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शनिवार, 27 जून 2015

तो क्या हम केवल नारे लगाना जानते हैं ?

प्रभात, मेरठ, 28 जून 15
                                                                    पंकज चतुर्वेदी
 यह देश के लिए गौरव की बात थी कि संयुक्त राष्‍ट्र संघ ने 21 जून को अंतरराष्‍ट्रीय योग दिवस  घोषित किया। इस अवसर पर दिल्ली के राजपथ पर भव्य आयोंजन हुआ, जिसमें लगभग 35 हजार लोगों ने एकसाथ योग किया। इन लोगों के लिए लगभग एक करोड़ रूप्ए खर्च कर बेहतरीन रबर वाले मैट या चटाई मंगवाई गई थी। जैसे ही आधे घंटे की शारीरिक क्रियांए समाप्त हुई, वहां योग कर रहे लोगों में चटाई लूटकर घर ले जाने की होड़ मच गई। बड़े लोगों की देखा-देखी बच्चें ने भी खूब चटाईयां लूंटी। अब जरा गौर करें कि योग केवल वर्जिश तो है नहीइं, यह मन, भावना, शरीर विचार को पवित्र रखने का सूत्र है। जाहिर है कि हम नारे लगाने को दिखावा करने को तो राजपथ पर जुड़ गएउ, लेकिन हमारी असल भावना योग की थी ही नहीं। बीते दो अक्तूबर को प्रधानमंत्री ने एक पहल की, आम लोगों से अपील की थी- निहायत एक सामाजिक पहल, अनिवार्य पहल और देष की छबि दुनिया में सुधारने की ऐसी पहल जिसमें एक आम आदमी भी भारत-निर्माण में अपनी सहभागिता बगैर किसी जमा-पूंजी खर्च किए दे सकता था- स्वच्छ भारत अभियान। पूरे देष में झाडू लेकर सड़कों पर आने की मुहीम सी छिड़ गई - नेता, अफसर, गैरसरकारी संगठन, स्कूल, हर जगह सफाई अभियान की ऐसी धूम रही कि बाजार में झाड़ुओं के दाम आसमान पर पहुंच गए। यह बात प्रधानमंत्री जानते हैं कि हमारा देश केवल साफ सफाई ना होने के कारण उत्पन्न संकटों के कारण हर साल 54 अरब डालर का नुकसान सहता है। इसमें बीमारियां, व्यापारिक व अन्य किस्म के घाटे षामिल है।। यदि भारत में लेाग कूड़े का प्रबंधन व सफाई सीख लें तो औसतन हर साल रू.1321 का लाभ होना तय है। लेकिन जैसे-जैसे दिन  आगे बढ़े, आम लोगों से ले कर षीर्श नेता तक वे वादे, षपथ और उत्साह हवा हो गए।
पिछले दिनांे दिल्ली में 13 दिनांे तक गली-सड़कों पर कूड़ों का अंबार रहा और वे नेता जो उस समय महज फोटो खिंचवाने के लिए खुद कूड़ा डलवा कर झाड़ू लगा रहे थे, ना तो इस गंदगी को साफ करने आगे आए और ना ही समस्या के समाधान पर गंभीर दिखे। जब हड़ताल समाप्त हो गई तो एक बार फिर टीवी कैमरों को बुला कर झाड़ू लगाने की अभिनय किया गया। देश, मुहल्ला साफ रहे, यह दिल से तो कोई  चाहता नहीं था, बस उससे राजनीतिक लाभ की संभावनाओं के फेर में हाथ में झाड़ू थाम ली गई थी।
‘‘मैं गंदगी को दूर करके भारत माता की सेवा करूंगा। मैं शपथ लेता हूं कि मैं स्वयं स्वच्छता के प्रति सजग रहूंगा और उसके लिए समय दूंगा। हर वर्ष सौ घंटे यानी हर सप्ताह दो घंटे श्रम दान करके स्वच्छता के इस संकल्प को चरितार्थ करूंगा। मैं न गंदगी करूंगा, न किसी और को करने दूंगा। सबसे पहले मैं स्वयं से, मेरे परिवार से, मेरे मोहल्ले से, मेरे गांव से और मेरे कार्यस्थल से शुरुआत करूंगा। मैं यह मानता हूं कि दुनिया के जो भी देश स्वच्छ दिखते हैं उसका कारण यह है कि वहां के नागरिक गंदगी नहीं करते और न ही होने देते हैं. इस विचार के साथ मैं गांव-गांव और गली-गली स्वच्छ भारत मिशन का प्रचार करूंगा। मैं आज जो शपथ ले रहा हूं वह अन्य सौ व्यक्तियों से भी करवाऊंगा, ताकि वे भी मेरी तरह सफाई के लिए सौ घंटे प्रयास करें। मुझे मालूम है कि सफाई की तरफ बढ़ाया गया एक कदम पूरे भारत को स्वच्छ बनाने में मदद करेगा। जय हिंद।’’ यह षपथ दो अक्तूबर को पूरे देष में सभी कार्यालयों, स्कूलों, जलसों में गूंजी थी। उस समय लगा था कि आने वाले एक साल में देष इतना स्वच्छ होगा कि हामरे स्वास्थ्य जैसे बजट का इस्तेमाल अन्य महत्वपूर्ण  समस्याओं के निदान पर होगा। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि हम भारतीय केवल उत्साह, उन्माद और अतिरेक में नारे तो लगाते है। लेकिन जब व्याहवारिकता की बात आती है तो हमारे सामने दिल्ली के कूड़े के ढेर जैसे हालात होते हैं जहां गंदगी से ज्यादा सियासत प्रबल होती है।
JANSANDESH TIMES UP 29-6-15
पूर्वी दिल्ली नगर निगम के सफाई कर्मचरियों के वेतन को ले कर यह पहली हड़ताल नहीं थी, इससे तीन महीने पहले भी यही हालात बने थे। सफाई कर्मचारियों का वेतन ना मिलना अमानवीय है और इसका समाधान दिल्ली में खोजना कोई बड़ी बात नहीं थी- सभी सरकारें, निर्णय लेने वाले यहीं हैं बामुष्किल दस किलोमीटर के दायरे में। इसके बावजूद एक दल हड़ताल के लिए उकसाता रहा तो दूसरा उस पर निर्विकार रहा तो तीसरा  अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ता दिखा। सबसे दु,ाद यह है कि विरोध जताने के लिए मुख्य मार्गो पर ट्रालियों से ला कर कचरा उड़ेला गया, ताकि आम लोग बदबू, कूड़े से परेषान हों व उनकी मांग जल्दी मानी जाए। या फिर परेषान लोगों के मन में किसी व्यक्ति या दल विषेश के प्रति नफरत पैदा हो। घर से निकला कचरा, मरे हुए जानवरों के अंग, सड़ा मांस, अस्पताल की खतरनाक कचरा, सबकुछ बीच सड़क पर जमा कर दिया गया। दुपहिये वाले खूब गिरे। सड़क पर जाम हुआ। अभी इस बात का तो कोई हिसाब ही नहीं है कि इस कूड़े के कारण कितने पहलहे से बीमार लेागों पर एंटीबायोटिक का असर नहीं हुआ या फिर कितने और बीमारी हुए। टीवी बहसों पर घंटो चर्चाएं हुई व दोषारोपण होते रहे, लेकिन किसी भी दल, व्यक्ति, संस्था, संगठन या विभाग ने इस कूड़े को हटाने के प्रयास नहीं किए, किसी ने आंदोलनकारियों से यह अपील नहीं की कि इस तरह की हरकत नहीं की जाए।
लगता है कि कूड़ा हमारी राजनीति व सोच का स्थाई हिस्सा हो गया है। दिल्ली से चिपके गाजियाबद में एक निगम पार्षद व एक महिला दरोगा का आपसी झगड़ा हुआ व पार्शद के समर्थन में सफाई कर्मचारियों ने दरोगा के घर के बारह रेहड़ीभर कर बदबूदार कूड़ा डाल दिया। प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र, जाहं मिनी सचिवालय, क्योटो षहर का सपना और सत्ता के सभी तंत्र सक्रिय हैं, षहर में कूड़े व गंदगी का अलम यथावत है। अभी एक प्रख्यात अंतरराश्ट्रीय समाचार संस्था ने अपनी वेबसाईट पर षहर के दस प्रमुख स्थानों पर कूड़े के अंबार के फोटो दिए है।, जिनमें बबुआ पांडे घाट, बीएचईएल, पांडे हवेली, रवीन्द्रपुरी एक्सटेषन जैसे प्रमुख स्थान कई टन कूड़े से बजबजाते दिख रहे है।
षायद यह भारत की रीति ही है कि हम नारेां के साथ आवाज तो जोर से लगाते हैं लेकिन उनके जमीनी धरातल पर लाने में ‘किंतु-परंतु’ उगलने लगते हैं। कहा गया कि भातर को आजादी अहिंसा से मिली, लेकिन जैसे ही आजादी मिली, दुनिया के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक विभाजन के दौरान घटित हो गया और बाद में अहिंसा का पुजारी हिंसा के द्वारा ही गौलोक गया। ‘‘यहां षराब नहीं बेची जाती है’’ या ‘‘देखो गधा मूत रहा है’’ से लेकर ‘दूरदृश्टि- पक्का इरादा’, ‘‘अनुषासन ही देष को महान बनाता है’’ या फिर छुआछूत, आतंकवाद, सांप्रदायिक सौहार्द या पर्यावरण या फिर ‘बेटी बचाओ’- सभी पर अच्छे सेमीनार होते हैं, नारे व पोस्ट गढ़े जाते हैं, रैली व जलसे होते हैं, लेकिन उनकी असलियत दीवाली पर हुई हरकतों पर उजागर होती है। हर इंसान चाहता है कि देष मे बहुत से षहीद भगत सिंह पैदा हों, लेकिन उनके घर तो अंबानी या धोनी ही आए, पड़ोस में ही भगत सिंह जन्मे, जिसके घर हम कुछ आंसु बहाने, नारे लगाने या स्मारक बनाने जा सकें। जब तक खुद दीप बन कर जलने की क्षमता विकसित नहीं होगी, तब तक दीया-बाती के बल पर अंधेरा जाने से रहा। प्रधानमंत्री का कम एक विचार आम लेागों को देना व उसके क्रियान्वयन के लिए षुरूआत करना है, उसे आगे बढ़ाना आम लोगों व तंत्र की जिम्मेदारी है।  अब तो लगता है कि सामुदायिक व स्कूली स्तर पर इस बात के लिए नारे गढ़ने होंगे कि नारों को नारे ना रहने दो, उन्हें ‘नर-नारी’ का धर्म बना दो।

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