कमी भोजन की नहीं प्रबंधन की है
प्रभात, मेरठी, 14 जून 15 |
पंकज चतुर्वेदी
जिस समय देश विकासोन्मुखी व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभर कर आए नए भारत की वर्षगांठ की बधाईयां लेने व देने में मशगूल था, ठीक उसी समय एक ऐसी भी खबर आई जो राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियों से वंचित रह गई। वह खबर एक ऐसे राज्य से आई जहां की सार्वजनिक वितरण प्रणाली व खाद्य सुरक्षा योजनओं की बानगी देश-दुनिया में दी जाती रही है। एक बच्चे की लावारिस लाश मिलती है,उसके पोस्टमार्टम में पता चलता है कि उसके पेट में कई दिनों से अन्न का एक दाना नहीं गया था, भूख से उसकी अंतडिया सिकुड गई थीं। बाप काम की तलाश में भटक रहा था, लेकिन काम नहीं था, उसका राशन कार्ड भी कुछ महीनों पहले सरकारी लालफीताशही में उलझ कर निरस्त हो गया था। उस घर के जो दो बच्चे बचे थे, वे भी भूख से किसी भी पल दम तोड़ जाते। जिस देश में नए खरीदे गए अनाज को रख्,ाने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ा-घर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते है।
बंगाल के बंद हो गए चाय बागानों में आए रोज मजूदरों के भूख के कारण दम तोड़ने की बात हो या फिर महाराष्ट्र में अरबपति शिरडी मंदिर के पास ही मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर या फिर राजस्थान के बारां जिले में सहरिया आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चें के अस्सी फीसदी के उचित खुराक ना मिल पाने के कारण छोटे में ही मर जाने के वाकिये.... यह इस देष में हर रोज हो रहा है, लेकिन विज्ञापन में मुस्कुराते चैहरों, दमकती सुविधाओं के फेर में वास्तविकता से परे उन्मादित भारतवासी तक ऐसी खबरें या तो पहुंच नहीं रही हैं या उनकी संवेदनाओं को झकझोर नहीं रही हैं।
हाल की ही रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके में अंबिकापुर जिले की है। विकासखंड मैनपाट के नर्मदापुर खालपारा निवासी संगतराम मांझी अपने तीनों पुत्र राजाराम 9 वर्ष, सरवन 6 वर्ष एवं शिवकुमार 5 वर्ष के साथ रोजी-रोटी की तलाश में मंगलवार को पैदल ही सीतापुर आया था। यहां बच्चों के साथ उसने दो दिन बिताया। गुरुवार की शाम को वह अपने तीनों बच्चों को लेकर ग्राम पीडि़या जाने निकला था। रात के अंधेरे में उससे दो बच्चे सरवन एवं शिवकुमार बिछड़ गए और भटकते हुए दोनों कतकालो डूमरपारा पहुंच गए। सुबह गांव की एक औरत ने पेड़ के नीचे सो रहे बच्चें को देखा व लोगों को बुलाया। तब तक षिकुमार की सांसें थम चुकी थीं, सरवन को अस्पताल ले जाया गया तो वह बड़ी मुषिकल से बचा। मृत बच्चे के पोस्टमार्टम से पता चला कि उसने कई दिनों से कुछ खाया नहीं था व भूख से उसकी आंतें तक सिकुड़ गई थीं। संगतराम का परिवार बेहद गरीब था और अभावों में बमुश्किल परिवार का गुजर बसर हो रहा था। आर्थिक तंगी के कारण संगतराम के बीमार पत्नी की मौत पहले ही हो चुकी थी। तीनों बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी संगतराम के कंधों पर ही थी। उसके पास गरीबी रेखा का राशन कार्ड था जिसमें 35 किलो चावल मिलता था, परंतु कार्ड सत्यापन के दौरान उसका राशनकार्ड निरस्त कर दिया गया था। उसे अपने गांव में मनरेगा के तहत कभी काम ही नहीं मिला। हालांकि अब प्रषासन संगतराम को पागल करार दे कर भूख से मौत का कलंक मिटाने का प्रयास कर रहा है, लेकि बाप के मानसिक अस्थिर होने, उसके पास काम ना होने से हम इस राश्ट्रीय षर्म खुद को परे नहीं कर सकते हैं।
भूख से मौत वह भी उस देष में जहां खाद्य और पोशण सुरक्षा की कई योजनाएं अरबों रूप्ए की सबसिडी पर चल रही हैं, जहां मध्यान्य भोजन योजना के तहत हर दिन 12 करोड़ बच्चें को दिन का भरपेट भोजन देने का दावा हो, जहां हर हाथ को काम व हर पेट को भोजन के नाम पर हर दिन करोड़ों का सरकारी फंड खर्च होता हो; दर्षाता है कि योजनाओं व हितग्राहियों के बीच अभी भी पर्याप्त दूरी है। वैसे भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चों के भूख या कुपोशण से मरने के आंकड़े संयुक्त राश्ट्र संगठन ने जारी किए हैं। ऐसे में प्दिली नवरात्रि पर गुजरात के गांधीनगर जिले के एक गांव में माता की पूजा के नाम पर 16 करोड़ रूपए दाम के साढ़े पांच लाख किलो षुद्ध घी को सड़क पर बहाने, मध्यप्रदेष में एक राजनीतिक दल के महासम्मेलन के बाद नगर निगम के सात ट्रकों में भर कर पूड़ी व सब्जी कूड़ेदान में फैंकने की घटनाएं बेहद दुभाग्यपूर्ण व षर्मनाक प्रतीत होती हैं।
हर दिन कई लाख लोगों के भूखे पेट सोने के गैर सरकारी आंकड़ो वाले भारत देष के ये आंकड़े भी विचारणीय हैं। देष में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नश्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इस लिए बेकाम हो जात है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। देष के कुल उत्पादित सब्जी, फल, का 40 फीसदी प्रषीतक व समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न बर्बाद करता है। जितना अन्न हीम एक साल में बार्बा करते हैं उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सके। एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयर हाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छुपा नहीं है, बस जरूरत है तो एक प्रयास करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक कुंटल अनाज का आकस्मिक भंडारण व उसे जरूरतमंद को देने की नीति का पालन हो तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा।
विकास,विज्ञान, संचार व तकनीक में हर दिन कामयाबी की नई छूने वाले मुल्क में इस तरह बेरोजगारी व खाना ना मिलने से होने वाली मौतें मानवता व हमारे ज्ञान के लिए भी कलंक हैं। हर जरूरतमंद को अन्न पहुंचे इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोडा़ा चुस्त-दुरूस्त होना होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनषील बनना होगा। हो सकता है कि हम इसके लिए पाकिस्तन से कुछ सीख लें जहां षादी व सार्वजनिक समारोह में पकवान की संख्या, मेहमानों की संख्या तथा खाने की बर्बादी पर सीधे गिरफ्तारी का कानून है। जबकि हमारे यहां होने वाले षादी समारोह में आमतौर पर 30 प्रतिषत खाना बेकार जाता है। गांव स्तर पर अन्न बैंक, प्रत्येक गरीब, बेरोजगार के आंकड़े रखना जैसे कार्य में सरकार से ज्यादा समाज को अग्रणी भूमिका निभानी होगी। बहरहाल हमें एकमत से स्वीकार करना होगा कि अंबिकापुर जिले में एक आदिवासी बच्च्ेा की ऐसी मौत हम सभी के लिए षर्म की बात है। यह विडंबना है कि मानवता पर इतना बड़ा धब्बा लगा और उस इलाके के एक कर्मचाीर या अफसर को सरकार ने दोशी नहीं पाया, जबकि ये अफसरान इलाके की हर हनजी उपलब्धि को अपनी बताने से अघाते नहीं हैं।
जिस समय देश विकासोन्मुखी व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभर कर आए नए भारत की वर्षगांठ की बधाईयां लेने व देने में मशगूल था, ठीक उसी समय एक ऐसी भी खबर आई जो राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियों से वंचित रह गई। वह खबर एक ऐसे राज्य से आई जहां की सार्वजनिक वितरण प्रणाली व खाद्य सुरक्षा योजनओं की बानगी देश-दुनिया में दी जाती रही है। एक बच्चे की लावारिस लाश मिलती है,उसके पोस्टमार्टम में पता चलता है कि उसके पेट में कई दिनों से अन्न का एक दाना नहीं गया था, भूख से उसकी अंतडिया सिकुड गई थीं। बाप काम की तलाश में भटक रहा था, लेकिन काम नहीं था, उसका राशन कार्ड भी कुछ महीनों पहले सरकारी लालफीताशही में उलझ कर निरस्त हो गया था। उस घर के जो दो बच्चे बचे थे, वे भी भूख से किसी भी पल दम तोड़ जाते। जिस देश में नए खरीदे गए अनाज को रख्,ाने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ा-घर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते है।
बंगाल के बंद हो गए चाय बागानों में आए रोज मजूदरों के भूख के कारण दम तोड़ने की बात हो या फिर महाराष्ट्र में अरबपति शिरडी मंदिर के पास ही मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर या फिर राजस्थान के बारां जिले में सहरिया आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चें के अस्सी फीसदी के उचित खुराक ना मिल पाने के कारण छोटे में ही मर जाने के वाकिये.... यह इस देष में हर रोज हो रहा है, लेकिन विज्ञापन में मुस्कुराते चैहरों, दमकती सुविधाओं के फेर में वास्तविकता से परे उन्मादित भारतवासी तक ऐसी खबरें या तो पहुंच नहीं रही हैं या उनकी संवेदनाओं को झकझोर नहीं रही हैं।
हाल की ही रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके में अंबिकापुर जिले की है। विकासखंड मैनपाट के नर्मदापुर खालपारा निवासी संगतराम मांझी अपने तीनों पुत्र राजाराम 9 वर्ष, सरवन 6 वर्ष एवं शिवकुमार 5 वर्ष के साथ रोजी-रोटी की तलाश में मंगलवार को पैदल ही सीतापुर आया था। यहां बच्चों के साथ उसने दो दिन बिताया। गुरुवार की शाम को वह अपने तीनों बच्चों को लेकर ग्राम पीडि़या जाने निकला था। रात के अंधेरे में उससे दो बच्चे सरवन एवं शिवकुमार बिछड़ गए और भटकते हुए दोनों कतकालो डूमरपारा पहुंच गए। सुबह गांव की एक औरत ने पेड़ के नीचे सो रहे बच्चें को देखा व लोगों को बुलाया। तब तक षिकुमार की सांसें थम चुकी थीं, सरवन को अस्पताल ले जाया गया तो वह बड़ी मुषिकल से बचा। मृत बच्चे के पोस्टमार्टम से पता चला कि उसने कई दिनों से कुछ खाया नहीं था व भूख से उसकी आंतें तक सिकुड़ गई थीं। संगतराम का परिवार बेहद गरीब था और अभावों में बमुश्किल परिवार का गुजर बसर हो रहा था। आर्थिक तंगी के कारण संगतराम के बीमार पत्नी की मौत पहले ही हो चुकी थी। तीनों बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी संगतराम के कंधों पर ही थी। उसके पास गरीबी रेखा का राशन कार्ड था जिसमें 35 किलो चावल मिलता था, परंतु कार्ड सत्यापन के दौरान उसका राशनकार्ड निरस्त कर दिया गया था। उसे अपने गांव में मनरेगा के तहत कभी काम ही नहीं मिला। हालांकि अब प्रषासन संगतराम को पागल करार दे कर भूख से मौत का कलंक मिटाने का प्रयास कर रहा है, लेकि बाप के मानसिक अस्थिर होने, उसके पास काम ना होने से हम इस राश्ट्रीय षर्म खुद को परे नहीं कर सकते हैं।
भूख से मौत वह भी उस देष में जहां खाद्य और पोशण सुरक्षा की कई योजनाएं अरबों रूप्ए की सबसिडी पर चल रही हैं, जहां मध्यान्य भोजन योजना के तहत हर दिन 12 करोड़ बच्चें को दिन का भरपेट भोजन देने का दावा हो, जहां हर हाथ को काम व हर पेट को भोजन के नाम पर हर दिन करोड़ों का सरकारी फंड खर्च होता हो; दर्षाता है कि योजनाओं व हितग्राहियों के बीच अभी भी पर्याप्त दूरी है। वैसे भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चों के भूख या कुपोशण से मरने के आंकड़े संयुक्त राश्ट्र संगठन ने जारी किए हैं। ऐसे में प्दिली नवरात्रि पर गुजरात के गांधीनगर जिले के एक गांव में माता की पूजा के नाम पर 16 करोड़ रूपए दाम के साढ़े पांच लाख किलो षुद्ध घी को सड़क पर बहाने, मध्यप्रदेष में एक राजनीतिक दल के महासम्मेलन के बाद नगर निगम के सात ट्रकों में भर कर पूड़ी व सब्जी कूड़ेदान में फैंकने की घटनाएं बेहद दुभाग्यपूर्ण व षर्मनाक प्रतीत होती हैं।
हर दिन कई लाख लोगों के भूखे पेट सोने के गैर सरकारी आंकड़ो वाले भारत देष के ये आंकड़े भी विचारणीय हैं। देष में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नश्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इस लिए बेकाम हो जात है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। देष के कुल उत्पादित सब्जी, फल, का 40 फीसदी प्रषीतक व समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न बर्बाद करता है। जितना अन्न हीम एक साल में बार्बा करते हैं उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सके। एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयर हाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छुपा नहीं है, बस जरूरत है तो एक प्रयास करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक कुंटल अनाज का आकस्मिक भंडारण व उसे जरूरतमंद को देने की नीति का पालन हो तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा।
विकास,विज्ञान, संचार व तकनीक में हर दिन कामयाबी की नई छूने वाले मुल्क में इस तरह बेरोजगारी व खाना ना मिलने से होने वाली मौतें मानवता व हमारे ज्ञान के लिए भी कलंक हैं। हर जरूरतमंद को अन्न पहुंचे इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोडा़ा चुस्त-दुरूस्त होना होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनषील बनना होगा। हो सकता है कि हम इसके लिए पाकिस्तन से कुछ सीख लें जहां षादी व सार्वजनिक समारोह में पकवान की संख्या, मेहमानों की संख्या तथा खाने की बर्बादी पर सीधे गिरफ्तारी का कानून है। जबकि हमारे यहां होने वाले षादी समारोह में आमतौर पर 30 प्रतिषत खाना बेकार जाता है। गांव स्तर पर अन्न बैंक, प्रत्येक गरीब, बेरोजगार के आंकड़े रखना जैसे कार्य में सरकार से ज्यादा समाज को अग्रणी भूमिका निभानी होगी। बहरहाल हमें एकमत से स्वीकार करना होगा कि अंबिकापुर जिले में एक आदिवासी बच्च्ेा की ऐसी मौत हम सभी के लिए षर्म की बात है। यह विडंबना है कि मानवता पर इतना बड़ा धब्बा लगा और उस इलाके के एक कर्मचाीर या अफसर को सरकार ने दोशी नहीं पाया, जबकि ये अफसरान इलाके की हर हनजी उपलब्धि को अपनी बताने से अघाते नहीं हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें