद यह आदेश दिए। इसमें साफ किया गया कि त्यौहार या सामाजिक कार्यक्रम के नाम पर अत्याधिक शोर मचाकर आम जनजीवन को प्रभावित करना अनुचित है। हाईकोर्ट मध्यप्रदेश कोलाहल निवारण अधिनियम-1985 की धारा-13 को असंवैधानिक करार दिया है। अभी इस धारा के प्रावधानों का दुरुपयोग करते हुए लोग डीजे आदि बजाने की अनुमति ले लेते हैं। हाईकोर्ट ने आने आदेश में कहा कि किसी के मकान या सड़क किनारे लाउडस्पीकर-डीजे आदि के शोर से न केवल मौलिक मानव अधिकार की क्षति होती है बल्कि आसपास रहने वालों को बेहद परेशानी होती है। लिहाजा, अधिनियम की जिस धारा में दिए गए प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए लाउडस्पीकर आदि बजाए जाने की अनुमति हासिल कर ली जाती थी, उसे असंवैधानिक करार दिया जाता है।हाईकोर्ट के इस आदेश के साथ ही त्यौहारों और धार्मिक व सामाजिक समारोहों के दौरान उपयोग किए जाने वाले ध्वनि विस्तारकों व दूसरे उपकरणों को लेकर कोर्ट के फैसले से शोर से मुक्त जीवन जीने का आम जनता का सपना साकार हो गया है। दुर्भाग्य है कि भले ही कानून कुछ भी कहता हो, अदालतें कड़े आदेश देती हों, लेकिन धर्म के कंधे पर सवार हो कर शोर मचाने वाले लाउडस्पीकर हैं कि मानते ही नहीं हैं। गत दो सालों के दौरान अकेले उत्तर प्रदेश में हुए बीस से ज्यादा दंगों का मुख्य अभियुक्त यही लाउडस्पीकर ही रहा है। ये न केवल कानून-व्यवस्था के लिए चुनौती बने हैं, बल्कि आम लोगों की सेहत और पर्यावरण के भी दुश्मन बने हुए हैं। सभी लोग इनसे तंग हैं, लेकिन चुनौती यही है कि इन पर कानून सम्मत कार्रवाई कौन व कैसे करे। उत्तर प्रदेश में सन् 2014 के जून-जुलाई में मुरादाबाद के कांठ कस्बे में एक मंदिर पर लाउडस्पीकर लगाने को लेकर बवाल इतना बढ़ा था कि वहां कई दिन कर्फ्यू लगाना पड़ा था। उस मामले में इलाहबाद हाईकोर्ट ने साफ कर दिया था कि मंदिर पर भोंपू नहीं लगेगा, इसके बावजूद वहां हंगामा हुआ। मेरठ के मुंडाली क्षेत्र के नंगलामल गांव में रोजा इफ्तार के दौरान करीबी मंदिर पर भोंपू बजाने के कारण हुए झगड़े में दो लोग मारे गए थे। बरेली में तो लाउडस्पीकर बजाने को ले कर दो बार दंगे हो चुके हैं। दिल्ली में त्रिलोकपुरी में दीपावली के पहले जागरण के लिए लाउडस्पीकर बजाने पर हुआ बवाल पंद्रह दिनों तक चला था। धार्मिक जुलूस निकालने के दौरान कतिपय धार्मिक स्थल के सामने लाउडस्पीकर या डीजे बजाने को लेकर गत तीन सालों के दौरान देशभर में सौ से ज्यादा जगह फसाद हो चुके हैं। ये लाउडस्पीकर केवल दंगों के कारक ही नहीं बनते हैं, ये आग में घी का काम भी करते हैं। छोटे से विवाद पर अपने समाज के लोगों को एकत्र करने, अफवाहें फैलाने, लोगों को उकसाने में भी इन भोंपू की खलनायकी भूमिका होती है।यह त्रासदी है कि जहां अभी कुछ दशक पहले तक सुबह आंखें खुलने पर पक्षियों का कलरव हमारे कानों में मधु घोलता था, आज देश की बड़ी आबादी अनमने मन से धार्मिक स्थलों के बेतरतीब शोर के साथ अपना दिन शुरू करता है। यह शोर पक्षियों, प्रकृति प्रेमी कीट-पतंगों, पालतू जीवों के लिए भी खतरा बना है। बुजुर्गों, बीमार लोगों और बच्चों के लिए यह असहनीय शोर बड़ा संकट बन कर उभरा है। सारी रात तकरीर, जागरण या फिर शादी, जन्मदिन के लिए डीजे की तेज आवाज कई लोगों के लिए जानलेवा बन चुकी है। दुखद तो यह है कि अब यह बेकाबू रोग पूरी तरह निरंकुश हो चुका है। सनद रहे कि देशभर में इक्कीस लाख से ज्यादा गैरकानूनी धार्मिक स्थलों का आंकड़ा सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत किया गया है। ऐसा नहीं है कि इस बवाली भोंपू पर कानून नहीं है, लेकिन कमी है कि उन कानूनों-आदेशों का पालन कौन करवाए। अस्सी डेसीमल से ज्यादा आवाज न करने, रात दस बजे से सुबह छह बजे तक ध्वनि विस्तारक यंत्र का इस्तेमाल किसी भी हालत में न करने, धार्मिक स्थलों पर आठ फुट से ज्यादा ऊंचाई पर भोंपू न लगाने, अस्पताल-शैक्षिक संस्थाओं, अदालत व पूजा स्थल के 100 मीटर के आसपास दिन हो या रात, लाउडस्पीकर का इस्तेमाल न करने, बगैर पूर्वानुमति के पीए सिस्टम का इस्तेमाल न करने जैसे ढेर सारे नियम, उच्च अदालतों के आदेश सरकारी किताबों में दर्ज हैं, लेकिन गली-मुहल्ले के धार्मिक स्थलों में रोज आरती, तकरीर, प्रवचन, नमाज के नाम पर पूरी रात आम लोगों को तंग करने पर कोई रोक-टोक नहीं है। तेज ध्वनि के कारण झगड़े होना महज धार्मिक प्रयोजन तक ही सीमित नहीं हैं, आएदिन शादी-विवाह में डीजे बजाने, उसमें मनपसंद गाना चलाने, उसकी आवाज कम या ज्यादा करने को लेकर पारिवारिक आयोजन खूनी संघर्ष में बदल जाते हैं। समाज में संकट का बीज बोने वाले डीजे पर कहने को तो पूरी तरह रोक लगी है, लेकिन इसकी परवाह किसी को भी नहीं है। अब तो धार्मिक जुलूसों में छोटे ट्रकों पर डीजे की गूंजती आवाज दूसरों को भड़काने, चिढ़ाने का काम करती दिखती है। यह बात सभी स्वीकारते हैं कि दंगे-झगड़े देश व समाज के विकास के दुश्मन हैं। यह भी सभी मानते हैं कि हल्ला-गुल्ला या तेज आवाज में पूजा-अर्चना करने से भगवान न तो खुश होता है और न ही इससे धार्मिकता या परंपरा का कुछ लेना-देना है। यह भी सर्वसम्मत है कि यह सब गैरकानूनी व अवैध है। फिर इसे कड़ाई से रोकने में समस्या क्या है? इसके लिए सभी धार्मिक नेताओं, जन प्रतिनिधियों और कार्यपालिका को एकजुट होकर त्वरित कदम उठाने चाहिए।
= पंकज चतुर्वेदी
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