मुसलमानों को नारों, उर्दू और मस्जिद से ना बहलाएं मुलायमजी
पंकज चतुर्वेदीबीते दिनों कांधला में आग लगते-लगते बची। अब धीरे-धीरे यह भी सामने आ रहा है कि पहले से ही संवदेनशील पश्चिम उत्तर प्रदेश को एक बार फिर दंगों की आग में झोंकने की मुहिम में कई झूठ बोले गए और इस बार अफवाहें फैलाने फसाद करने व गलतबयानी करने वाले और कोई नहीं,बल्कि स्वयं सत्ताधरी दल के विधायक व राज्य की पुलिस ही थी। याद करें बीते मुजफ्फरनगर दंगे के बाद केवल मुसलमानों को सरकारी इमदाद देने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश की सरकार को जिस तरह से लताड़ा था , उसी समय साफ हो गया था कि राज्य सरकार भले ही मुसलमानों का मसीहा होने के बड़े बड़े दावे करे, हकीकत यह है कि वह महज दिखावा ही है। हाषिमपुरा नरसंहार में पीएसी के जवानों के बरी होने के पीछे राज्य सरकार की लचर पैरवी, आरोपी सिपाहियों में से अधिकांष के इटावा व उसके आसपास के होने के तथ्य भी सामने ही हैं। लोग भूले नहीं हैं कि पश्चिमी उ.प्र में दंगे में शामिल भाजपा विधायकों पर रासुका का मुकदमा यदि अदालत में टिका नहीं था तो जाहिर है कि यह राज्य सरकार की ही नाकामी थी। मुजफ्रनगर दंगे के पीडि़तों के राहत षिविर की बेहद खराब हालत, कडकडाती ठंड में राहत षिविरों को बुलडोजर से उजाड़ना, उसी समय कई करोड खर्च कर सैफई में फिल्मी सितारों के ठुमके लगवाना, दंगे के आरोपियों की जमानत व छोटे-मोटे पत्थरबाजी के मुकदमें में जेल गए मुसलमानों की जमानत ना होना, दंगे में भडकाउ भाशण देने के आरोपी मुसलमान नेताओं पर कथित तौर पर से मुकदमें हटाने की अवफाह फैलान.ा..... अनगिनत घटनाएं बानगी हैं कि अब मुलायम सिंह का समाजवाद ‘लाल‘ टोपी’ के बनिस्पत ‘भगवा’ पर ज्यादा झुक चुका है।
मुलायम सिंह यादव जी भले ही कोषिष कर रहे हों कि उनकी पार्टी को समाजवादी की जगह ‘नमाजवादी पार्टी’ के तौर पर पहचान मिल जाए, लेकिन उनकी नियत ‘निमेष कमेटी’ की रपट पर उनके रुख से साफ हो जाती है। सनद रहे नवंबर-2007 में राज्य के कचहरी बम धमाकों के आरोप में गिरफ्तार तारिक काजमी और खालिद मुजाहिद(जिसकी डेढ साल पहले संदिग्ध हालत में पुलिस अभिरक्षा में मौत भी हो गई) के फर्जीवाडे की जांच के लिए सन 2008 में तत्कालीन बसपा सरकार ने सेवानिव्त सत्र व जिला न्यायाधीष आर.डी. निमेष की अगुआई में एक आयोग बनाया था। आयोग की रपट साफ इषारा करती रही कि किस तरह निर्दोष मुसलमानों को एसटीएफ ने झूठे तरीके से फंसाया। जांच आयोग की रपट लगभग एक साल पहले 31 अगस्त 2012 को अखिलेष यादव को सौंपी गई, लेकिन वह कहीं लाल बस्ते में बंधी रही व अदालत ने उस व्यक्ति को दोशी बता कर सजा सुना दी जिसे निमेया कमीषन ने झूठा फंसाया बताया था।
बीते साल राज्य सरकार को उच्च न्यायालय ने तब झटका दिया था, जब आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद कुछ मुसलमान सुवकों पर से मुकदमें हटाने की घोशणा की गई थी। अखिलेष यादव और उनके सरकारी व सियासी सिपाहसलार इतने मासूम भी नहीं थे कि उन्हें पता नहीं था कि आतंकवादी आरोपों में विचाराधीन मुसलमानों पर से मुकदमें वापिस लेना वैधानिक तौर पर संभव नहीं होगा, लेकिन खुद को मुसलमानों का सबसे बड़ा हितेशी जताने के लिए पूरा ड्रामा रचा गया। यह मंचन उस समय भी किया गया , जब आतंकवाद के आरोप में बंद एक युवक खालिद मुजाहिद की बाराबंकी से अदालत से लौटते समय मौत हो गई और राज्य सरकार के कुछ महकमों ने चटपट उसे दिल का दौरा कह कर स्वाभाविक मौत बता दिया । याद करें नेताजी कभी आडवाणी की तारीफ करते है तो कभी प्रतापगढ़ के करीबी इलाकों में हुए दंगो ंमे अपनी ही पार्टी के लोगों की भूमिका पर लीपापोती करते हैं। वे अयोध्या में गोली चलवाने पर अफसोस जाहिर करते हैं। जब नेपाल से सटी सीमा के एक मठाधीष हिंदू सेना के नाम पर लोगों को सषस्त्र कर रहे होते हैं तब उ.प्र. की पुलिस आत्मसमर्पण करने आ रहे कष्मीरियों को आतंकवादी बना कर फंसाने की साजिष में शामिल हो जाती है। जब असंतोश होता है तो उर्दू और मदरसों का झुनझुना बजाया जाता है।
उत्तर प्रदेश, जो लोकसभा में सबसे ज्यादा सदस्य देता है, की राजनीति वोटों के धार्मिक आधार पर घ्रुवीकरण के लिए सब कुछ कर गुजरने के लिए बदनाम रही है, इसमें बलवे, हत्या, समानांतर सेना, सियसती धोखाधड़ी के कई-कई दौर आते-जाते रहे हैं। अब दो दलों की राजनीति का जमाना लग गया है । दोनो क्षेत्रीय दल अपने अपने जातीय गणितों के बल पर केवल राज्य ही नहीं केंद्र सरकार में भी मजबूरी को अपनी सौश्ठवता के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। ऐसे में साढ़े तीन करोड से ज्यादा आबादी वाला यानी राज्य की आबादी की कोई उन्नीस फीसदी आबादी वाला अल्पसंख्यक तबका सभी दलों को एकमुष्त लालच में रिझाता रहता है। ‘‘मुल्ला मुलायम’ कहलाने पर गौरवान्वित महसूस करने वाले यादव-दल(इसे समाजवादी पार्टी कहना उचित नहीं है, क्योंकि अब यह घर-परिवार की पार्टी बन कर रह गई है) को जितना बड़ा बहुमत राज्य विधानसभा में मिला, उससे मुसलमानों की उम्मीदें भी बढ़ी थीं, लेकिन हुआ इसके विपरीत।
मुल्क का मुसलमान इस बात के लिए बदनाम रहा है कि राजनीतिक दल उसकी तुश्टिकरण करते हैं, हालांकि आंकड़े गवाह हैं कि यदि तुश्टिकरण के बाद विकास की य हकीकत है तो इससे बेहतर तो तिरस्कृतीकरण ही होता। याद करें कुंडा में मारे गए डीएसपी जियाउल हक कोई पैंतीस साल बाद उ.प्र. की पीएससी से सीधे चयन किए गए पहले पुलिस अफसर थे। उ.्रप पुलिस में महज साढे चार फीसदी पुलिस वाले ही मुसलमान हैं और उनमें भी एसएचओ या जिम्मेदार पद पर तो नाम गिनती के ही मिलेंगे। इसके विपरीत उ.प्र की जेलो ंमें कुल 5877 सजायाफ्ता मुसलमान हैं व कोई पंद्रह हजार अंडर ट्रायल। राज्य की कुल 64 जेलों में बंदियों की कुल संख्या 82 हजार से ज्यादा है और इनमें 22 प्रतिषत मुसलमान हैं। अखिलेष यादव खुद कहते रहे हैं कि उनके पास ऐसे चार सौ मुसलमानों की सूची है जिन्हें आतंकवाद के आरोप में झुठा फंसाया गया है।
यादव पार्टी का मुस्लिम प्रेम इस बात से उजागर हो जाता है कि बीते तीन साल के दौरान राज्य में 70 से ज्यादा सांप्रदायिक दंगे हुए, जिनमें असल बलवाईयों को पकड़ कर कड़ी कार्यवाही का एक भी उदाहरण सामने नहीं आया है। मुजफ्फरनगर के दंगों ने तो पचास हजार लोगों को अपने घर-गांव से ही विस्थापित कर दिया। पांच लाख मुआवजे की फैसला हो या फिर गांवों में मुसलमानों को ना घुसने देने की जाटों की जिद ; हर कदम पर अखिलेष की सरकार मुसलमानों को भरोसा दिलाने में असफल रही है। यह दुखद है कि उ.प्र. अधिकांष दंगे उन छोटे कस्बों और गांवों में हुउ जिन्हें कभी गंगा-जमनी तहजीब की मिसाल कहा जाता था। इन दंगों में मुसलमानेां के साथ कितनी नाइंसाफी हुई, यह बात बानगी है सरकार की असली मंषा की। अधिकांष जगह दंगों में हिंदु पक्ष की ओर से गुंडई करने वाले समाजवादी पार्टी के पदाधिकारी रहे हैं। यदि हकीकत में अखिलेष यादव उन मुसलमानों का भला चाहते तो वे पिछले साल अगस्त में प्रस्तुत की गई जस्टिस आरडी निमेष जांच आयोग की रपट की सिफारिषों पर अमल की पुख्ता व्यवस्था करते। सनद रहे श्री निमेष ने अपने निश्कर्श में सुझााव दिया था कि आतंकवाद जैसे मसले पर अलग से सेल बना कर दो साल में प्रोसिक्युषन की कार्यवाही पूरी करना चाहिए। अभी गाजियाबाद से ही आतंकवाद के आरोप में फंसा एक युवक 14 साल बाद अदालत से निर्दोश छूटा, जरा सोचिए कि अब वह जिंदगी किस सिरे से षुरू करे। पीडित पक्ष को उचित मुआवजा, झूठा फंसाने के दोशी कर्मचारियों पर कड़ी कार्यवाही जैसेी निमेष कमीषन की रपट को इस सरकार ने कचरे के डिब्बे में डाल रखा था, वह तो बाराबंकी में खालिद मुजाहिद की मौत के बाद बने दवाब के बाद सरकार ने रपट को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन उसके क्रियान्वयन के कोई कदम नहीं उठे हैं।
राज्य सरकार दावा कर रही है वह अब कुल बजट के अठारह फीसदी को मुसलमानेां के विकास पर खर्च करेगी- गौर से देखें तो यह महज झलावा ही है , यह किसी भी विभाग के लिए संभव नहीं होगा कि जाति-धर्म विषेश के नाम पर अलग से योजना बनाए। फिर यादव परिवार जाति के आधार पर आरक्षण की मांग कर मुसलमानों को मुख्य धारा से काटने का काम कर रहा है। यह भी हास्यास्पद है कि राज्य सरकार ने मान लिया है कि उर्दू केवल मुसलमानों की भाशा है और उर्दू के विकास के नाम पर खर्च करने से मुसलमानों का भला होगा। अलबत्ता तो मुल्क के जितने भी बडे उर्दू के लेखक हुए वे मुसलमान नहीं थे, फिर जब उर्दू रोजगार से जुड़ी भाशा ही नहीं है तो उसे पढ़ने के बाद मुसलमानों के लिए जीवकोपार्जन का कौन सा रास्ता खुलेगा ? इस पर चुप्पी ही रहती है। उर्दू हिंदुस्तान की भाशा है और उसे सरंक्षित करना जरूरी है लेकिन भाशा का सांप्रदायिककरण कर राज्य सरकार ना तो भाशा का भला कर रही है और ना ही मुसलमान का। काष मुसलमानेां की हस्तकला के माहिर इलाकों में बेहतरीन व्यापार केंद्र खोलने, नई तकनीक की शिक्षा देने की बात होती - अलीगढ का ताला उद्योग, मुरादाबाद की पीतल कारीगरी, रामपुर की कैंची-छुरी, लखनऊ की चिकनकारी, बुंदेलखंड के पाॅटरी, गाजियाबाद पिलखुआ की वस्त्र कला के साथ-साथ राज्य की चीनी मिलों को समृद्ध करने की दूरगामी योजना यह सरकार बनाती, इससे मुसलमान युवाकों को अपने पुष्तैनी धंधे व हुनर में अपना भविश्य संवारने की संभावना दिखती। बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं को ठीक करने की योजनाएं बनाई जातीं, जिससे राज्य की 19 फीसदी मुस्लिम आबादी सबसे ज्यादा लाभान्वित होती, उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर काम होता, ताकि पलायन रूकता षिक्षित युवक काम के बाजार में निराष ना होते। दुख है कि ऐसी कोई सोच सरकार की नहीं है- वह केवल शिगूफे छोड़ने, नारे लगाने में भरोसा रखती है, उसके राज्य में योगी आदित्यनाथ मजबूत होते हैं, पुलिस वाले एक जाति विषेश के लोगों द्वारा दौड़ा-दौडा कर पीटे जाते हैं। एक बात जानना जरूरी है कि मुसलमान भी इस देश और समाज का अभिन्न हिस्सा हैं और उनका समग्र विकास उन्हें अलग कर संभव नहीं है। जब राज्य में बिजली की आपूर्ति सही होगी, या फिर दिल्ली से गाजियाबाद को जोड़ने वाली मेट्रो साकार होगी या फिर लघु उद्योंगों के लिए सार्थक नीति बनेगी तो उससे पूरा प्रदेश व उसके साथ मुसलमान भी हितग्राही होंगे। उन्हें अलग करने की बात करने वाला कम से कम उनका हितैशी तो नहीं हो सकता।
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