औरत को मारने के बहाने
पंकज चतुर्वेदी
झारंखड के नक्सल प्रभावित सिमडेगा जिले में कोलिबिरा थाने के तहत सरईपानी गांव में बीते दिनों दो बुजुर्ग औरतों को पंचायत ने डायन के नाम पर इसलिए पीट-पीट कर मार डाला क्योंकि गांव में उनके कारण बीमारियां फैल रही थीं। दोनों की उम्र लगभग 65 साल थी। यही नहीं जब पुलिस गांव में पहुंची तो ग्रामीणों ने धनुष-बाण से उन्हें भी खदेड़ दिया। पिछले साल असम के जनजातीय बहुल कार्बी आंगलांग जिले में एक राष्ट्रीय स्तर की एथेलीट रही देवजानी को कुछ लोगों ने डायन बता निर्ममता से पीटा था। असम में गत पांच सालों के दौरान ऐसे कोई 90 मामले सामने आए हैं जब किसी को डायन बता जलाया गया, गला काटा गया या प्रताड़ित किया गया। कोई आधा दर्जन राज्यों में हर साल सैंकड़ों औरतों को ‘‘डायन’ के अंधविास की आड़ में बर्बर तरीके से मारा जा रहा है।मध्यप्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में जमीन हदबंदी कानूनों के लचरपन और पंचायती राजनीति के नाम पर शुरू जातीय दुश्मनियों की परिणति महिलाओं की हत्या के रूप में हो रही है। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर शासन ने एक जांच रिपरेट तैयार की है जिसमें बताया गया है कि अंधविास और अशिक्षा के कारण टोनही या डायन करार दे कर किस तरह निरीह महिलाओं की बर्बर हत्या कर दी जाती है। इस नाम पर औरतों को न केवल जिंदा जलाया जाता है, बल्कि उन्हें नग्न घुमाना जैसे निर्मम कृत्य भी होते हैं। इन घटनाओं का सर्वाधिक अफसोसजनक पहलू यह है कि इन प्रताड़नाओं के पीछे महिलाओं की भी शह होती है।राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि बीते साल देशभर में 160 औरतें टोनही या डायन बता कर मारी गई। इनमें झारख्ांड में 54, ओडिशा में 24, तमिलनाडु में 16 आंधप्रदेश में 15 और मप्र में 11 मौतें शामिल हैं। आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ राज्य में बेगा, गुनियाओं और ओझाओं के झांसे में आकर पिछले एक दशक में तीन दर्जन से अधिक औरतों को मार डाला गया। कोई एक दर्जन मामलों में पुरु षों को भी ऐसी मौत झेलनी पड़ी है। मरने वालों में बूढ़े ज्यादा हैं। किसी को जिंदा जलाया गया तो किसी को जीवित ही दफना दिया गया। किसी का सिर धड़ से अलग करा गया तो किसी की आंखें निकाल ली गईं। ये आंकड़े मात्र वही हैं जिनकी सूचना पुलिस तक पहुंची। खुद पुलिस भी मानती है कि दर्ज नहीं हो पाए मामलों की संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक हो सकती है। किसी गांव में कोई बीमारी फैले या मवेशी मारे जाएं या फिर किसी प्राकृतिक विपदा की मार हो, आदिवासी इलाकों में इसे ‘‘टोनही’ का असर मान लिया जाता है। भ्रांति है कि टोनही के बस में बुरी आत्माएं होती हैं और वह गांवों का बुरा करती है। ऐसी धारणाएं फैलाने का काम नीम-हकीम, बेगा या गुनिया करते हैं। छत्तीसगढ़ हो या निमाड़ या झिारखंड व ओडिशा- सभी जगह आदिवासियों की अंधश्रद्धा इन झाड़-फूंक वालों में होती है। इनकी अफवाह होती है कि ‘‘टोनही’ आधी रात को निर्वस्त्र होकर श्मशान जाकर तंत्र-मंत्र के जरिए बुरी आत्माओं को गुलाम बना लेती है। उनका मानना है कि देवी अवतरण के दिनों- होली, हरेली, दीवाली और नवरात्र के मौके पर ‘‘टोनही’ सिद्धि प्राप्त करती है। गुनियाओं की बात पर लोग इतना यकीन करते हैं कि ‘‘देवी अवतरण’ की रातों में घर से बाहर निकलना तो दूर, झांकते तक नहीं हैं। गुनियाओं ने दिमाग में भरा है कि टोनही जिसका बुरा चाहती है, उसके घर के आसपास अभिमंत्रित बालों के गुच्छे, तेल, सिंदूर, काली कंघी या हड्डी रख देती है।अधिकांश आदिवासी गांवों तक सरकारी स्वास्य महकमा पहुंच नहीं पाया है। जहां कहीं अस्पताल खुले भी हैं तो कर्मचारी इन पुरातनपंथी वन पुत्रों में अपने प्रति विास नहीं उपजा पाए हैं। तभी मवेशी मरे या कोई नुकसान हो, गुनिया हर मर्ज की दवा होता है। उधर गुनिया के दांव-पेंच जब नहीं चलते हैं तो वह अपनी साख बचाने कि लिए किसी महिला को टोनही घोषित कर देता है । गुनिया को शराब मुर्गा, बकरे की भेंट मिलती है और बदले में किसी औरत को पैशाचिक कुकृत्य सहने पड़ते हैं। ऐसी महिला के पूरे कपड़े उतार कर गांव की गलियों में घुमाया जाता है, जहां चारों तरफ से पत्थर बरसते हैं। हंसिए से आंख भी फोड़ दी जाती है।मप्र के झाबुआ-निमाड़ अंचल में भी महिलाओं को ऐसे ही मारा जाता है। नाम भर बदल जाता है- डाकन। गांव की किसी औरत के शरीर में ‘‘माता’ प्रविष्ट होती है और यही ‘‘माता’ किसी दूसरी ‘‘माता’ को डायन घोषित कर देती है। अकेले झाबुआ जिले में हर साल 10 से 15 ‘‘डाकनों’ की हत्या होती है। ऐसे ही अंधविास और त्रासदी से झारखंड, ओडिशा, बिहार, बंगाल, असम के जनजातीय इलाके भी ग्रस्त हैं। रूरल लिटिगेशन एंड एंटाइटिलमेंट केंद्र नामक गैर-सरकारी संगठन की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका देकर डायन-कुप्रथा पर रोक लगाने की मांग की गई थी, जिसे 12 मार्च 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि पहले इसको हाईकोर्ट में लगाया जाना चाहिए। संस्था ने आकंडे पेश किए कि15 सालों से विभिन्न राज्यों में 2500 से अधिक औरतें डायन करार दे मारी जा चुकी हैं। ठेठ आदिम परंपराओं में जी रहे आदिवासियों के इस दृढ़ अंध विास का फायदा इलाके के चालाक और असरदार लोग उठाते हैं। अपने विरोधी अथवा किसी विधवा-बूढ़ी औरत की जमीन हड़पने के लिए ये प्रपंच किए जाते हैं। गुनिया थोड़े से पैसे या शराब के लालच में किसी भी महिला को टोनही घोषित कर देता है। कई मौकों पर ऐसे परिवार की बहू-बेटियों के साथ गुनिया या असरदार लोग कुकृत्य करने से बाज नहीं आते हैं। मप्र शासन की जांच रपट में कई रोंगटे खड़े कर देने वाले हादसों का जिक्र है । लेकिन अब अधिकारी सांसत में हैं कि अनपढ़ आदिवासियों को इन कुप्रथाओं से कैसे बचाया जाए! एक तरफ आदिवासियों के लिए गुनिया-ओझा की बात पत्थर की लकीर होती है तो दूसरी ओर इन भोले-भाले लोगों के वोटों के ठेकेदार ‘‘परंपराओं’ में सरकारी दखल पर भृकुटियां तान अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं। गुनिया-ओझा का कोप से अमूमन पढ़े-लिखे समाज सुधारक व धर्म प्रचारक भी डरते हैं। तभी इन अंचलों में सामुदायिक स्वास्य, शिक्षा या धर्म के क्षेत्र में काम कर रहे लोग भी इन कुप्रथाओं पर कभी खुल कर नहीं बोलते। कहने को झारंखंड सरकार ने इस कुप्रथा के खिलाफ एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनवाई थी, लेकिन गुनिया-ओझा के डर से उसका सही तरीके से प्रदर्शन भी नहीं हुआ।
राष्ट्रीय सहारा, 16 मई 15 |
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