प्यार बांटते चलो
nandan July 15 |
पंकज चतुर्वेदी
शाम ढ़लते ही पूरा मुहल्ला छतों पर आ गया । सभी की निगाहें दूर आसमान पर टिकी हैं । तभी
सलीम ने अपने पिता को आते देख लिया और गोली की गति से सीढि़यां उतरते हुए सड़क पर आ गया और उनसे जा लिपटा ।
‘‘अब्बू, जल्दी चलो ना ! मेरे नए कपड़े लाने हैं-- ‘‘ चलते हैं बेटे, अभी चलते हैं । लेकिन पहले रोज़ा तो खोल लें ।’’ असलम ने सलीम को गोदी में उठाया व घर के भीतर आ गए ।
कमरे में अम्मी ने दस्तरखान बिछा रखा था । सभी ने मिल कर अल्लाह को याद किया, फिर रोज़ा खोला । बच्चों ने तेजी से खाना खतम किया और बाजार के लिए निकल पड़े ।
असलम ने छुटकी को गोदी में उठाया व सलीम की उंगली थामी । बाजार में बेहद भीड़ थी । हर चेहरे पर खुशी... लगता है कि आज सभी लोग अपने दुख-दर्द, दुश्मनी-विवाद सभी कुछ भुला कर बस ईद के रंग में खो जाना चाहते हैं !!
शंकर दर्जी की दुकान पर जैसे लोगों की भीड़ टूट पड़ी थी । बाहर तक लोग दिख रहे थे।
‘‘अस्सलामुअलैकुम असलम भाई..... ईद के चांद की बहुत-बहुत बधाईयां........’’। षंकर ने असलम को दूर से देख लिया था। असलम ने मुसाफा करते हुए शंकर को मुबारकबाद दी ।
शंकर ने फटाफट सिले हुए कपड़े निकलवाए । सलीम अपना छोटा सा कुरता-पायजामा पा कर फूला नहीं समा रहा था । तभी शंकर ने एक छोटी सी टोपी सलीम की ओर बढ़ा कर कहा, ‘‘ये हमारे बेटे को..... हमारी तरफ से ईद की भेंट.......।’’ सलीम ने तत्काल टोपी लगाई और शंकर को शुक्रिया कहा ।
छुटकी के लिए शनील की फ्राक और चूं-चूं आवाज करने वाले जूते लिए गए ।
सलीम की तो जैसे रात बड़ी मुश्किल से कटी। सूरज निकलने से पहले ही वह बिस्तर से खड़ा हो गया । आठ बजते-बजते वह नए कपड़े व टोपी के साथ दोस्तों के बीच था । तभी अब्बा उसे अपने साथ ईदगाह ले गए।
ईदगाह में ठसा-ठस भीड़ थी । तभी लाउड स्पीकर पर इमाम साहब की आवाज गूंजी, ‘‘हज़रात, नमाज़ का वक्त हो गया है । सभी लोग अपनी जगह पर तशरीफ ले आएं ।’’
ठीक नौ बजे जमात खड़ी हुई । दूर-दूर तक कंघे से कंधा सटाए हुए लोगों की सफें़़ (सीधी कतारें) दिख रही थीं । हजारों सिर एक साथ खुदा की इबादत में झुकते दिख रहे थे।
नमाज खतम होते ही एक-दूसरे से गले मिल कर मुबारकबाद देने का सिलसिला शुरू हो गया । ईदगाह के बाहर लगे मेले में छुटकी और सलीम ने पालकी वाला झूला झूला, गोलगप्पे और कुल्फी खाई । दोनों ने खिलौने भी खरीदे । असलम साहब गरीबों को दान देने व दोस्तों से मिले में मशगूल हो गए ।
जब तीनों लोग घर पहुंचे तो शंकर चाचा अपनी बेटी खुशी के साथ वहां पहले से मौजूद थे । असलम और शंकर गले मिले । खुशी ने जब ईद की मुबारकबाद दी तो असलम ने उसे ईदी के पचास रूपए दिए ।
‘‘यार असलम, मुझे तो ईद का इंतजार रहता है। इस समय इतना काम मिलता है कि आने वाले तीन महीने काम ना करो तो भी नवाब की तरह जी सकता हूं...... । साल में तीन-चार बार ईद नहीं मना सकते ....?’’ शंकर के साथ-साथ सभी हंस दिए ।
‘‘पापा, ऐसे थोड़े ही होता है । रमजान का पवित्रा महीना इस्लामी-हिजरी कलैंडर में साल में एक बार ही आता है । इस महीने इस्लाम को मानने वाले कड़ा उपवास करते हैं व खुदा की इबादत करते हैं। इस महीने के आखिर में ईद मनाई जाती है।’’ खुशी बोली ।
‘‘शंकर भाई आप भूल जाते हो। ईद तो दो बार आती ही है - एक बार ईद-उल-फितर और दूसरी ईद-उल-जुहा। ईद-उल-फितर रमजान के बाद आती है। ईद-उल -जुहा पर कुर्बानी दी जाती है।’’ असलम ने याद दिलाया।
तभी सलीम की अम्मी ने पकवानों की एक थाली आगे कर दी । उसमें कटोरियों में तरह-तरह की सेवईयां, दहीबड़े और मिठाईयां थीं।
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