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गुरुवार, 14 मई 2015

Child traffiking shame on society

देह-व्यापार में सिसकता बचपन

                                                                


PRABHAT, MEERUT, 17-5-15
आखिर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के नुमाईंदे से तल्ख अंदाज में पूछ ही लिया कि उन गुम हुए बच्चों में एक आपका होता तो आप क्या करते ? यह बात सरकारी रिकार्ड में दर्ज है कि भारत में कोई 900संगठित गिरोह , जिनके सदस्यों की संख्या पांच हजार के आसपास है बच्चे चुराने के कमा में नियोजित रूप से सक्रिय हैं। यह बात सुप्रीम कोर्ट के प्रकाष में भी आई है कि हर साल औसतन नब्बे हजार बच्चे गुम हो जा रहे हैं और इनमें से दो फीसदी भी घर नहीं लौटते। यह एक दुखद लेकिन चैंकाने वाला तथ्य है कि भारत में हर दसवां बच्चा यौन षोशण का षिकार हो रहा है। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट भी चेता चुकी है कि हमारा देष बाल वैष्यावृति के लिए एषिया की सबसे बड़ी मंडी के रूप में उभर रहा है। विषेशरूप से गुम बच्चों में मासूम बच्चियों को तो बेहद अमानवीय जीवन बिताना पड़ता है, विडंबना है कि समाज के दवाब , न्याय तंत्र की झिड़की के बाद भी हम कोई ऐसा सिसटम नहींे बना पा रहे हैं कि केाई बच्चा सड़क बाजार में लावारिस ना मिले।
भारत में अक्सर गरीब, पिछडे और अकाल ग्रस्त इलाकों में लड़कियों को उनके पालकों को मीठे-मीठे लुभावनों में फंसा कर  षहरों में लाया जाता है और उन्हें देह व्यापार में ढकेल दिया जाता है।  गरीब देषो में आर्थिक स्थिति में बहुत भिन्नता है, इसलिए दूरदराज के किसी कस्बे में बिना किसी हुनर के भी ऊंची मजदूरी पर रोजगार दिलाने के रंगीन सपने कभी-कभी परिवार  परिवार वालों को आसानी से लुभा जाते हैं। कई बार षादी के झांसे में भी लड़कियों को फंसाया जाता है। दिल्ली विष्वविद्यालय में स्कूल आफ सोषल वर्क के डा. केके मुखोपाध्याय के एक षोध-पत्र में लिखा है कि बाल वेष्यावृति का असल कारण विकास से जुड़ा हुआ है और इसे अलग से आर्थिक या सामाजिक समस्या नहीं माना जा सकता । इस षेाध में यह भी बात स्पश्ट हुई है कि  छोटी उम्र में ही वेष्यावृृति के लिए बेची-खरीदी गई बच्चियों में से दो-तिहाई अनुसूचित, अनुसूचित जनजातियों या बेहद पिछड़ी जातियों से आती हैं। केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने कुछ साल पहले एक सर्वेक्षण करवाया था जिसमें बताया गया था कि देष में लगभग एक लाख वेष्याएं हैं जिनमें से 15 प्रतिषत 15 साल से भी कम उम्र की हैं।  हालांकि गैर सरकारीसंगठनों का दावा है कि ये आंकड़े हकीकत से कई गुणा कम है। असल में देष में पारंपरिक रूप से  कम उम्र की कोई 10 लाख बच्चियां देह व्यापार के नरक में छटपटा रही हैं।
विदित हो अभी एक साल पहले ही दिल्ली पुलिस ने राजधानी से लापता बच्च्यिों की तलाष में एक ऐसे गिरोह को पकड़ा था जो बहुत छोटी बच्चियों को उठाता था, फिर उन्हें राजस्थान की पारंपरिक वैष्यावृति के लिए बदनाम एक जाति को बेचा जाता था। अलवर जिले के दो गांवों में पुलिस के छापे से पता चला कि कम उम्र की बच्चियों का अपरहण किया जाता है। फिर उन्हें इन गांवों में ले जा कर ‘बलि के बकरे’’ की तरह खिलाया-पिलाया जाता है। गाय-भैंस से ज्यादा दूध लेने के लिए लगाए जाने वाले हार्मोन के इंजेक्षन ‘‘आॅक्सीटासीन’’ दे कर छह-सात साल की उम्र की इन लड़किया को कुछ ही दिनों में 14-15 साल की तरह किषोर बना दिया जाता और फिर उन्हें यौन संबध बनाने के लिए मजबूर किया जाता था। ऐसा नहीं है कि दिल्ली पुलिस के उस खुलासे के बाद यह धिनौना धंधा रूक गया। अभी अलवर, मेरठ, आगरा, मंदसौर सहित कई जिलों के कई गांव इस पैषाचिक कृत्य के लिए सरेआम जाने जाते हैं। पुलिस से छापे मारती है, बच्चियों को महिला सुधार गृह भेज दिया जाता है। फिर दलाल लोग ही बच्चियों के परिवारजन बन कर उन्हें महिला सुधार गृह से छुड़वाते हैं और सुदूर किसी मंडी में फिर उन्हें बेच देते हैं।
बच्चियों की खरीद-फरोख्त करने वाले दलाल स्वीकार करते हैं कि एक नाबालिक  कुमारी बच्ची को धंधे वालोें तक पहुंचाने के लिए उन्हे ंचैगुना दाम मिलता है। वहीं कम उम्र की बच्ची के लिए ग्राहक भी ज्यादा दाम देते हैं। फिर कम उम्र की लड़की ज्यादा सालों तक धंधा करती है। तभी दिल्ली व कई बड़े षहरों में हर साल कई छोटी बच्चियां गुम हो जाती हैं और पुलिस कभी उनका पता नहीं लगा पाती है।
इस बात को ले कर सरकार बहुत कम गंभीर है कि भारत  बांग्लादेष, नेपाल जेसे पड़ोसी देषों की गरीब बच्चियों की तिजारत का अंरराश्टीªय बाजार बन गया है। यह षंका भी पहले जता दी गई है कि नेपाल के भूकंप के बाद वहां से मानव तस्करी, विषेशतौर पर बच्चियों की खरीद-फरोख्त बढ़ जाएगी और उसकी बउ़ी मंडी भारत ही है। जधन्य तरीके से पेट पालने वाले हर बच्चे के जीवन का अतीत बेहद दर्दनाक ही होता हे। भले ही मुफलिसी को बाल वैष्यावृृति के लिए प्रमुख कारण माना जाए, लेकिन इसके और भी कई कारण हैं जो समाज में मौजूद विकृृत मन और मस्तिश्क के साक्षी हैं।
एक तो एड्स के भूत ने योनाचारियों को भयभीत कर रखा है सो वे छोटी बच्चियों की मांग ज्यादा करते हैं, फिर कुछ नीम हकीमों ने भी फैला रखा है कि यौन-संक्रमण रोग ठीक करने के लिए बहुत कम उम्र की बच्ची से यौन संबंध बनाना कारगर उपाय हे। इसके अलावा देष में कई सौ लोग इन मासूमों का इस्तेमाल पोर्न वीडियों व फिल्में बनाने में कर रहे हैं। अरब देषो में भातर की गरीब मुस्लिम लड़कियों को बाकायदा निकाह करवा कर सप्लाई किया जाता है। हैदराबाद तो इसकी सर्व सुलभ मंडी है। ताईवान, थाईलेंड जैसे देह-व्यापार के मषहूर अड्डो की सप्लाई- लाईन भी भारत बन रहा है। यह बात समय-समय पर सामने आती रहती है कि गोवा, पुश्कर जेसे अंतरराश्ट्रीय पर्यटकों के आकर्शण केंद्र बच्चियों की खपत के बड़े केंद्र हैं।
कहने को तो सरकारी रिकार्ड में कई बड़े-बड़े दावे व नारे हैं- जैसे कि सन 1974 में देष की संसद ने बच्चों के संदर्भ में एक राश्ट्रीय नीति पर मुहर लगाई थी ,जिसमें बच्चों को देष की अमूल्य धरोहर घोशित किया गया था। भारतीय दंड संहिता  की धारा 372 में नाबालिक बच्चों की खरीद-फरोख्त करने पर 10 साल तक सजा का प्रवधान है। असल में इस धारा में अपराध को सिद्ध करना बेहद कठिन है, क्योंकि अभी हमारा समाज बाल-वैष्यावृति जैसे कलंक से निकली किसी भी बच्ची के पुनर्वास के लिए सहजता से  राजी नहीं है। एक बार जबरिया ही सही इस फिसलन में जाने के बाद खुद परिवार वाले बच्ची को अपनाने को तैयार नहीं होते, ऐसे में भुक्तभोगी से किसी के खिलाफ गवाही की उममीद नहीं की जा सकती हे। दुनिया के 174 देषों, जिसमें भारत भी षामिल है, के संयुक्त राश्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 34 में स्पश्अ उल्लेख है कि बच्चों को सभी प्रकार के यौन उत्पीड़न से निरापद रखने की जिम्मेदारी सरकार पर है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह बात किताबों से आगे नहीं हे।
हमारे देष का संविधान भी बिना किसी भेदभाव के बच्चों की देखभाल, विकास और अब तो षिक्षा की भी गारंटी देता है, लेकिन इसे नारे से आगे बढ़ाने के लिए ना तो इच्छा-षक्ति है और ना ही धन, जबकि गरीबी, बेराजगारी, पलायन, सामाजिक कुरीतियों, रूढिवादी लोगों के लिए बच्चियों को देह व्यापार के ध्ंाधे में ढकेलने के लिए उनका आर्थिक और आपराधिक तंत्र बेहद ताकतवर है। कहने को कई आयोग बने हुए हैं, लेकिन वे विभिन्न सियासती दलों के लोगों को पद-सुविधा देने से आगे काम नहीं कर पा रहे हैं।
आज बच्चियों को केवल जीवित रखना ही नहीं, बल्कि उन्हें इस तरह की त्रासदियों से बचाना भी जरूरी है और इसके लिए सरकार की सक्रियता, समाज की जागरूकता और पारंपरिक लोक की सोच में बदलाव जरूरी है।

पंकज चतुर्वेदी





पंकज चतुर्वेदी

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