My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

Tea estates gobble up Uraon Traditions

चाय बागानों में गुम हो रही उरांव परंपराए

पंकज चतुर्वेदी

भारतीय समाज की रंगबिरंगी विविधतापूर्ण जातीय संरचना का सर्वाधिक आकर्षक हिस्सा है यहां की जनजातियां । सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक उथल-पुथल से बेखबर ये वनवासी पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर हो कर जीते हैं । इस बात पर देश में आम सहमति रही है कि सामाजिक पर्यावरण बनाए रखने के लिए यह महति जरूरी है कि आदिवासियों को उनके पारंपरिक परिवेश में ही जीवनयापन के भरपूर अवसर प्रदान किए जाएं । लेकिन मध्य भारत की एक प्रमुख जनजाति ‘उरांव’ इन दिनों अपनी पहचान बनाए रखने के लिए जूझ रही है । साम्यवादी सामाजिक संरचना के लिए चिर परिचित रहे उरांव लोगों का यह संकट चाय बागानों से उपजा है । पीढि़यों पहले वे पेट भरने के इरादे से चाय बागान गए थे, लेकिन आज उनके सामने पेट के साथ-साथ पहचान का संकट भी खड़ा हो गया है। उनकी भाशा, संस्कार, त्योहार सभी लुप्त होने की कगार पर हैं।
FORWARD PRESS , NEW DELHI, APRIL-2015



,छत्तीसगढ़, झारखंड,बिहार और उड़ीसा के लगभग दो दर्जन जिलों में उरांवों का मूल वास है । यह एक दुर्भाग्य ही था कि उनके पुश्तैनी गांवों के आसपास दुर्लभ खनिजों का अकूत भंडार थे, जहां देश के विकास के नाम पर उनका खनन शुरू हुआ और इस अंधी दौड़ ने आदिवासियों की पीढि़यों पुरानी जमीन निगल ली । मजबूर वन पुत्र पेट भरने के लिए या तो खदानों में काम करने लगे या फिर कहीं दूर चले गए । इस तरह धीरे-धीरे उनका अपनी जमीन से नाता टूटता गया । आज हालात यह हैं कि उरांवों की जनजातिय अस्मिता पूरी तरह बाहरी प्रभाव के चपेट में आ कर खंडित हो रही है । पश्चिम बंगाल और असम के कोई दो हजार चाय बागानों में लगभग दस लाख आदिवासी पत्ती तोड़ने में लगे हुए हैं । इनमें अधिकांश महिलाएं हैं जो उरांव जनजाति से हैं । इनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान पूरी तरह धूमिल हो चुकी है । आर्थिक और शारीरिक शोषण को उन्होंने अपनी नियति मान लिया है ।
छोटा नागपुर क्षेत्र के आदिवासियों के भोजन व जीवकोपार्जन का मुख्य जरिया वहां के जंगलों में पैदा होने वाले पत्तीदार साग हुआ करते थे । तभी वहां की महिलाएं पत्ते चुनने में माहिर हुआ करती थीं । कोई डेढ़ सौ साल पहले जब अंग्रेजों ने आदिवासी अंचल में खनन शुरू किया तो उनकी निगाह मुंडा, खडि़या, संथाल, उरांव आदि आदिवासी औरतों की पत्ती चुनने की विशिष्ट शैली पर पड़ी । सन 1881 से 1891 के दौरान हर साल लगातार कोई 19 हजार अरण्य श्रमिक दक्षिण बिहार से असम के चाय बागानों में गए । बीते कुछ सालों के दौरान 27000 आदिवासी दार्जलिंग और जलपाईगुड़ी के चाय बागानों में गए । आज इन लोगों की तीसरी या चैथी पीढ़ी वहां काम कर रही है । अब वे लोग यह भूलते जा रहें हैं कि उनकी जनजाति की कोई अनूठी सांस्कृतिक या सामाजिक पहचान भी हुआ करती थी ।
उरांवों की मातृ भाषा ‘कुरक’ है । पर बागानों में काम कर रहे उरंाव अब ‘सादरी’ बोलते हैं । चूंकि बागानों में अलग-अलग इलाकों से आए विभिन्न जाति-जुबान के लोग हैं । सो उरांव बच्चों पर इन सभी का थोड़-थोड़ा असर हो रहा है । आज वहां रह रहे 18 साल उम्र के किसी भी उरांव को शायद ही ‘कुरक’ बोलना या समझना आता है । उरांवों के पारंपरिक नामों चेदों, मंकारी आदि की जगह बंगाली मिश्रित नामेां का बोलबाला है ।
बागान की आधुनिकता में उरांवों की सांस्कृतिक गतिविधियां भी गुम हो गई हैं । इनका मुख्य नृत्य ‘करमा’ है । चूंकि पहाड़ी इलाकों में करमा गाछ (पेड़) मिलता ही नहीं है, जाहिर है कि वहां करमा का आयोजन संभव नहीं है । ‘जनी शिकार’ को वहां की युवा उरांव महिलाएं जानती ही नहीं हैं । याद हो उरांवों ने रोहतास गढ़ में तीन बार मुगलों को हराया था । इसी जीत के यादगार स्वरूप हर 12 सालों में एक बार उरांव महिलाएं पुरुष का वेष रख कर झुंड में जंगल जाती हैं और शिकार करती हैं । पर चाय बागानों में पली-बढ़ी लड़कियों को ये समृद्ध परंपराएं कहां नसीब होंगी । जाति पंचायतों को भी ये भूल चुके हैं । पीढि़यों से चली आ रहीं लोक कथाओं को अपनी अगली पीढ़ी तक पहुचाने का तारतम्य टूट गया है । क्योंकि बागानों में काम करने वाली औरतों के पास इतना समय नहीं होता है कि वे अपने बच्चों को कहानियां सुना सकें । ठेठ उरांव महिला की पहचान ‘तीन गोदना’ (त्रिशूल) से होती है, जो यहां देखने को नहीं मिलता है ।
चाय बागानों में आदमियों को नौकरी बहुत कम दी जाती है । इसके चलते यहां के आदमी निकम्मे होते जा रहे है । ये जम कर शराब पीते है । सीमा पार से चोरी का सामान लाना, नशीली दवाएं बेचना इनका धंधा हो गया है । उधर औरतें भी भारी शोषण की शिकार हैं । उन्हें दिन भर में 25 पाउंड पत्ती तोड़ना जरूरी होता है । अतिरिक्त पत्ती पर मात्र 25 पैसे प्रति किलो ग्राम ही दिया जाता है । इस प्रकार सारे दिन खटने के बाद एक महिला को महीने भर में बामुश्किल चार-पांच सौ रुपए मिल पाते हैं । बागानों में जौंक काफी होते हैं ,जो इन औरतों को चिपक जाया करते हैं । इससे बचने के लिए उरांव महिलाएं अब तंबाकू खाने लगी हैं, जो कई बीमारियां उपजा रही है ।
उरांवों के हरेक पारंपरिक गांव में अलग से रात्रि घर हुआ करता है जिसे ‘धुमकुरिया’ कहते हैं । शाम होने पर उरांव युवक-युवतियां यहां जमा होते है और नाचते-गाते हैं । बागानों में रहने वाले युवाओं को अलबत्ता तो शाम को नाचने-गाने की सुध ही नहीं रहती है, फिर उन्हें ऐसे किसी सामाजिक क्लब के बारे में जानकारी ही नहीं है । इस जनजाति में लड़की की शादी की उम्र 21से 25 साल हुआ करती है, लेकिन यहां शादी 14 साल में ही की जा रही है । जवान बेटियों को शारीरिक शोषण से बचाने के लिए जल्दी शादियां की जा रहीं हैं । यही कारण है कि बागानों की आदिवासी बालाओं में पारंपरिक चमक और फुरती देखने को नहीं मिलती है ।
जनजातियों में हाथ से बनी मदिरा(हंडिया) पीने का चलन है । पर बागानों में इसकी जगह चिलैया या दारू ने ले ली है । बागान के दरवाजों पर ही दारू का ठेका मिल जाएगा । एक बगीचे में एक दिन दस हजार रुपए का बोनस बंटा । उस दिन वहां की चिलैया की दुकान की बिक्री सात हजार  की थी । यहां के दूषित माहौल से बच्चे भी अछूते नहीं है । जब पत्ती तोड़ने का चरम सीजन होता है तब ठेकेदार(स्थानीय बोली में सरदार) स्कूल से बच्चों  को भी खदेड़ लाता है । चंूकि वहां चप्पे-चप्पे पर वीडियो हाल और ड्रग्स के अड्डे खुले हैं, सो बच्चों को इनकी लत लग गई है । इसके लिए पैसे की पूर्ति के लिए वे बागानों में काम करना सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं ।
भारतीय संविधान की यह कैसी विडंबना है कि बागान में काम करने वाले लोगों को आदिवासी नहीं माना जाता है । यानि जनजातियों को मिली आरक्षण व अन्य सुविधाओं से ये महरूम हैं । चाय बागानों में होम हो रही देश की बेशकीमती मौलिक संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण हेतु सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं को जल्दी ही गंभीरता से सोचना होगा । क्योंकि पृथकतावादी ताकतों को फलने-फूलने का मौका ऐसे ही स्थानों पर होता है जहां सामाजिक और आर्थिक शोषण को नज़रअंदाज किया जाता है ।
पारंपरिक उरांवों के जीवन की सादगी और एकरसता यहां चुकती जा रही है । ऐसा कहा जाता है कि आदिवासी लोग धर्म और कलात्मक अनुभूतियों की गहराई में अपनी आत्मा को तलाशते हुए ही दैनिक जीवन के दुखों पर विजय पाते हैं । चाय बागानों की मशीनी जिंदगी में यह सब कहां मिल सकता है । शायद तभी अब वे उन्मुक्त प्रफुल्लित जीवन चाह कर भी नहीं जी पा रहे हैं ।

पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेषनल बुक ट्रस्ट इंडिया
 नेहरू भवन, वसंत कुंज इंस्टीट्यूषनल एरिया फेज-2
 वसंत कुंज, नई दिल्ली-110070
 संपर्क- 9891928376

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...